अति लोभ नाश का मूल! सूअर, शिकारी और गीदड़ की कहानी!

Ati Lobh Nash Ka Mool Panchatantra Kahani in Hindi

अतितृष्णा न कर्तव्या, तृष्णां नैव परित्यजेत्

लोभ तो स्वाभाविक है,
किंतु अतिशय लोग मनुष्य का सर्वनाश कर देता है।

एक दिन एक शिकारी शिकार की खोज में जंगल की ओर गया। जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा काला बड़ा सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर उसने अपनी धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक खींच कर निशाना मारा। निशाना ठीक स्थान पर लगा, सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा। शिकारी भी तीखे दांत वाले सुअर के हमले से गिरकर घायल हो गया। उसका पेट फट गया। शिकारी और शिकार दोनों का अंत हो गया।

इसी बीच एक भटकता और भूख से तड़पता गीदड़ वहां आ निकला। वहां सूअर और शिकारी दोनों को मरा देखकर वह सोचने लगा आज देववश बड़ा अच्छा भोजन मिला है। कई बार बिना उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है। इसे पूर्व जन्मों का फल भी कहना चाहिए।

यह सोचकर वह शवों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा। उसे याद आ गया कि अपने धन का उपयोग मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिए। इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग की तरह करना उचित है। इस तरह अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है। अतः इसका भोग मैं इस रीति से करूंगा कि बहुत दिन तक उनके उपयोग से मेरी प्राण यात्रा चलती रहे।

यह सोचकर उसने निश्चय किया कि पहले धनुष की डोरी को खाएगा। उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी। उसकी डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बंधी हुई थी। गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर चबाया। चबाते ही वह डोरी बहुत तेज वेग से टूट गई और धनुष के कोने का एक सिरा उसके माथे को भेदकर ऊपर निकल गया। मानो माथे पर शिखा निकल आई हो। इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वही मर गया।

ब्राह्मण ने कहा – इसीलिए मैं कहता हूं कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है।

ब्राह्मणी ने ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा- यदि यही बात है, तो मेरे घर में थोड़े से तिल पड़े हैं। उनका शोधन करके कूट छांटकर अतिथि को खिला देती हूं।

ब्राह्मण उसकी बात से संतुष्ट होकर भिक्षा के लिए दूसरे गांव की ओर चल दिया। ब्राह्मणी ने भी वचनानुसार घर में पड़े तीलों को छांटना शुरू कर दिया। जब उसने तीलों को सुखाने के लिए धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तीलों को मूत्र विष्ठा से खराब कर दिया। ब्राह्मणी बड़ी चिंता में पड़ गई। यही तिल थे, जिन्हें पकाकर उसे अतिथि को भोजन देना था। बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल मांगेगी, तो कोई भी दे देगा। इसके उच्छिष्ट होने का किसी को पता भी नहीं लगेगा। यह सोचकर वह उन छंटे हुए तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने लगी और कहने लगी कोई इन छंटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छंटे तिल दे दो।

अचानक यह हुआ कि जिस घर में मैं भिक्षा के लिए गया था, उसी घर में वह भी तिलों को बेचने पहुंच गई और कहने लगी बिना छंटे हुए तिलों के स्थान पर छंटे हुए तिलों को ले लो। उस घर की गृह पत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी, तब उसके लड़के ने जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा – माता! इन तिलों को मत लो। कौन पागल होगा जो बिना छंटे तिलों को लेकर छंटे हुए तिल देगा। यह बात निष्कारण नहीं हो सकती। अवश्यमेव इन छंटे हुए तिलों में कोई दोष होगा।

पुत्र के कहने पर माता ने सौदा नहीं किया।

यह कहानी सुनाने के बाद बृहत्सिफक ने ताम्रचूड़ से पूछा- क्या तुम्हें उसके आने-जाने का मार्ग मालूम है?

ताम्रचूड़- भगवन वह तो मालूम नहीं। वह अकेला नहीं आता, दल-बल समेत आता है। उसके साथ ही वह आता है और साथ ही जाता है।

बृहत्सिफक- तुम्हारे पास कोई फावड़ा है?

ताम्रचूड़ ने कहा- हाँ, फावड़ा तो है।

दोनों ने दूसरे दिन फावड़ा लेकर हमारे चूहों के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए बिल तक आने का निश्चय किया। मैं उनकी बातें सुनकर बड़ा चिंतित हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि वह इस समय मेरे दुर्ग तक पहुंच कर फावड़े से उसे नष्ट कर देंगे। इसीलिए यह सोचकर मैं अपने दुर्ग की ओर न जाकर किसी अन्य स्थान की ओर चल देता हूं। इस तरह सीधा रास्ता छोड़कर दूसरे रास्ते से जब मैं सदल-बल जा रहा था, तो मैंने देखा कि एक मोटा बिल्ला आ रहा है। यह बिल्ला चूहों की मंडली देख कर उस पर टूट पड़ा। बहुत से चूहे मारे गए। बहुत से घायल हुए। एक भी चूहा ऐसा ना था जो लहूलुहान ना हुआ हो। उन सब ने इस विपत्ति का कारण मुझे ही माना। मैं ही उन्हें असली रास्ते के स्थान पर दूसरे रास्ते से ले जा रहा था। बाद में उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। वह सब पुराने दुर्ग में चले गए।

