मंदिरों में प्रतिदिन प्रातःकाल एवं सायंकाल आरती के पश्चात् भगवान् का चरणामृत दिया जाता है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखने का विधान है, क्योंकि आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है। इसका जल मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है। इसमें तुलसीदल डालने के पीछे मान्यता यह है कि तुलसी का पत्ता महौषधि है। इसमें न केवल रोगनाशक गुण होते हैं, बल्कि कीटाणुनाशक शक्ति भी होती है।
जिन्हें भगवान् में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास होता है, उनके लिए निश्चय ही चरण-जल का सेवन अमृत के समान गुणकारी सिद्ध होता है। संत तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में लिखा है-

पद पखारि जलपान करि, आपु सहित परिवार।
पितर पार करि प्रभुर्हि पुनि, मुदित गयउ लै पार॥
– अयोध्याकांड दोहा 101
अर्थात् भगवान् श्रीराम के चरण धोकर तथा उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार करके केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया, बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
रणवीर भक्तिरत्नाकर में चरणामृत की महत्ता यूं बताई गई है-
पापव्याधिविनाशार्थ विष्णुपादोदकौषधम् ।
तुलसीदलसम्मिश्र जलं सर्षपमात्रकम् ॥
– रणवीर भक्तिरत्नाकर बृहन्ना
अर्थात् पाप और व्याधि (रोग) दूर करने के लिए भगवान् का चरणामृत एक औषधि तुल्य है। यदि उसमें तुलसीपत्र भी मिला दिया जाए, तो उसके गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।
चरणामृत का सेवन करते समय निम्न श्लोक पढ़ने का विधान है-
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम् ।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥
– रणवीर भक्तिरत्नाकर
अर्थात् चरणामृत अकाल मृत्यु को दूर रखता है। सभी प्रकार की बीमारियों का नाश करता है। इसके सेवन से पुनर्जन्म नहीं होता और भवबंधन कट जाता है। इस प्रकार देखें, तो भगवान् का चरणामृत भक्तों के सभी प्रकार के आर्तों (दुख और रोग) तथा सब पापों का नाश करता है। हमें चरणामृत पान करने से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ होते हैं। इसीलिए हम इसे ग्रहण कर अपने को धन्य समझते हैं।
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