बहुभाषाविद् और तेनाली राम! Tenali Ramakrishna Story in Hindi

Bahubhashavid aur Tenali Ramakrishna Story in Hindi

महाराज कृष्णदेव राय विद्वत्ता-प्रेमी थे। स्वयं स्वाध्याय करते और स्वाध्यायियों की सराहना भी करते। उनके दरबार में प्रायः विभिन्न राज्यों के विद्वान आते और अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन कर उनसे उपहार आदि प्राप्त करते। विद्वानों को समा-त करते समय महाराज को आन्तरिक प्रसन्नता होती।

एक बार महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में एक ऐसा भाषाविद् पहुँचा जो भाषा के विकास पर विशेष अध्ययन कर चुका था तथा स्वयं छः-सात भाषाएँ मातृभाषा की तरह बोल सकता था।

उसने महाराज के सम्मुख उपस्थित होकर कहा, “महाराज! मैं इस देश में बोली जाने वाली प्रायः समस्त बौलियों और भाषाओं का ज्ञाता है और अनेक भाषाओं पर मेरा मातृभाषा की तरह अधिकार है। आपको मेरी बातों पर विश्वास हो जाए, इसके लिए आपके सामने मैं यही बातें विभिन्न भाषाओं में दुहराता है। पहले तमिल में!” और वह फरटिदार तमिल में वही बातें बोलने लगा।

सभी सभासद चमत्कृत से उसे देखने लगे।

“अब तेलगू”…. और तेलगू में भी वह बड़ी सहजता से बोल गया वही बातें!

सभासदों को उसके इस भाषा-ज्ञान पर घोर विस्मय हुआ। महाराज भी उस विद्वान के भाषा-ज्ञान पर चकित थे और वह बोले जा रहा था।

कभी कन्नड़, कभी उडिया, कभी मराठी तो कभी गुजराती। महाराज ने स्वीकार कर लिया कि इस विद्वान के पास अद्भुत सामथ्र्य है। सभासद उसकी सराहना के लिए तालियाँ बजाने लगे।

इसके बाद उस विद्वान ने महाराज से कहा, “महाराज! अब आपके सभासद इस देश के किसी भी क्षेत्र में बोली जानेवाली किसी भी बोली में, किसी भी भाषा में बात कर सकते हैं। मैं उनकी बातों का जवाब उनके द्वारा बोली गई भाषा में ही देगा।”

महाराज ने सभासदों को विद्वान से बातें करने का संकेत कर दिया। इसके बाद तो सभा में रह-रहकर विभिन्न बोलियों में उस विद्वान से बातें होती रहीं और वह सभासदों द्वारा बोली जानेवाली भाषा में ही जवाब देता। महाराज, तेनाली राम और सभासद सभी उस विद्वान के इस गुण की सराहना कर रहे थे। सभा भवन में एक भिन्न किस्म का माहौल था।

इसी सराहना और उल्लास के स्वरों के बीच उस विद्वान ने सभासदों की ओर देखते हुए महाराज से कहा, “महाराज! अब मेरी एक चुनौती है- सभा भवन में उपस्थित किसी भी सभासद को या सभी सभासदों को कि इनमें से कोई भी यदि मेरी मातृभाषा बता दे तब मैं उसको एक भी स्वर्णमुद्राएँ दें दूँगा। यदि कोई भी ऐसा न कर सके तब आप मुझे एक भी स्वर्णमुद्राएँ देकर विदा करेंगे!”

