“पृथ्वी का कण-कण हर क्षण एक नई रचना करने में निमग्न है। वायु सतत सन-सन-सन कर सृष्टि में मस्ती का संचार करती रहती है। सूर्य उदित होकर संसार को उजास से भरता है और गतिशील होने के लिए ऊष्मा प्रदान करता है। नदियाँ कल-कल, छल-छल के निनाद के साथ बहती हुई जिधर से निकलती हैं उधर धरती में बीज अंकुरित करने की शक्ति भरती जाती हैं।… इनमें से कोई अपने कार्य का न तो मूल्य माँगता है और न कभी किसी से किसी तरह की बाधा या अड़चनें आने की बात कहकर थोड़ा विश्राम करने की इच्छा व्यक्त करता है। कार्यों की निरन्तरता ही जीवन की सफलता की कुंजी है।”
महाराज कृष्णदेव राय अपने सभासदों के साथ बैठे हुए थे। दरबार लगा हुआ था। तेनाली राम अपने आसन के पास खड़ा होकर बोल रहा था। उसकी बातें समाप्त होते ही कृष्णदेव राय ने अपने आसन से उठकर तालियाँ बजाईं और तेनाली राम को गले से लगा लिया।
उस समय दरबार में ‘जीवन में सफल होने के उपाय’ विषय पर सम्भाषण हो रहा था। कई दरबारी आए और बोले। बड़ी-बड़ी शास्त्रीय बातें होती रहीं। अन्तिम बक्ता के रूप में तेनाली राम ने बहुत कम शब्दों में अपनी बातें दरबार में रखीं और महाराज ने उसे विजेता घोषित कर दिया।
विजयनगर के दरबार में इससे पहले भी ऐसे कई अवसर आ चुके थे जब तेनाली राम की बुद्धि की सराहना महाराज ने मुक्त कंठ से की थी। दरबारियों मैं तेनाली राम की मेधा की चर्चा होने लगी थी मगर कुछ सभासदों का विचार था कि तेनाली राम में कोई पांडित्य नहीं है बल्कि वह एक सामान्य-सा इंसान है इसलिए वे उसकी प्रशंसा करने के स्थान पर अवसर विशेष पर आलोचना करने लगते थे। मीन-मेख निकालते हुए तेनाली राम की विशेषताओं को स्वीकार करने के स्थान पर उसमें दोष निकालते। स्थिति ऐसी बनती जा रही थी कि विजयनगर के महाराज की सभा में तेनाली राम से ईष्या करने वाले सभासदों का एक वर्ग तैयार होता जा रहा था जिसका एकमात्र काम यह था कि जब भी अवसर मिले, महाराज के सामने तेनाली राम की शिकायत की जाए।
अपने विरुद्ध ईष्यावश हो रहे इस तरह के कार्यों का ज्ञान तेनाली राम को था किन्तु वह इसे सहज मानवीय प्रवृत्ति के रूप में लेता था तथा किसी भी सभासद के विरोधी आचरण पर उत्तेजित नहीं होता था।
एक बार विजयनगर के महामंत्री के घर पर पौत्रा जन्मने के अवसर पर एक भोज का आयोजन हुआ। वर्षों की प्रतीक्षा और मन्नतों के बाद अपने पौत्र के जन्म से महामंत्री की खुशियों का ठिकाना नहीं था। उन्होंने भोज का इतना भव्य आयोजन किया था कि उसकी तुलना विजयनगर में हुए किसी भी अन्य भोज से नहीं की जा सकती। रसोई तैयार करने के लिए विभिन्न पड़ोसी राज्यों से विशिष्ठ रसोइए बुलाए गए थे। उनके बनाए व्यंजनों की सुगन्ध से महामंत्री के आवास से दूर-दूर तक का वातावरण महमहा उठा। इस भोज में महामंत्री ने महाराज कृष्णदेव राय और विजयनगर के सभी सभासदों को भी आमंत्रित किया था।
भोजन करने के बाद महाराज ने महामंत्री से पौत्र का मुँह दिखाने को कहा। महाराज के साथ सभी सभासद नवजात शिशु को देखने के लिए महल के अन्तः कक्ष में गए।
