एक गधा बोझा ढोते-ढोते बुरी तरह ऊब गया। एक बार उसने अपने मित्र ऊँट से कहा:
”ऊंट, ओ ऊंट! मैं तो बोझा ढोते-ढोते ऊब गया हूँ: मेरी सारी पीठ उधेड़ रखी है! चलो, मालिक को छोड़कर भाग जाते हैं, दोनों मिलकर आज़ादी से रहेंगे, जो मन में आयेगा, करेंगे।”
ऊंट चुप्पी साधे थोड़ी देर तक सोचता रहा है फिर बोला:
”हमारा मालिक सचमुच बहुत बुरा है: चारा खराब खिलाता है, काम ढेरों करने को मजबूर करता है। मैं तो बड़ी खुशी से भाग जाता, पर भागूं कैसे?”
गधे के पास इसका जवाब तैयार था।
”मैंने सब भली-भांति सोच लिया है,” कहने लगा, ”तुम फिक्र मत करो। कल मालिक हम पर नमक लादकर शहर ले जायेगा। शुरू में तो हम उसकी आज्ञानुसार शांति से चलेंगे, पर चढ़ाई पर चढ़ते ही दोनों ही एक साथ गिर पड़ेंगे और दिखावा करेंगे मानो हम बिलकुल अशक्त हो गये हैं। मालिक हमें गालिया देने लगेगा, हम पर डण्डे बरसाने लेगेगा, पर हम टस से मस नहीं होंगे। वह थककर चूर हो जायेगा और मदद लाने घर चला जायेगा। फिर हमें पूरी आज़ादी मिल जायेगी – कहीं भी भाग सकते हैं, बस हमारे पैर हमें धोखा न दें।”
ऊंट बहुत खुश हुआ:
”बहुत अच्छी तरकीब सोची तुमने, बहुत ही अच्छी! हम वैसा ही करेंगे, जैसा कि तुमने कहा है!”
उन्होंने सुबह होने तक इंतजार किया। सुबह होते ही मालिक ने उन पर नमक की बोरियां लाद दीं और शहर हांक ले चला।
आधे रास्ते तक वे सदा की तरह चलते रहे: ऊंट आगे-आगे, गधा उसके पीछे और दोनों के पीछे मालिक डण्डा लिये। चढ़ाई उन्होंने पार की ही थी कि गधा और ऊंट जम़ीन पर गिर पड़े और पूर्णतया अश्क्त होने का और खड़े न हो पाने का दिखावा करने लगे।
मालिक लगा उन्हें कोसने:
”अरे आलसियों, अरे कामचोरों! डण्डे की मार पड़ने से पहले उठ खड़े हो जा!”
पर उनके कान पर तो जूं भी नहीं रेंगी, पड़े रहे, मानो कुछ सुन ही नहीं रहे हों।
मालिक भड़क उठा और लगा उन पर कस-कसकर डण्डे बरसाने।
उसने ऊंट को उनतालीस डण्डे मारे- कोई असर नहीं हुआ, पर जैसे ही उसने चालीसवीं बार मारने के लिए डण्डा उठाया- ऊंट जोर से बलबलाया और झट उठ खड़ा हुआ।
”यह हुई ना बात,” मालिक बोला, ”पहले ही खड़ा हो जाना चाहिए था!”
और फिर गधे की पिटाई करने लगा।
उसने उस पर चालीस डण्डे बरसाये- गधे ने आह भी नहीं भरी, पचास डण्डे मारे- गधा हिला भी नहीं, साठ डण्डे मारे- गधा जैसे पड़ा था, वैसा ही पड़ा रह गया।
मालिक ने देखा-हालत खराब है: गधा शायद दम तोड़नेवाला है, बड़ी मुसीबत है, पर कोई कर ही क्या सकता है।
उसने गधे का बोझ उतारकर ऊंट पर लाद दिया और आगे चल दिया।
ऊंट बोझ के मारे बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था और गधे को कोसता जा रहा था:
”नासपीटे गधे, तेरे कारण मेरी खाल उधेड़ी गयी है, मैं दुगुना बोझ ढो रहा हूँ।”
गधा मालिक व ऊंट के दर्रे में ओझल होने तक इंतजार करता रहा, फिर उठा और सिर पर पैर रखकर भागा।
वह तीन दिन तक भागता रहा, उसने तीन पहाड़ और तीन घाटियां पर की और अंत में एक तेज नदी के किनारे एक खुले मैदान तक पहुँच गया।
गधे को मैदान बहुत पसंद आया और वह वहीं रहने लगा। जब कि उस जमीन पर अनेक वर्षो से एक खूंखार शेर राज करता था।
एक बार शेर को अपनी जागीर का दौरा करने की इच्छा हुई। वह सुबह सफ़र पर निकला और दोपहर में उसे गधा दिखाई दिया।
गधा बड़े मजें से मैदान में दुम हिलाता घूमता हुआ घास चर रहा था।
शेर ने सोचा: ”यह कौन-सा जानवर है? मैंने ऐसा जानवर कभी नहीं देखा।”
और गधे की शेर पर नज़र पड़ते ही सन्न रह गया। ”अब तो,” वह सोचने लगा, ”मैं मारा गया!” और उसने मन-ही-मन ठान ली, ”बिना अात्म-रक्षा किये मरने से बेहतर होगा कि मैं इस भयानक पशु को अपनी बहादुरी दिखा दूं।”
उसने पूंछ उठायी, कान हिलाये और गला पूरा फाड़कर लगा चीपों-चीपों करने!