सभासदों के बीच सन्नाटा छा गया।

महाराज भी मुश्किल में थे। वे भी नहीं समझ पाए कि यह विद्वान आखिर कहाँ का रहनेवाला हो सकता है और कौन-सी भाषा इसकी मातृभाषा हो सकती है।

उन्होंने तेनाली राम की ओर देखा।

तेनाली राम भी शान्त था। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था।

उस विद्वान ने सभी के ऊपर भरपूर-दृष्टि डाली और बोला, “महाराज! मैं सभी की सुविधा के लिए बारी-बारी से विभिन्न भाषाओं में बोल रहा हूँ ताकि यह अनुमान लगाना आसान हो जाए कि मेरी मूल मातृभाषा कौन-सी है।”

उस विद्वान के बोल लेने के बाद सभा भवन में ऐसा सन्नाटा छा गया कि मानो वहाँ कोई हो ही नहीं।

महाराज ने फिर तेनाली राम की ओर देखा।

तेनाली राम ने महाराज से कहा, “महाराज! मैं इस विद्वान की मातृभाषा बता दूँगा मगर इन्हें एक दिन के लिए,… नहीं! एक रात के लिए मेरा अतिथि बनकर रहना होगा।”

महाराज ने कहा, “क्यों, तेनाली राम, अभी ही क्यों नहीं बताते?”

“बस, यूँ ही महाराज! मेरी इच्छा है कि माँ सरस्वती के इस वरद-पुत्रा की सेवा का अवसर मुझे प्राप्त हो।” तेनाली राम ने कहा।

विद्वान व्यक्ति सम्मान का भूखा होता है। सम्मान मिलने से उसके अहंकार को सन्तुष्टि मिलती है। इस विद्वान को तेनाली राम का प्रस्ताव पसन्द आया। उसने महाराज से कहा, “महाराज! मैं यह आतिथ्य ग्रहण करने के लिए तत्पर हूँ। लेकिन शर्त है कि यदि ये मेरी मातृभाषा नहीं बता पाए तो इन्हें एक भी स्वर्णमुद्राएँ मुझे इन सभी सभासदों के समक्ष ही देनी पड़ेगी।”

तेनाली राम ने कहा, “महाराज! मुझे इन जैसे विद्वान के साहचर्य और सान्निध्य के लिए इनकी यह शर्त स्वीकार है।”

फिर तेनाली राम उस विद्वान के साथ अपने घर आ गया। उस दिन की सभा विसर्जित हो गई।

तेनाली राम के घर पर उत्सव जैसा माहौल था। उसके सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सभी बुलाए गए थे। शाम ढल चुकी थी। तेनाली राम के द्वार पर कई मशाल जलाकर प्रकाश किया गया था। तेनाली राम ने अपने पड़ोसियों को भी सूचित किया था कि उसके घर एक ऐसा विद्वान आया हुआ है जिससे वे चाहे जिस बोली या भाषा में बात करें, वह उन्हें उसी बोली में उत्तर देगा। देर रात तक तेनाली राम के दरवाजे पर लोगों का मजमा लगा रहा।

विद्वान जब थककर चूर हो चुका तब तेनाली राम ने लोगों को विदा किया। उसने विद्वान को खूब मीठे पकवान खिलाए जिसके कारण विद्वान को नींद आने लगी। तेनाली राम ने उसके सोने की व्यवस्था अलग कमरे में कराई। जब विद्वान सो गया तब तेनाली राम ने एक सेवक को एक बर्तन में गरम पानी दिया और कहा, “तुम जाओ और जाकर उस सोए हुए अतिथि के एक पाँव पर यह गरम पानी उड़ेल आओ। इसके बाद जो कुछ भी होगा, उससे मैं निपट लूँगा।”

सेवक डरता हुआ विद्वान वाले कमरे में गया। थोड़ी ही देर में विद्वान की चीख और कन्नड़ में उसके बोलने की आवाज सुनकर तेनाली राम उसके कमरे में पहुँचकर विद्वान से पूछा, “क्या हुआ?”

विद्वान उस समय घबराया हुआ था। विद्वान ने तेनाली राम से कहा, “तुम्हारे सेवक ने मेरे ऊपर गरम पानी डाल दिया।”

यह सुनकर तेनाली राम ने चीखकर अपने सेवक को आवाज लगाई, “रामलिंगम्, इधर आओ! सुनो, हमारे माननीय अतिथि क्या कह रहे हैं!”

