व्यक्ति, परिवेश और परिधान! Tenali Ram Moral Story in Hindi

Viyakti Parivesh Aur Paridhan Tenali Rama Moral Story in Hindi

विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय सिंहासन पर विराजमान थे। सभा में तर्क-वितर्क चल रहा था। सभासद अपनी-अपनी बुद्धि और वाक्पटुता से यह प्रमाणित करने में लगे थे कि व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह सृष्टि की विशिष्ट रचना है। प्रकृति में एक से बढ़कर एक जन्तु हैं। कोई बहुत छोटा तो कोई बहुत विशाल। कोई अकेला विचरण करता है तो कोई समूह में। कोई इतना शक्तिशाली है कि बड़ा पेड़ उखाड़ डालता है। किसी को पेट भरने के लिए सरसों का एक दाना काफी है और किसी को अपना पेट भरने के लिए किसी बड़े जानवर का शिकार करना पड़ता है। इतनी विचित्रतापूर्ण सृष्टि में एक मनुष्य ही है जिसने अपनी बुद्धि से इन सहस्त्रो कोटि के जीवों की प्रकृति को समझा है और उनसे लाभ लेने की कला में पारंगत हुआ है। हिंसक जानवर शेर को भी उसने अपनी मेधा के बूते पालतू बना लिया है। वह हाथी जैसे विशालकाय जीव पर सवारी करता है।

बात व्यक्ति की क्षमता से होते हुए उसके आचार-व्यवहार पर उतर आई। तर्क-वितर्क का दौर जारी रहा। महाराज कृष्णदेव राय अपने आसन पर बैठे अपने सभासदों की वाक्पटुता और उनके ज्ञान का आनन्द उठा रहे थे। महाराज का एक सभासद अपने आसन पर निर्लिप्त भाव में बैठा था। उसे देखकर ऐसा नहीं लगता था कि वह सभा में चल रही चर्चा के दौर में कोई रुचि रखता हो। महाराज कृष्णदेव राय उसकी ओर कई बार देख चुके थे। उसकी निर्लिप्तता बनी हुई थी। महाराज ने सोचा-शायद वह किसी अन्य विषय पर विचार कर रहा है। उन्होंने उसे टोका नहीं। सभा में अब सभासद कुछ और बुलन्दी से बोलने लगे थे।

एक सभासद ने कहा, “कुछ लोग भ्रम में जीते हैं कि अच्छा वस्त्रा पहन लेने से ही उन्हें सम्मान मिलने लगेगा। सच तो यह है कि व्यक्ति को सम्मान उसके बाह्य आवरण के कारण नहीं, अपितु आन्तरिक गुणों के कारण मिलता है।”

बोलने वाले सभासद के होंठों पर ऐसा कहते समय व्यंग्य-भरी मुस्कान तैर गई और उसने वक्र–ष्टि से सभा में बैठे उस सभासद की ओर देखा जो निर्लिप्त भाव में सभा में बैठा था और अब तक कुछ बोला नहीं था।

तभी एक दूसरे सभासद ने पूर्ववक्ता की हाँ में हाँ मिलाई और कहने लगा, “ठीक कहते हो भाई! इन दिनों यह प्रवृत्ति देखने में आ रही है कि कुछ लोग ललाट पर चन्दन लगाकर पंडित या ज्ञानी होने का स्वाँग करते हैं। उनका स्वाँग भले ही कुछ लोगों को भ्रमित कर दे लेकिन ज्ञान की परख रखने वालों की दृष्टि से उनकी वास्तविकता छुपी नहीं रह सकती। ज्ञानी जानते हैं कि तिलक लगा लेने मात्रा से कोई पंडित नहीं हो जाता। पांडित्य के लिए तिलक की आवश्यकता ही क्या है? पांडित्य तो अध्ययन और मनन की स्वाभाविक परिणति है।” उसने भी उस सभासद की ओर कटाक्ष भरी-दृष्टि से देखा।