बच्चा एक सुन्दर से खटोले पर रखा गया था। छः दिनों की वय का शिशु प्रायः सोया रहता है। महाराज जब शिशु के पालने के पास गए तब उन्होंने महामंत्री से कहा, “महामंत्री जी! इस बात का ध्यान रखा जाए कि बालक की नींद में कोई व्यवधान न पड़े। नवजात शिशु जितनी चैन की नींद सोएगा, उसका शारीरिक एवं मानसिक विकास उतने ही अच्छे ढंग से होगा।”
पास खड़े एक अन्य सभासद ने महाराज की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “जी हाँ, महामंत्री जी! ऐसे भी शिशु की नींद में दो ही कारणों से व्यवधान उत्पन्न होता है- पहला यह कि शिशु को भूख लगती है और दूसरा यह कि वह बिस्तर गीला करता है। यदि आपकी बहू सतर्क रहे, शिशु को समय पर दूध पिलाती रहे और बिस्तर गीला होते ही उसके अधोवस्त्रा बदल दे तो शिशु की नींद में कोई अड़चन नहीं आएगी।”
महामंत्री इन लोगों की बातें मुस्कुराते हुए सुनते रहे।
इसी बीच वहाँ तेनाली राम पहुँचा और पालने पर झुककर बच्चे को देखने लगा। पालने में सोया शिशु कुनमुनाया फिर जगकर अपने हाथ-पैर उछालने लगा। उसे देखकर तेनाली राम ने महामंत्री से कहा, “यह बालक तेजस्वी है और आगे चलकर यह अपनी तेजस्विता से नए कीर्तिमान स्थापित करेगा। इसकी कीर्ति की गूँज दूर-दूर तक फैलेगी।”
महामंत्री ने एक मुग्ध-ष्टि उस शिशु पर डाली और फिर महाराज एवं सभासदों को विदा करने के लिए उनके साथ द्वार तक आए।
महाराज और सभासद जब राजभवन की ओर चलने को उद्यत हुए तभी एक सभासद ने व्यंग्यात्मक स्वर में महाराज से कहा, “देखा महाराज, तेनाली राम किस तरह महामंत्री को प्रभावित कर रहा था! आप ही सोचिए महाराज कि भला एक नवजात को देखकर यह कैसे कहा जा सकता है कि वह भविष्य में क्या करेगा? तेनाली राम ने तो महामंत्री जी के पौत्रा को ऐसा तेजस्वी बता दिया जिसकी कीर्ति की गँज दूर-दूर तक सुनी जाएगी!”
महाराज के कान खड़े हो गए इस सभासद की बात सुनकर। महाराज भी सोचने लगे कि जरूर तेनाली राम ने महामंत्री को खुश करने के लिए यह बात कही है… तो क्या तेनाली राम महामंत्री के साथ साँठ-गाँठ कर किसी कारनामे को अंजाम देने के चक्कर में है? क्या तेनाली राम कुछ ऐसा कर सकता है जिससे विजयनगर की सत्ता पर आँच आए…? महाराज के मन में तरह-तरह की आशंकाएँ पैदा होने लगीं। जरा सी बात पर महाराज के मन में उत्पन्न हुई इस आशंका ने महाराज को बेचैन कर दिया। ठीक ही कहा गया है कि सत्ता का स्वभाव सन्देह करना भी है। महाराज ने मन-ही-मन तय कर लिया कि जब तक वे तेनाली राम की आन्तरिक भावनाओं को समझ नहीं लेते तब तक चैन से नहीं बैठेंगे और न ही तेनाली राम पर विश्वास ही करेंगे। प्रकट रूप से महाराज ने अपना व्यवहार पूर्ववत् रखा।
इस घटना के कुछ दिन व्यतीत हो जाने के बाद एक सन्ध्या महाराज कृष्णदेव राय अपनी फुलवारी में तेनाली राम के साथ टहल रहे थे। टहलते-टहलते महाराज ने अचानक तेनाली राम से पूछा, “तेनाली राम! उस दिन तुमने किस आधार पर महामंत्री से कहा कि उनका पौत्रा बहुत तेजस्वी होगा?”