रामलिंगम् ने कहा, “स्वामी, मैं आपकी दवा के लिए गरम पानी लेकर आ रहा था। हाथ में गरम पानी लेकर जब मैं दवा लेने के लिए इस कमरे में आया तो मेरा पाँव पलंग के पाये से टकरा गया और कटोरे से थोड़ा पानी छलककर इनके पाँव पर गिर गया जिसके कारण ये जग गए और मैं इनके क्रोध से बचने के लिए डरकर बाहर भाग गया।”

तेनाली राम ने हाथ जोड़कर अतिथि से क्षमा-याचना की और उसके पाँव को ठंडे पानी से धोकर उस पर आलू के गूदे का लेप लगाया जिससे अतिथि की जलन शान्त हो गई और वह शान्ति से सो गया।

दूसरे दिन तेनाली राम अपने विद्वान अतिथि के साथ महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में उपस्थित हुआ।

महाराज और सभी सभासद मानो उनकी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। तेनाली राम और विद्वान अतिथि द्वारा आसन ग्रहण कर लेने के बाद महाराज ने सभा की कार्रवाई शुरू कराई।

विद्वान ने उठकर कहा, “महाराज! मैंने तेनाली राम की शर्त पूरी कर दी है। अब आप तेनाली राम को कहें कि शर्त के अनुसार वे मेरी मातृभाषा बताएँ या मुझे एक भी स्वर्णमुद्राएँ देकर विदा करें।”

महाराज ने तेनाली राम से पूछा, “क्यों तेनाली राम, तुम अब बताओगे कि अतिथि की मातृभाषा क्या है?”

“जी हाँ, महाराज! हमारे अतिथि की मातृभाषा ‘कन्नड़’ है।”

यह सुनना था कि वह विद्वान अपने आसन से उठकर आश्चर्य से तेनाली राम को देखने लगा फिर उसने हाथ जोड़कर स्वीकार कर लिया, “मेरी मातृभाषा कन्नड़ ही है।” उसने यह भी कहा, “महाराज! मैंने आपके दरबार की प्रशंसा तेनाली राम के कारण ही सुनी थी। मुझे एक भी स्वर्णमुद्राएँ इन जैसे प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को भेंट करते हुए हार्दिक प्रसन्नता होगी।” यह कहते हुए उसने तेनाली राम को एक भी स्वर्णमुद्राएँ सौंपने की तत्परता दिखाई।

सभाकक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा किन्तु तेनाली राम ने यह कहते हुए यह धन लेने से मना कर दिया कि विद्वान उनका अतिथि है। अतिथि का सम्मान करना हमारी परम्परा है। अतिथि से कुछ प्राप्त करने की लालसा हमें नहीं होती!

सभाकक्ष में बैठे सभी व्यक्ति तेनाली राम के इस इनकार से हत्प्रभ रह गए। वह विद्वान तेनाली राम से इतना प्रभावित हुआ कि अपने ज्ञाता होने के अहंकार से मुक्त होकर तेनाली राम के चरण छू लिये तथा कहने लगा, “तेनाली राम! आप जैसे व्यक्ति से मिलकर मेरा जीवन धन्य हो गया। मैं जीवनपर्यन्त आपकी प्रतिभा और अतिथि-सम्मान की भावना को नहीं भूल पाउँगा।” ऐसा कहकर विद्वान महाराज कृष्णदेव राय के दरबार से बाहर आ गया।

उसके जाने के बाद महाराज ने तेनाली राम से यह जानना चाहा कि उसने कैसे जाना कि उस विद्वान की मातृभाषा कन्नड़ ही है?

तेनाली राम ने हँसते हुए महाराज को रात की घटना सुना दी तथा कहा, “महाराज! आदमी चाहे जितनी भी भाषाओं का ज्ञाता हो, वह अचानक मिली पीड़ा की उत्प्रेरणा से अपनी मातृभाषा में ही चीखेगा। मैंने इसी सूत्र के सहारे यह जान लिया कि विद्वान की मातृभाषा कन्नड़ है।”

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