उसे ऐसा करते महाराज कृष्ण चन्द्र राय ने देख लिया और वे भाँप गए कि सभा में इस समय जो विमर्श हो रहा है उसके केन्द्र में उनका वह सभासद है जो अब तक मौन बैठा है- निर्लिप्त और निस्पन्द-सा, मानो इन बातों में कोई सार ही न हो! महाराज अपने इस सभासद की योग्यता के कायल थे। वे जानते थे कि अध्ययन और योग्यता की उसमें कोई कमी नहीं है। उन्हें अपने इस सभासद का मौन खल रहा था। वे चाहते थे कि वह बोले और व्यक्ति के बाह्य आवरण और आन्तरिक गुणों पर अपने विचार व्यक्त करे। मगर वह सभासद था कि किसी भी कटाक्ष पर ध्यान नहीं दे रहा था और न किसी के तर्क पर अपनी कोई प्रतिक्रिया ही प्रकट होने दे रहा था।

महाराज से रहा नहीं गया। उन्होंने अपने उस सभासद की ओर देखा और उसे टोका, तुम मौन क्यों हो? तुम भी अपने विचार व्यक्त करो। सभा में इतनी देर से चर्चा का दौर चल रहा है- तुम भी तो बताओ कि वस्त्रा तो केवल तन ढँकने के लिए अपेक्षित है, फिर क्यों कुछ लोग बाह्य सज्जा पर अनाप-शनाप व्यय करते हैं? असली सौन्दर्य तो मन का सौन्दर्य है, फिर क्यों वस्त्रा – आभूषण – अलंकरण पर इतना ध्यान दिया जाता है?”

उस सभासद ने अपने आसन से उठकर महाराज के सामने हाथ जोड़ लिये। यह सभासद कोई और नहीं, गुंटूर जिले के गलीपाडु ग्राम से विजयनगर आया कृष्ण स्वामी तेनाली राम मुदलियार था जिसे हाल में ही महाराज ने अपना सभासद बनाया था।

महाराज को अभिवादन करने के बाद तेनाली राम ने कहा, “महाराज, मुझे क्षमा करें! मैं इस सभा में चल रहे विचार-विमर्श को गम्भीर नहीं मानता। मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हैं कि इन बातों का न तो कोई अर्थ है और न ही ये बातें किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकती हैं। मेरी इस धारणा के प्रति आम सहमति भी नहीं हो सकती क्योंकि प्रायः सभी सभासदों की राय है कि वस्त्रा का प्रयोजन मात्रा तन ढँकना होना चाहिए… जबकि मैं ऐसा नहीं मानता। सभा में अभी जो भी बातें हो रही हैं, उसका प्रयोजन, मुझे नहीं लगता कि किसी निष्कर्ष पर पहुँचना है। मुझे तो लगता है कि ये बातें केवल बातों के लिए हो रही हैं जिससे सभा का समय कट जाए। मुझे इस तरह की बातों में कोई रुचि नहीं है, महाराज! जिसके कारण मैं मौन हैं।”

महाराज को तेनाली राम से इस तरह के उत्तर की प्रत्याशा नहीं थी जिसके कारण वे बिस्मित हो गए मगर उन्हें लगा कि उसने जो कुछ भी कहा है वह सच है, फिर भी उनकी उत्सुकता बनी रही कि आखिर इस विषय में तैनाली राम स्वयं क्या सोचता है। इसलिए उन्होंने तेनाली राम से कहा, “नहीं, तेनाली राम, यूँ प्रश्न टालने से काम नहीं चलेगा। तुम्हें अपनी राय व्यक्त करनी ही चाहिए। इतने लोगों ने इस प्रसंग में सभा के समक्ष अपनी राय रखी और तुमसे सबकी यही अपेक्षा होनी चाहिए कि तुम भी अपनी सोच से सभा को अवगत कराओगे।”

“जो आज्ञा महाराज!” तेनाली राम ने विनम्रतापूर्वक कहा और एक भरपूर – दृष्टि सभासदों पर डाली।

सभा में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा-सा छा गया। फिर खुसुर-फुसुर की आवाजें उभरने लगीं। तेनाली राम सभा में अपने आसन के पास खड़ा था। माथे पर रेशमी साफा बाँधे आभिजात्य परिधान में सजे तेनाली राम को देखकर सभासदों की फुसफुसाहटें तेज हो रही थीं। उनमें से कुछ सभासद खीं-खीं करके हँस भी रहे थे।