तेनाली राम ने हँसकर कहा, “अरे वो बात!… बस, ऐसे ही महाराज! मेरी दृष्टि बालक के गतिशील पैरों पर पड़ी। उसके पैरों की सशक्त लययुक्त गतिशीलता से मुझे लड़के की सुगढ़ मानसिक संरचना का अनुमान हुआ और बरबस ही वह बात मेरे मुँह से निकल गई।”
महाराज मौन हो गए लेकिन उनका हृदय अभी भी आशंकित था। थोड़ी देर के बाद उन्होंने तेनाली राम को विदा किया और स्वयं महल में चले गए।
इस घटना के भी कई दिन गुजर गए। तेनाली राम के मन में कोई बात थी ही नहीं। वह अपनी सहज, स्वाभाविक शैली में सभा में आता। सभा की कार्रवाई में भाग लेता और लौट जाता।
एक दिन महाराज कृष्णदेव राय की सभा में एक व्यक्ति आया और महाराज के सामने एक बक्सा रखकर बोला, “महाराज! मैं चन्द्रावती नगर का एक व्यापारी हैं। मेरा नाम सोमदत्त है। मुझे व्यापार में घाटा लगा है। है। मेरा सारा धन समाप्त हो चुका है। बस, मेरे पास स्वर्ण-निर्मित दो गोले शेष हैं।” इतना कहकर उस व्यापारी ने वह वक्सा खोल दिया।
सभासदों की आँखें यह देखकर विस्मय से फैल गईं कि बक्से में गेंद की आकृति के दो स्वर्ण-पिंड रखे हुए हैं।
उस व्यापारी ने अपनी बात जारी रखी, “महाराज! इन दो स्वर्ण-पिंडों में से एक स्वर्ण-पिंड ठोस है और दूसरा खोखला है। आपके दरबार में मैं इन स्वर्णपिंडों को एक स्थान पर लटका दूँगा, जहाँ इसे आपके सभी सभासद देख सकें। यदि आपके दरबार का कोई सभासद बिना इन पिंडों के निकट आए, बिना इन पिंडों को छुए यह बता देगा कि इनमें से कौन-सा पिंड ठोस है अथवा कौन-सा पिंड खोखला है तो मैं उसे ये दोनों पिंड मुफ्त में देकर चला जाऊगा और यदि यहाँ उपस्थित कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकेगा तब आपको मुझे इन दोनों स्वर्ण-पिंडों के वजन के बराबर स्वर्ण दान करना होगा।”
महाराज ने इस विचित्र प्रस्ताव को सुनने के बाद सभासदों की ओर उनका मन्तव्य जानने के उद्देश्य से देखा।
तभी एक सभासद ने अपने आसन से उठकर कहा, “महाराज! व्यापारी सोमदत्त का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने में कोई बुराई नहीं है। आपको स्मरण होगा कि हमारे बीच ऐसे विद्वान भी हैं जो एक शिशु को देखकर अभी से उसकी कीर्ति पताका विश्व में लहराने का दावा कर सकते हैं… यह तो साधारण से स्वर्ण-पिंडों की पहेली है। इसे भी यहाँ आसानी से हल करने की योग्यता उनमें अवश्य होगी।”
यह वही सभासद था जिसने तेनाली राम के विरुद्ध महाराज के मन में आशंका के बीज बोए थे।
सभाकक्ष में बैठा तेनाली राम उस सभासद की बात सुनकर चैकन्ना हो गया। वह समझ गया कि महाराज ने कुछ दिन पूर्व उससे महामंत्री के पौत्र के प्रति की गई भविष्यवाणी के बारे में क्यों पूछा था। जरूर इसी ने महाराज के कान भरे थे और आज भी यह महाराज को मेरे विरुद्ध भड़का रहा है। तेनाली राम ने तत्क्षण ही अपने मन में संकल्प ले लिया कि चाहे जो हो, वह इस चुनौती को स्वीकार करेगा।