शेर की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। वह पलटकर सिर पर पैर रखकर भागा, उसने डर के मारे पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।
रास्ते में उसे भेडि़या मिला:
”आप किस से इतनी बुरी तरह डर गये है, महाराज?”
”मैं एक ऐसे जानवर से डर गया, जिससे भयावह पशु दुनिया में और कोई नहीं है: उसके कानों के स्थान पर पंख है, मुंह अथाह खाई जैसा है और जब वह दहाड़ता है, तो धरती कांपने लगती है, आकाश धुंधला पड़ जाता है।”
”सुनिये, सुनिये,” भेडि़या बोला, ”आपकी मुठभेड़ कहीं गधे से तो नहीं हुई? यही बात है। ठीक है, कल हम दोनों उसे कमंद फेंककर बांध लेंगे।”
दूसरे दिन भेडि़या कमंद ढूंढ़ लाया। उसने उसका एक छोर शेर की गरदन पर बांध दिया, दूसरा – अपनी पर, और दोनों खुले मैंदान की ओर चल पड़े।
भेडिया आगे-आगे चल रहा था और शेर- पीछे-पीछे, अड़ता हुआ।
गधे ने उन्हें दूर ही से देख लिया और उसने फिर अपनी वही चाल चली: पूंछ उठायी, गला फाड़ा और लगा पहले से भी जोर से रेंकने।
शेर ने चिल्लाकर भेडि़ये से कहा:
”मेरे यार, लगता है तुम मुझे इस भयावह पशु का भोजन बनाने पर तुले हुए हो!”
वह पूरी ताक़त जुटाकर एक ओर भागा- और भेडिये का सिर धड़ से अलग हो गया।
शेर भागता हुआ घर पहुँचा, वह बुरी तरह हांफ रहा था।
उसी समय फुर्र से मुटरी उसके पास आ पहुँची। उसने चहचहाकर, बुदबुदाकर शेर से सारा किस्सा मालूम किया और फिर बोली:
”जरा ठहरो, मैं अभी मैदान में जाकर देखती हूँ कि वहॉं कौन-सा जानवर घूम रहा है और वह क्या कर रहा है। सारी बात का पता लगाकर तुम्हें सारा ब्योरा बताऊंगी।”
मुटरी मैदान की ओर उड़ चली।
गधे ने उसे दूर से ही देख लिया, ज़मीन पर लेट गया और टांगे लंबी खींच ली, मानो मर गया हो।
मुटरी ने नीचे नज़र डाली और खुश हो उठी: भयावह पशु की तो टें बोल गयी! वह सीधी गधे पर उतरी और उसके शरीर पर चहलक़दमी करती हुई सोचने लगी कि भीमकाय पशु पर अपनी विजय के बारे में शेर को कौन-सा झूठा किस्सा गढ़कर सुनाये।
अचानक उसे जमीन पर गेहूँ का एक दाना पड़ा नज़र आ गया, उसने चोंच से दाने का निशाना बांधा, एक क़दम पीछे हटी और सिर के बल गधे के घुटनों के बीच जा गिरी।
तत्क्षण गधे में जान आ गयी। उसने मुटरी को कसकर दबोच लिया और लगा पूंछ से उसे कोड़े मारने। उसने उसे इतना मारा, इतना मारा कि मुटरी के परों के छितरे बिखर गये। फिर उसके एक ऐसी दुलत्ती झाड़ी कि मुटरी लुढकती हुई मैदान के दूसरे छोर पर जा गिरी।
वह वहॉं पड़ी रही, जब होश आया, तो किसी तरह लंगड़ाती-लंगड़ाती, कराहती, कांखती वापस उड़ चली।
मुटरी उड़ते-उड़ते दूर से ही शेर से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी:
”भागो यहॉं से, दूर भाग जाओ, जब तक सही-सलामत हो! मनहूस जानवर ने मुझे जीवन भर के लिए अपाहिज कर दिया! देखो, कही तुम पर भी ऐसी न गुजरे।”
शेर बिलकुल भीगी बिल्ली बन गया। उसने अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और हमेशा-हमेशा के लिए दूसरे देश चला गया।
और साहसी गधा आज भी खुले मैदान में सुख-चैन से रह रहा है।
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