महाराज ने भी सभासदों की फुसफुसाहटों और दबी-दबी-सी हँसी को सुना और वे समझ गए कि सभासद तेनाली राम के वस्त्रा आदि को लक्ष्य करके हँस रहे हैं।

“महाराज!” तेनाली राम ने गम्भीर स्वरों में कहना आरम्भ किया, “परिवेश और परिस्थिति के अनुकूल परिधान पहनना नीति अनुकूल है। समाज में उचित स्थान प्राप्त करने के लिए उचित परिधान का उपयोग करना व्यवहार शास्त्रा का प्रारम्भिक उपदेश है। व्यक्ति के आन्तरिक गुणों का ज्ञान तो तब होता है जब उसे बोलने का अवसर प्राप्त हो किन्तु वस्त्रा तो दूर से ही बतला देता है कि उसे धारण करने वाला व्यक्ति किस उचित आसन का अधिकारी है।”

“…तो तुम कहना चाहते हो कि व्यक्ति के आन्तरिक गुणों की अपेक्षा उसका बाह्य परिधान अधिक महत्त्वपूर्ण है?” महाराज ने प्रश्न किया और सभासद ही-ही करते हुए हँसने लगे।

हँसने वाले सभासद इस बात पर प्रसन्न थे कि महाराज कृष्णदेव राय के प्रश्न में तेनाली राम के विचारों से असह्मति के संकेत थे।

तेनाली राम उसी सहजता से बोल पड़ा, “नहीं, महाराज! मैं तो यह कह रहा हूँ कि परिधान के अभाव में व्यक्ति के आन्तरिक गुणों की पहचान नहीं हो पाती और व्यक्ति को उपेक्षित होना पड़ता है।”

महाराज ने विस्मय-भरी-दृष्टि से तेनाली राम को देखा। सभासदों ने शोर करते हुए तेनाली राम की टिप्पणी से असहमति जताई। महाराज ने थोड़ी देर तक चुप्पी साधे रखी फिर धीरे से पूछा, “तेनाली राम! सारे सभासद, लगता है, तुम्हारी राय से सहमत नहीं हैं। क्या अब भी तुम अपनी टिप्पणी पर द्रढ हो?”

“जी हाँ, महाराज! मैंने जो भी कहा, उसमें मेरा कुछ भी नहीं, यह आर्ष वचन है और शाश्वत है, चिरन्तन है। यह हर युग में ऐसा ही था, है और रहेगा।” तेनाली राम ने कहा।

“तुम इसे प्रमाणित कर सकते हो?” महाराज ने पूछा।

“उचित अवसर पर।” तेनाली राम ने उत्तर दिया।

उस दिन सभा उसी समय विसर्जित हो गई। सभासदों में एक विशेष प्रकार की खुशी थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि महाराज तेनाली राम के उत्तर से सहमत नहीं हैं। ये सभासद तेनाली राम के प्रति ईष्या का भाव रखते थे क्योंकि वह प्रायः बहुमूल्य परिधान पहनकर सभा में आया करता था। विद्वान तो वह था ही। सभा में उसकी टिप्पणियाँ सबसे भिन्न और सटीक हुआ करती थीं जिसकी प्रायः महाराज सराहना करते थे। यही कारण था कि सभासदों में तेनाली राम के प्रति ईष्या का भाव था।

इस घटना के कुछ दिन बाद विजयनगर में एक समारोह का आयोजन हो रहा था। महाराज कृष्णदेव राय के पिता के जन्मदिवस पर प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यह समारोह इस बार विशेष उल्लास के साथ मनाया जा रहा था क्योंकि यह वर्ष महाराज कृष्णदेव राय के पिता की शतवार्षिकी जन्मोत्सव का वर्ष था। महाराज स्वयं समारोह की तैयारियों पर – दृष्टि रख रहे थे। राजभवन को इस अवसर पर विशेष रूप से सजाया गया था। आमोद-प्रमोद के लिए विविध कार्यक्रम चल रहे थे। विजयनगर के सभ्रान्त परिवारों को महाराज ने भोजन का आमंत्रण दिया था। कुछ पड़ोसी राजाओं को भी राजनयिक सम्बन्ध-द्रढ करने के उद्देश्य से महाराज ने निमंत्रण भेजा था।