महाराज को भी तेनाली राम की बातें याद हो आईं। उन्होंने इसे प्रकट नहीं होने दिया और व्यापारी से कहा, “व्यापारी सोमदत्त, आप आज हमारी अतिथिशाला में विश्राम करें। कल जब सभा लगेगी तब आपके प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा।”
व्यापारी को महाराज ने अतिथिशाला में भेज दिया। सभा विसर्जित होने के बाद महाराज ने तेनाली राम को बुलाकर कहा, “तेनाली राम! तुम्हें अब इस व्यापारी की शर्त के अनुसार उसकी पहेली को हल करना होगा। ऐसा नहीं होने पर राज्य की बड़ी बदनामी होगी। इसलिए आज रात भर सोच-विचार लो। कल सभा की कार्रवाई शुरू होते ही तुम्हें स्वर्ण-पिंडों की पहेली हल करनी होगी।”
“जैसी आज्ञा महाराज!” तेनाली राम ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और अपने घर लौट आया। उसे स्वर्ण-पिंडों को लेकर कोई तनाव नहीं था।
दूसरी ओर सभा में तेनाली राम से ईष्या रखने वाले सभासदों में इस बात की खूब चर्चा हो रही थी कि तेनाली राम आज फँस ही गया। स्वर्ण-पिंडों की पहेली हल करने के लिए अब यह तय है कि महाराज उससे ही कहेंगे। यह पहेली हल होने वाली होती तो वह व्यापारी इतना सोना दाँव पर नहीं लगाता! अब आएगा आनन्द! तेनाली राम की विद्वत्ता की कलई इस बार खुलनी तय है। बड़ा ज्ञानी बना फिरता है…।”
दूसरे दिन नियत समय पर विजयनगर के राजप्रासाद में सभासद एकत्रित हुए। व्यापारी सोमदत्त भी आया। महाराज भी पधारे। तेनाली राम का कहीं पता न था। महाराज मन-ही-मन बेचैन हो उठे। आशंकित और संशययुक्त मन से महाराज विचार कर रहे थे कि कहीं पहेली हल न होने के भय से तेनाली राम आया ही नहीं तो वे क्या करेंगे? अभी ऊहापोह के बादल छँटे नहीं थे। सभासदों में भी बेचैनी थी।
व्यापारी सोमदत्त ने महाराज से पूछा, “महाराज! ‘स्वर्ण-पिंडों की समस्या का हल?’
महाराज ने उत्तर दिया, “तनिक प्रतीक्षा करो।”
व्यापारी अपने आसन पर बैठ गया। सभाकक्ष में फुसफुसाहूटें तेज हो गईं। महाराज असमंजस में थे और सिंहासन पर बैठे बार-बार पहलू बदल रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि सभा में प्रवेश कर रहे तेनाली राम पर पड़ गई और उन्होंने राहत की साँस ली।
जब तेनाली राम अपनी जगह पर बैठ गया तो महाराज ने व्यापारी सोमदत्त से कहा, “सोमदत्त! अब तुम अपनी समस्या सभासदों के बीच रखो।”
सोमदत्त ने पुनः दोनों स्वर्ण-पिंडों के बारे में अपनी बातें सभा में दुहरा दीं।
महाराज ने सभा में घोषणा की, “इस समस्या के समाधान के लिए यदि कोई सभासद स्वयं आगे आना चाहता हो तो आए अन्यथा इस समस्या का समाधान तेजस्वी तेनाली राम करेंगे।” महाराज ने तेनाली राम के नाम के साथ ‘तेजस्वी’ विशेषण जान-बूझकर जोड़ा था।
एक भी सभासद समस्या के समाधान के लिए नहीं आया तब महाराज ने तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम! आगे आओ और व्यापारी सोमदत्त द्वारा बताई गई समस्या को हल करो!”