इस बीच बृहत्सिफक और ताम्रचूड़ भी फावड़ा समेत दुर्ग तक पहुंच गए। वहां पहुंच कर उन्होंने दुर्ग को खोदना शुरू कर दिया। खोदते-खोदते उनके हाथ में खजाना लग गया, जिसकी गर्मी से मैं बंदर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था। खजाना लेकर दोनों ब्राह्मण मंदिर को लौट गए। मैं जब अपने दुर्ग को गया, तो उसे उजड़ा देख कर मेरा दिल बैठ गया। उसकी यह अवस्था देखी नहीं जाती थी। सोचने लगा क्या करूं? कहां जाऊं? मेरे मन को कहां शांति मिलेगी?

बहुत सोचने के बाद मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मंदिर में चला गया, जहां ताम्रचूड़ रहता था। मेरे पैरों की आहट सुन ताम्रचूड़ ने फिर खूंटी पर टंगे भिक्षा पात्र को फटे बांस से पीटना शुरू कर दिया।

बृहत्सिफक ने उससे पूछा- मित्र! अभी तू निश्चिंत होकर नहीं सोता। क्या बात है?

ताम्रचूड़- भगवन! वह चूहा फिर यहां आ गया है। मुझे डर है मेरे भिक्षा शेष को वह फिर ना कहीं खा जाए।

बृहत्सिफक- मित्र! अब डरने की कोई बात नहीं। धन के खजाने के छीनने के साथ उसके उछलने का उत्साह भी नष्ट हो गया। सभी जीवों के साथ ऐसा होता है। धन बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर होता है और दूसरों को पराजित करता है। यह सुनकर मैंने पूरे बल से छलांग मारी, किंतु खूंटी पर टंगे भिक्षा तक ना पहुंच सका और मुख के बल जमीन पर गिर पड़ा। मेरे गिरने की आवाज सुनकर मेरा शत्रु बृहत्सिफक ताम्रचूड़ से हंसकर बोला- देख ताम्रचूड़! इस चूहे को देख, खजाना छिन जाने के बाद वह फिर मामूली चूहा ही रह गया है। इसकी छलांग में अब वह वेग नहीं रहा जो पहले था। धन में बड़ा चमत्कार है। धन से ही सब बली होते हैं, पंडित होते हैं। धन के बिना मनुष्य की अवस्था दंतहीन सांप की तरह हो जाती है।

धनाभाव में मेरी भी बड़ी दुर्गति हो गई। मेरे ही नौकर मुझे उलाहना देने लगे कि यह चूहा हमारा पेट पालने योग्य तो है नहीं। हां, हमें बिल्ली को खिलाने योग्य अवश्य है। यह कहकर उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। मेरे साथी मेरे शत्रुओं के साथ मिल गए।

मैंने भी एक दिन सोचा कि मैं फिर मंदिर में जाकर खजाना पाने का यत्न करूंगा। इसमें मेरी मृत्यु भी हो जाए तो भी चिंता नहीं। यह सोचकर मैं फिर मंदिर में गया। मैंने देखा कि ब्राह्मण खजाने की पेटी को सिर के नीचे रख कर सो रहे हैं। मैं पेटी में छिद्र करके जब धन चुराने लगा, तो वे जाग गए। लाठी लेकर वह मेरे पीछे दौड़े। एक लाठी मेरे सिर पर लगी। आयु शेष थी, इसलिए मृत्यु नहीं हुई। किंतु घायल बहुत हो गया। सच तो यह है कि जो धन भाग्य में लिखा होता है, वह तो मिल ही जाता है। संसार की कोई शक्ति उसे हस्तगत होने में बाधा नहीं डाल सकती। इसी लिए मुझे कोई शक नहीं है, जो हमारे हिस्से का है, वह हमारा अवश्य होगा।

इतनी कथा कहने के बाद हिरणयक ने कहा- इसीलिए मुझे वैराग्य हो गया है और इसीलिए मैं लघुपतनक की पीठ पर चढ़कर यहां आ गया हूं।

मंथरक ने आश्वासन देते हुए कहा – मित्र! जवानी और धन की चिंता ना करो। जवानी और धन का उपयोग क्षणिक ही होता है। पहले धन के आर्जन में दुख है, फिर उसके संरक्षण में दुःख। जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है, उससे शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करें तो उसे मोक्ष मिल जाए। विदेश प्रवास का भी दुख मत करो। व्यवसाई के लिए कोई स्थान दूर नहीं, विद्वानों के लिए कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिए कोई पराया नहीं।

इसके अतिरिक्त धन कमाना तो भाग्य की बात है। भाग्य ना हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी अर्थ उपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता, जैसे मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था।

हिरण्यक ने पूछा- कैसे?

मंथरक ने तब सोमिलक की यह कथा सुनाई।

भाग्यहीन नर पावत नाहीं!

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