तेनाली राम सहित सभी सभासदों को महाराज कृष्णदेव राय ने स्वलिखित आमंत्राण-पत्र भेजकर जन्मोत्सव समारोह के बाद अपने साथ रात्रि का भोजन करने का न्योता दिया था। सभासदों को राजभवन के द्वार पर पुष्पमाला पहनाकर ससम्मान भोजन कक्ष तक पहुँचाने की विशेष व्यवस्था की गई थी। रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-धजी परिचारिकाएँ इधर-उधर मँडरा रही थीं। शाम ढल चुकी थी। शरद पूर्णिमा की चाँदनी का उजास फैला हुआ था। राजभवन की बगिया में लगीं रजनीगन्धा की भीनी-भीनी सुगन्ध से वातावरण मह-मह कर रहा था। तभी राजभवन के द्वार पर एक विचित्रा-सा शोर उभरने लगा। प्रहरी एक भिखमंगे को राजभवन के द्वार से धक्का देकर दूर भगाने में लगे थे और वह भिखमंगा व्यक्ति चीख-चीखकर बोल रहा था, “मुझे मत भगाओ। मुझे राजभवन के भोजन कक्ष तक पहुँचा दो। मैं भिखमंगा नहीं हैं। मैं महाराज का आमंत्रित अतिथि हैं। मुझे निरा-त मत करो। मैं पंडित हैं। काव्यशास्त्रा का ज्ञाता है। मेरे साथ उचित व्यवहार करो।”

शोर सुनकर महाराज स्वयं राजभवन से बाहर आए और उचटती-सी-दृष्टि उस व्यक्ति पर डाली तथा प्रहरियों से कहा, “इस आदमी को थोड़ा भोजन देकर यहाँ से दूर भगाओ। अतिथियों के आने का समय हो रहा है।”

शोर करनेवाले व्यक्ति ने महाराज की ओर देखा और मुस्कुराया। चाँदनी के उजास में महाराज को उसकी मुस्कान पहुंचानी-सी लगी। मगर महाराज आयोजन की हड़बड़ी में थे इसलिए उस व्यक्ति पर अधिक ध्यान नहीं दिया और राजभवन में चले गए। प्रहरी उस व्यक्ति को भगाते, उससे पहले ही वह व्यक्ति बिना कुछ बोले वहाँ से चला गया। थोड़ी ही देर में महाराज के आमंत्रित अतिथियों का आगमन होने लगा। एक से बढ़कर एक परिधान में सजे-धजे लोगों के आने का क्रम थोड़ी देर तक जारी रहा फिर थम सा गया। राजभवन के भोजन-कक्ष मंटे लोगों की सज-धज देखकर ऐसा लगता था मानो कुबेर के कक्ष में देवताओं की जमघट लगी हो!

महाराज स्वयं अतिथियों को आसन ग्रहण करने के लिए उनके लिए निर्धारित आसनों की ओर इंगित कर रहे थे। सभी आसन भर चुके थे, मात्रा तेनाली राम का आसन रिक्त था। महाराज बार-बार उस रिक्त आसन की ओर देखते और फिर प्रवेश द्वार की ओर उनकी-दृष्टि जाती। मन-ही-मन महाराज को तेनाली राम की अनुपस्थिति उत्तेजित कर रही थी। वे सोच रहे थे-कितना ढीठ है यह तेनाली राम! उसे यह ज्ञान है कि भोजन किसके सान्निध्य में करना है फिर भी वह निर्धारित समय पर नहीं आया। लेकिन मन में उठते आक्रोश को पी जाने के अलावा महाराज कर भी क्या सकते थे। वहाँ उपस्थित सभासदों को तेनाली राम की अनुपस्थिति से उसके विरुद्ध आग उगलने का अवसर मिल गया। वे आपस में तेनाली राम की अनुपस्थिति का मजाक उड़ाने लगे। कोई कहता- तेनाली राम अपनी पगड़ी की तहें सजाने में लगा होगा, तो कोई कहता- अरे भाई, तेनाली राम अपनी रेशमी धोती का फेंटा कसने में लगा होगा। फेंटा कस ले, तो आएगा… और इस तरह की बातें खत्म भी नहीं हो पातीं कि सभी ही-ही, ही-ही करने लग जाते।