“महाराज! व्यापारी सोमदत्त से कहें कि वे स्वर्ण-पिंडों को अपनी इच्छा के अनुसार जहाँ चाहें लटका दें। मैं उनकी समस्या का समाधान करने के लिए प्रस्तुत हैं।”
महाराज ने सोमदत्त को स्वर्ण-पिंडों को कहीं लटकाने का निर्देश दिया।
व्यापारी सोमदत्त ने उन स्वर्ण-पिंडों को महाराज और सभासदों के आसनों के मध्य के खुले स्थान में, दीवार पर दो कीलें ठोककर अलगनी जैसी संरचना एक रस्सी के सहारे तैयार कर ली तथा उस अलगनी में उसने दोनों स्वर्ण-पिंडों (जिनके सिरों पर सोने का ही चेन लगा था) को लटका दिया और तेनाली राम की ओर देखकर कहा, “अब आपकी बारी है, तेनाली राम जी।”
तेनाली राम ने अपने आसन से बिना हिले-डुले कहा, “महाराज! एक बार फिर सभासदों और व्यापारी से पूछ लें कि कोई भी सभासद चाहे तो व्यापारी के प्रश्न का उत्तर दे दे। व्यापारी चाहे तो अपना प्रस्ताव वापस ले ले। मैं सबको पुनर्विचार का एक अवसर देना चाहता हूँ।”
तेनाली राम की बातें सुनकर सभासदों को लगा कि तेनाली राम स्वर्ण-पिंडों की पहेली हल करने में असमर्थ है और वह किसी तरह अपना पिंड छुड़ाना चाहता है। सभा में फुसफुसाहटें उभरीं और शान्त हो गईं।
व्यापारी ने घोषणा की, “वह अपने प्रस्ताव की वापसी नहीं चाहता है।”
अन्ततः तेनाली राम ने अपने आसन पर बैठे-बैठे ही उँचे स्वरों में कहा, “महाराज! आपकी बाईं भुजा की ओर टेंगा स्वर्ण-पिंड ठोस है और दाईं भुजा की ओर टैगा स्वर्ण-पिंड खोखला है।”
तेनाली राम का स्वर इतना तेज था कि उसे सभी सभासदों ने सुना।
व्यापारी सोमदत्त के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। फिर भी उसने तेनाली राम से कहा, “यह दाएँ-बाएँ कहने से समस्या का सही हल नहीं हो सकता। आप ठोस पिंड के पास पहुँचकर बताएँ कि यह ठोस है।”
तेनाली राम तत्परता से अपने आसन से उठा और महाराज के बाईं तरफ के पिंड के पास पहुँचकर कहा, “महाराज! यह स्वर्ण-पिंड ठोस है।”
“क्यों, व्यापारी सोमदत्त। तेनाली राम का हल सही है?” महाराज कृष्णदेव राय ने पूछा।
“जी हाँ, महाराज!” ऐसा कहकर व्यापारी ने दोनों स्वर्ण-पिंड उतारे और उसे मंजूषा में रखकर महाराज को सौंप दिया, “महाराज! अब इन स्वर्ण-पिंडों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है।”
महाराज ने स्वर्ण-पिंडों वाली मंजूषा थामते हुए कहा, “हाँ, अब इन स्वर्ण-पिंडों पर तेनाली राम का अधिकार है।”
व्यापारी सोमदत्त भारी कदमों से महाराज की सभा से चला गया और महाराज ने तेनाली राम को स्वर्ण-पिंडों वाली मंजूषा सौंपते हुए कहा, “यह तुम्हारी मेधा का पुरस्कार है। इसका उपयोग अपनी और स्वजन-परिजनों की भलाई के लिए करना।”
सभा विसर्जित होने के पश्चात् महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से पूछा, “तेनाली राम! तुमने पिंडों का रहस्य कैसे सुलझा लिया? दोनों पिंड बिलकुल एक जैसे थे, फिर उन्हें छुए बिना तुमने कैसे जान लिया कि इनमें से ठोस कौन है और कौन-सा पिंड खोखला है?”
तेनाली राम ने हँसते हुए कहा, “इसमें कोई रहस्य सुलझाने जैसी बात नहीं है महाराज ! खोखला पिंड हल्का होता है और ठोस पिंड भारी। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हर वस्तु को अपनी ओर खींचती है। अलगनी पर चेन से लटकाए गए दोनों पिंडों को मैंने गम्भीरता से देखा। ठोस पिंड को लटकानेवाले चेन में तनाव अधिक था तथा रस्सी के उस भाग में खिंचाव भी अधिक था जिस भाग में ठोस स्वर्ण-पिंड लटकाया गया था। इस खिचाव के कारण ठोस पिंड थोड़ा नीचे आ गया था। खोखला पिंड थोड़ा ऊपर था और उसे लटकाने वाली जंजीर में वैसा तनाव भी नहीं था जैसा कि ठोस पिंड लटकाने वाली जंजीर में था।”
उस दिन महाराज ने फिर तेनाली राम को अपने आलिंगन में ले लिया और बोले, “तेनाली राम! तुम सचमुच बुद्धिमान हो।”
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