अधिकार की रक्षा! प्रेरणादायक लोक कहानी कथा Folk Tales in Hindi

Adhikar Ki Rakcha Prernadayak Lok Katha Kahani Story in Hindi with Moral

कुंजरमल्ल नाम का एक साधारण किसान था। वह रूपयों-पैसों का तो नहीं, लेकिन बल, उत्‍साह का धनी था। भीख मांगकर पेट भरने की अपेक्षा, भूखा रहना या परिश्रम से रूखा-सूखा कमाकर खाना उसको स्‍वभाव से ही प्रिय था। उसके पास ज़मीन का केवल एक टुकड़ा था जो उसके घर से कुछ दूर पहाड़ी के पास बंजर पड़ा था।

एक दिन कुंजरमल्‍ल ने उसको तोड़कर खेत बनाने का निश्‍चय किया। वह फावड़े-कुदाल लेकर उसके ढेले तोड़ने लगा। उसको काम करते देखकर पहाड़ी के ऊपर से एक हट्टा-कट्टा नाटा नट दौड़ता हुआ आया और डपटकर उससे बोला- क्‍यों रे पत्थर-फोड़, यहां खटपट क्‍यों मचाए है?

कुंजर बोला- मैं कंकड़-पत्थर फोड़कर अपना खेत ठीक कर रहा हूँ।

नाटे नट ने फिर घुड़ककर कहा- कंकड़-पत्थर फोड़ रहे हो या मेरी खोपड़ी?

कुंजर- आपकी खोपड़ी तो आपके कंधे पर है, आप कौन हैं, क्‍यों बिगड़ रहे हैं?

नट बोला- मेरा नाम खट्टनवीर है। इसी पहाड़ी पर मेरा पुराना पट्टन (शहर) है। मैं उसी में ठाट से रहता हूँ। तुमने मेरी शांति भंग कर दी है। मुझे खट्ट-पट्ट पसन्‍द नहीं है। तोड़-फोड़ बंद करो।

कुंजर- वीरजी, यह मेरी भूमि है, मुझे इसी का सहारा है। मैं अपनी ही वस्‍तु का उपयोग करना चाहता हूँ- इसके कंकड़ तोड़ने से आपकी कोई हानि तो है नहीं। आप क्‍यों रुष्‍ट होते हैं?

खट्टन दांत पीसता हुआ बोला- दुष्‍ट, मैं रुष्‍ट-पुस्‍ट नहीं सुनना चाहता। आज तू कंकड़ तोड़ रहा है, कल मेरे दांत तोड़ने को तैयार हो जाएगा। यहां से भाग जा, नहीं तो मैं तेरे रास्‍ते का रोड़ा, तेरे पैर का फोड़ा और तेरी पीठ का कोड़ा बन जाऊंगा।

कुंजरमल्‍ल ने गर्व से सिर उठाकर कहा- बौने, मैं अपने बाप-दादा की धरती के रोड़े हटाने ही आज आया हूँ। तुम सोच-बिचारकर मेरे आगे पड़ना।

यह मुंहतोड़ उत्तर देकर कुंजर अपने काम में लग गया। बौना खिसियाकर वहां से खिसक गया। किसान ने कई दिनों के कठिन परिश्रम से ऊंची-नीची भूमि को समतल बनाकर जोत डाला और बो भी दिया। खट्टनवीर उस समय तो दुबारा नहीं आया, परंतु जब खेती तैयार हो गई तो वह उसे रात में चुपचाप काट ले गया। कुंजरमल्‍ल सब कुछ समझ तो गया, लेकिन बिना देखे वह किसी को दोषी कैसे कहता? वह खेत को दुबारा बोकर यत्‍न से उसकी रखवाली करने लगा। इस बार भी अवसर पाकर खट्टन उसे काट ले गया।

दीन किसान अपनी हानि पर पछताता हुआ मेड़ पर बैठा था। इतने में खट्टन आया और हालचाल पूछकर बोला- मल्‍ल भैया, इस पहाड़ी के आस-पास ठगों का बड़ा जमघट है, इसलिए मैं तुमसे पहले ही कहता था कि व्‍यर्थ का परिश्रम क्‍यों कर रहे हो? तुम मेरे पड़ौसी हो। तुम्‍हारी सहायता करना मेरा धर्म है। यदि तुम मुझे भी इसमें साझीदार बना लो तो मैं इसकी रखवाली कर दिया करूंगा।

कुंजरमल्‍ल ने कहा- मुझे स्‍वीकार है। बोलो, तुम्‍हारी क्‍या शर्त है?