अन्ततः तेनाली राम ने भोजन-कक्ष में प्रवेश किया। सचमुच, बहुत आकर्षक परिधान में सजा-धजा था तेनाली राम। महाराज ने उसकी ओर आग्नेयदृष्टि से देखा मगर कुछ कहा नहीं। -ष्टिमात्रा से ही उन्होंने तेनाली राम के प्रति अपना आक्रोश अभिव्यक्त कर दिया। बडे और सामथ्र्यवान लोग परिस्थिति विशेष में अपनी आंगिक भंगिमाओं से ही अपने मनोभावांचे को व्यक्त करते हैं। महाराज के मनोभावों को समझते हुए तेनाली राम ने महाराज के सामने हाथ जोड़ लिये और कहा, “महाराज! क्षमा करें। यहाँ समय पर उपस्थित नहीं हो पाया।”

महाराज आक्रोश में तो थे ही, तेनाली राम का अनुनय सुनकर उनकी उत्तेजना शान्त न रह सकी और व्यंग्योक्ति में प्रकट हुई, “हाँ, देख रहा हूँ, आपका कुर्ता बहुत चमक रहा है।”

महाराज की व्यंग्योक्ति सुनकर सारे अतिथि सभासद ठठाकर हँस पड़े। तेनाली राम ने इसी ठहाके के बीच अपना आसन ग्रहण किया। तेनाली राम की ओर महाराज ने देखा तो उसे अतिशय गम्भीर पाया। महाराज सोचने लगे कि तेनाली राम के प्रति उन्हें व्यंग्योक्तियों का व्यवहार नहीं करना चाहिए था। क्या पता, किस परिस्थिति में था वह! बिना जाने-समझे इस तरह का व्यवहार किसी राजा के लिए कदापि शोभनीय नहीं है। यह तो उच्छृंखलता है। हो सकता है कि तेनाली राम किसी संकट में पड़ गया हो जिसके कारण वह समय पर नहीं पहुँच पाया।

अभी महाराज ऐसा सोच ही रहे थे कि उनकी आँखों में विस्मय के भाव गहरा गए। उन्होंने देखा कि भोजन स्थल पर तैनाली राम केवल धोती पहने, नंगे बदन बैठा हुआ है और उसकी पगड़ी, कुर्ता, फतुहा, गम्छा, अंगवस्त्राम् भोजन की थाली के चतुर्दिक रखे हुए हैं। सभासद तेनाली राम की ओर देख-देखकर मुस्कुरा रहे हैं और आँखों ही आँखांटे में बतिया रहे हैं कि तेनाली राम का सिर फिर गया है।

भोजन परोसा जा चुका था। तेनाली राम की ओर सारे सभासद देख रहे थे। तेनाली राम ने भोजन का एक निवाला उठाया और कुर्ते पर रखते हुए कहा, “कुर्ता! तू खा।” फिर पगड़ी पर एक निवाला रखा और कहा, “पगड़ी! तू खा।” अंगवस्त्राम् पर एक निवाला रखा और कहा, “अंगवस्त्राम् ! तू खा।”

तेनाली राम का यह कृत्य महाराज की समझ में नहीं आया तब उन्होंने तेनाली राम को घूरते हुए कहा, “तेनाली राम! तुम्हें हो क्या गया है? भोजन के साथ तुम यह क्या कर रहे हो? अपने वस्त्रा तुमने क्यों उतार दिये?”

एक सभासद ने कहा, “तेनाली राम का सिर फिर गया है।”

दूसरे उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे और कहने लगे, “कहीं कुर्ता भी भोजन करता है। यह बावलापन नहीं तो और क्या है?”

