बहुत दिन हुए दो आदमी थे- जक्सीलिक़ (नेकी) और जमनदिक़ (बदी)।
एक बार जमनदिक़ लम्बे सफ़र पर रवाना हुआ। वह चलता रहा, चलता रहा और बहुत थक गया। एक बांका नौजवान घोड़े पर उसके पास पहुँचा। वह बांका नौजवान और कोई नहीं, जक्सीलिक़ था। मालूम पड़ा, उन दोनों का रास्ता एक ही है।
”मुझे अपने साथ ले चलो,” जमनदिक़ ने विनती की, ”तुम्हारा घोड़ा अच्छा है, वह हमें पहुँचा देगा। साथ रहने से सफ़र भी हंसी-खुशी कट जायेगा।”
”ठीक है, तुझे मंजूर है,” जक्सीलिक़ बोला, ”पर एक शर्त है: हम बारी-बारी से सवारी करेंगे। तुम्हें वहा पेड़ दिखाई दे रहे है? तुम वहां घोड़ा छोड़कर आगे पैदल जाओगे और मैं घोड़े पर सवार होकर। फिर तुम्हारी सवारी करने की बारी आ जायेगी। तुम खुद ही सोचो, हम दोनों को घोड़ा एक साथ नहीं ढो सकेगा।”
जमनदिक मान गया। वह घोड़े पर सवार हो उसे सरपट दौड़ा ले चला।
जक्सीलिक़ काफ़ी देर तक पैदल चलता रहा। दिन ढलने लगा और रास्ते के दोनों ओर अंधेरा घना जंगल दिखाई देने लगा, पर न घोड़ा कहीं नजर आया, न ही जमनदिक़।
यानी वह आदमी जक्सीलिक़ को धोखा दे गया।
यही हुआ था। जमनदिक़ आंखों से ओझल होकर मजे से वहां पहुँच गया, जहॉं उसे जाना था। ”पेट भरे के खोटे चाले,” क्षमाशील जक्सीलिक़ ने सोचा।
उसे जंगल में एक उजड़ी पड़ी झोपड़ी दिखाई दी और वह सुस्ताने के लिए उसमें घुस गया।
झोपड़ी में सन्नाटा था, किसी का नाम-निशान न था। केवल बीचोंबीच सुलगते अलाव पर बड़ा-सा देग रखा था और देग में मांस पक रहा था। जक्सीलिक़ हैरान हो गया: ”सारी झोंपड़ी में इतनी सौंधी-सौंधी गंध फैली हुई थी, पर मालिक का नाम नहीं आखिर यहॉं कौन रहता है?”
”जरा चखकर देखूं!” जक्सीलिक़ ने कहा।
उसने देग में उंगली डुबोकर चाटी और मन ही मन सोचा: ”बहुत स्वादिष्ट है!” पर उसने खाना नहीं खाया- वह मालिक को नाराज नहीं करना चाहता था।
जक्सीलिक़ झोपड़ी की छत पर आराम की जगह ढूंढकर लेट गया।
कुछ समय बाद झोपड़ी में तीन प्रायी आये: भेडि़या, लोमड़ी और शेर। भूखे भेडि़ये की आंखे मशाल की तरह जल रही थी, शेर अपनी झबरी अयाल झटकार रहा था, गुस्से में दहाड़ रहा था, जबकि लोमड़ी चलती नहीं, तैरती-सी आ रही थी, बस हर क़दम पर मुंह उठाकर सूंघती चल रही थी।
”हाय, हाय! किसी ने हमारा खाना चखा है!” लोमड़ी देग के पास पहुँचने से पहले ही परेशान हो उठी।
”तुम क्या कह रही हो, लोमड़ी, यहॉं कौन आ सकता है, हमारा खाना कौन खायेगा! तुम्हें बस ऐसा लगा है।”
लोमड़ी शांत हो गयी। वे तीनों देग के इर्द-गिर्द बैठ गये और खाने लगे।
खाना खाकर भेडि़या, लोमड़ी और शेर अपने दिन भर के जोखिमभरे कारनामे एक दूसरे को सुनाने लगे।
”तुम आज कहां-कहां गयी, तुमने क्या-क्या देखा और कौन-कौन-सी मजे़दार बातें सुनी?” भेडि़ये और शेर ने लोमड़ी से पूछा।
लोमड़ी बोलने में कंजूस नहीं थी।
”पिछले कई दिनों से मैं जाड़े के पुराने पड़ाव के खण्डहरों में जा रही हूँ। वहां चांदी के सिक्कों से भरा एक छोटा-सा घड़ा गड़ा हुआ है। मैं किसी भले आदमी के लिए उसकी रखवाली कर रही हूँ।”
भेडि़या भी अपनी भलमानसी के बारे में बताने लगा:
”ऐसा कोई दिन नहीं रहा, न ही रात, जब मैं बाय के भेड़ों के रेवड़ में न गया हूँ,” उसने सुनाना आरम्भ किया। ”उनमें एक चितकबरी भेड़ खास तौर से अच्छी है। मैं उसी को नहीं छूता। उन भेड़ों के मालिक की एक सुंदर बेटी है। वह कई बरसों से बीमार है और कोई उसका इलाज नहीं कर पा रहा है। बाप ने बेटी की शादी उस आदमी से करने का वादा किया है, जो उसका इलाज कर दे, पर कोई उसकी रोगहर दवाई नहीं खोज पाता। हालांकि ऐसी दवाई है। अगर चितकबरी भेड़ का दिल निकालकर पकाया जाये और उसे लड़की को खिलाया जाये, तो वह पलक झपकते स्वस्थ हो जायेगी। पर मैं मालिक पर नाराज हूँ, वह कई बार मेरे पीछे कमन्द लेकर भाग चुका है, और चितकबरी भेड़ के बारे में मैं किसी को नहीं बताऊँगा।”