खट्टन- मेरी तो बस एक शर्त है, तुम जोतो-बोओ, पहले साल की फसल तैयार होने पर इसका ऊपर का हिस्‍सा मुझे दे देना और नीचे का जो भी हो स्‍वयं ले लेना।

कुंजरमल्‍ल ने शठ का हट मान लिया। उस साल आलू बोए गए। खट्टनवीर रखवाली करने लगा। फसल तैयार होने पर बंटवारे के आलू तो कुंजर के हिस्‍से में आए और पत्तियां खट्टनवीर के। खट्टन इस पर आपत्ति नहीं कर सकता था। क्‍योंकि ऐसा ही समझौता हुआ था। जब दुबारा बोने का समय आया तो उसने कहा- भाई, कुंजू, अब इस बार तो मैं नीचे की ऊपज लूंगा।

कुंजरमल्‍ल ने इसको मान लिया। इस बार उसने गेहूँ बोया। फसल तैयार होने पर समझौते के अनुसार दाने तो उसके हाथ लगे और डंठल खट्टनवीर के। खट्टन का पासा इस बार भी उल्‍टा ही पड़ा।

दो बार की अच्‍छी उपज से कुंतरमल्‍ल ने कुछ कमा लिया था। वह खेत के पास एक झोंपड़ी बनाकर वहीं रहने लगा। जब जोतने-बोने का समय आया तो खट्टनवीर उसके पास आकर बोला- कहो जी इस साल का समझौता कब होगा? मैं तो यों ही नाटा था, लगातार घाटे पर घाटा उठाकर सूखकर कांटा हो गया। मेरे घर में आटा-दाल तक नहीं और तुम्‍हारे यहां परांठा बन रहा है। अनाज से कोठा पाटा जा रहा है। मल्‍लू, इस बार तुम मुझे उल्‍लू न बना पाओगे।

कुंजर- खट्टनजी, सांझे का खट-खट अच्‍छा नहीं होता, अब जो कुछ कर सकूंगा, मैं अकेले ही करूंगा।

खट्टन- तो रखाएगा कौन? ठग-चोर तुम्‍हारा धन पहले की तरह हड़प कर जाएंगे और तुम तड़पकर रह जाओगे। रखवाली कौन करेगा? क्‍या तुम्‍हें कोई नया साथी मिल गया है?

कुंजरमल्‍ल ने अपनी लाठी की ओर इशारा करके कहा- जी हां, ठग-चोरों को ठीक करने वाले ये मेरे नये साथी हड्डीतोड़जी हैं, इनके आगे दुष्‍ट लोग नहीं ठहरते। अपनी आंखों से इनका प्रताप देखिए।

हाथ में लट्ठ लेकर वह खट्टनवीर की ओर यह कहता हुआ झपटा- खड़ा रह शठ खट्टन, इस लट्ठ से मैं तेरी शठता भगा दूंगा, तेरे दांत खट्टे कर दूंगा, तू ही मेरे दो साल की कमाई लूट ले गया।

उसकी दाड़ी पकड़कर वह उसे लट्टू की तरह नचाने लगा। खट्टनवीर गिड़गिड़ाता हुआ बोला- क्षमा करो महावीरजी, पहले साल का माल तो नदी के पेट में चला गया है, दूसरे साल का मेरे पेट में। हाथ जोड़ता हूँ, देह के जोड़ न तोड़ो, आने-पाई जोड़कर मुझसे दण्‍ड ले लेना। कोई लाख-करोड़ की बात नहीं है, मुझे एक बार छोड़ तो, मैं फिर दिखाई पडूं तो मेरी गर्दन मरोड़ देना या खोपड़ी फाड़ देना।

कुंजरमल्‍ल ने दो साल की नष्‍ट खेती का पूरा मूल्‍य उससे लेकर तब उसका पिंड छोड़ा। इसके बाद खट्टनवीर ने अपनी खिड़की से कभी झांककर यह देखने का भी साहस नहीं किया, कुंजरमल्‍ल के खेत कब बोए गए और कब काटे गए। उसे तो स्‍वप्‍न में भी कुंजरमल्‍ल खेत की मेड़ पर महाकुंजर की तरह गरजता-झपटता दिखाई पड़ता था।

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