तेनाली राम उनकी बातों को अनसुनी करते हुए अपने काम में लगा रहा-कुर्ता! तू खा। अँगरखा! तू खा। अंगवस्त्राम् ! तू खा। पगड़ी! तू खा।”

महाराज से रहा नहीं गया। उन्होंने टोका, “बावले मत बनो तेनाली राम। भोजन करो। तुम्हें यहाँ भोजन के लिए बुलाया गया है।”

तेनाली राम ने महाराज की ओर देखा फिर अन्य अतिथियों की ओर, फिर कहा, “महाराज! जिसे राजभवन में भोजन के लिए प्रवेश मिला, उसी को तो खिला रहा हूँ!”

“भोजन के लिए तो तुम्हें आमंत्राण दिया गया था, इसलिए भोजन के लिए प्रवेश तुम्हें ही मिला है। तुम भोजन करो ! एक तो विलम्ब से आए हो, अब और विलम्ब न करो।” महाराज ने कहा।

“मैं विलम्ब से नहीं आया महाराज! मैं तो यहाँ सबसे पहले आया था। विलम्ब से तो यह पगड़ी, कुर्ता आदि परिधान पधारे हैं!”

“उलझी बातें मत करो, तेनाली राम! कहो, जो कुछ भी कहना है मगर साफ-साफ!” महाराज ने कहा।

तेनाली राम ने कहना शुरू किया, “महाराज! मैं तो शाम ढलते ही यहाँ पहुँच गया था। मैंने ये परिधान नहीं पहने थे। साधारण कपड़ों में देखकर मुझे प्रहरियों ने द्वार पर ही रोक लिया। मैं उन्हें समझाता रहा कि मैं पंडित हूँ, मैं काव्यशास्त्रती हूँ, मैं यहाँ का आदरणीय आमंत्रित अतिथि हैं मगर उन्होंने मेरी एक न सुनी। शोर सुनकर आप स्वयं वहाँ आए मगर मेरी पुकार सुनने की आवश्यकता आपने नहीं समझी और मुझे भोजन देकर द्वार से ही भगा देने का निर्देश देकर लौट आए…।”

महाराज को सन्ध्या की घटना की स्मृति हो आई।

तेनाली राम ने अपनी बात जारी रखी, “… और महाराज, मुझे यहाँ आना ही था इसलिए मैं अपने घर गया और ये वस्त्रा धारण किए, फिर मैं यहाँ आया।”

महाराज कृष्णदेव राय अचरज में डूबे तेनाली राम की बातें सुन रहे थे। तभी एक सभासद ने कहा, “तेनाली राम! आप जैसे बुद्धिमान व्यक्ति से ऐसी आशा नहीं की जा सकती कि वह ऐसी भूल करेगा। आप राजभवन में आमंत्रित थे। राजभवन की अपनी एक मर्यादा है। राजभवन में यदि आप फकीरों जैसे वस्त्र में आएँगे तब भला कौन प्रहरी आपको राजा का अतिथि स्वीकार करेगा? आपके साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए दोषी आप हैं।”

तेनाली राम ने मुस्कुराते हुए कहा, “जी हाँ, आप ठीक कह रहे हैं। परिवेश और परिस्थिति का ध्यान रखते हुए परिधान का उपयोग अवश्य करना चाहिए। यही तो मैंने राजसभा में कुछ दिन पहले कहा था- स्मरण करें महाराज!” तेनाली राम ने महाराज से सीधा संवाद किया। “आपको अवश्य स्मरण होगा कि तब परिधान के स्थान पर व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को महत्त्वपूर्ण बताते हुए मुझे अपने विचारों में संशोधन के लिए प्रेरित किया गया था…।”

महाराज ने तेनाली राम को गले से लगाते हुए कहा, “तुम ठीक कह रहे थे, तेनाली राम… उस दिन भी!”

Also Read This:

पाँच गधोंवाला सौदागर! Tenali Rama Aur Krishnadevaraya Ki Kahani

खुलीं आँखें महाराज की! Tenali Rama Short Moral Story in Hindi

error: Content is protected !!