शेर ने अपनी आप-बीती सुनाई:
”मैं रोज़ रात को दबे पांव बाय के घोड़ों के झुण्ड में जाता हूँ, एक घोड़े को मारकर उठा ले जाता हूँ और खाकर घर लौट आता हूँ। घोड़ों के मालिक को मालूम नहीं है कि घोड़े कौन ले जाता है। हाल ही में उसने गांव के सारे लोगों को इकट्ठा करके उनके साथ देर तक बातचीत की और घोड़ों का सारा झुण्ड उस आदमी को देने का वादा किया, जो घोड़ों के चोर को पकड़ ले। पर मैं बिलकुल नहीं डरता। बाय का कोई भी घोड़ा मुझसे तेज़ नहीं भाग सकता। वैसे झुण्ड में एक छोटा-सा बछेड़ा है। उसके माथे पर सफेद तारा है। सिर्फ वही मुझे दौड़ में पछाड़ सकता है। लेकिन मालिक को इस बारे में कुछ मालूम नहीं है।”
जी भरकर बात कर लेने के बाद वे ऊंघने लगे, पर शीघ्र ही जाग गये और सब अपने-अपने काम करने चले गये।
जक्सीलिक़ छत पर लेटा-लेटा उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुनता रहा और भेडि़ये, लोमड़ी व शेर के झोंपड़ी छोड़कर जाते ही वह भी चला गया।
जक्सीलिक़ बख्सी की पोशाक पहनकर उस गांव में से गुजरने लगा, जिसमें बाय व उसकी बेटी रहते थे। बख्सी को देखते ही बाय उसकी मिन्नत करने लगा:
”खुद अल्लाह ने तुम्हें हमारे गांव में भेजा है! तुम पोशाक से भले ही गरीब हो, पर अक्ल के धनी हो! जरा आकर मेरी बेटी को देख लो।”
जक्सीलिक़ ने नि:शब्द सहमति प्रकट की और रूपवती को देखकर पूछा:
”तुमने इसका इलाज क्यों नहीं करवाया?”
”कराया था, प्यारे बख्सी, कराया था। लेकिन ऐसी कोई दवा अभी तक नहीं मिली, जो मेरी बेटी को इस रोग से छुटकारा दिलवा सके। शायद तुम्हारी दया से मुझे ऐसी दवा मिल जाये।”
”मैं तुम्हारा दु:ख दूर करने में तुम्हारी मदद कर सकता हूँ,” जक्सीलिक़ ने कहा, ”तुम्हारी बेटी का इलाज तो मैं कर दूँगा, पर तुम्हें इसकी शादी मुझसे करनी होगी।” बाय ने स्वीकार कर लिया।
”लेकिन एक बात याद रखो,” जक्सीलिक़ आगे बोला, ”आज तुम्हारा मेहमान कोई ऐसा-वैसा आदमी नहीं, बड़ा आदमी है। तुम्हें उसके लिए चितकबरी भेड़ काटनी होगी।”
बाय ऐसे चौंक उठा, जैसे किसी ने उसके सूई चुभो दी हो, चूँकि वह कंजूस था और चितकबरी भेड़ उसके रेवड़ की सबसे मोटी भेड़ थी। पर अब कुछ किया नहीं जा सकता था, उसने चितकबरी भेड़ काटने, उसका मांस बचा रखने और आंत आदि मेहमान के लिए पकाने का आदेश दिया।
जक्सीलिक़ बाय की चालबाजी भांप गया, पर उसे भेड़ के भीतरी अंग ही तो चाहिए थे।
लड़की को दिल खिलाकर जक्सीलिक़ ने उसे ठीक कर दिया और उसे अपने साथ ले गया।
इसके बाद उसने जाड़े का वह पुराना पड़ाव खोज लिया, जिसका जिक्र लोमड़ी ने किया था, वहां जमीन खोदकर चांदी के सिक्कों से भरा घड़ा निकाल लिया और उस बाय के यहां चल दिया, जिसका रोज़ाना एक घोड़ा गायब हो रहा था।
”अगर मैं उस चोर को पकड़ लूँ, जो रोज़ रात को तुम्हारे झुण्ड से एक-एक घोड़ा चुरा ले जाता है, तो मुझे क्या दोगे?” जक्सीलिक़ ने पूछा
”अगर तुम चोर को पकड़ लोगे, तो मैं घोड़ों का सांड़ तुम्हें दे दूँगा।”
”ठीक है,” जक्सीलिक़ ने कहा।
वह घोड़ों के झुण्ड में गया और उसमें से माथे पर सफेद तारेवाला बछेड़ा लेकर इंतजार करने लगा।
शेर ने जैसे ही घोड़े को दबोचा, वैसे ही जक्सीलिक बछेड़े पर उछलकर सवार हो उसका पीछा करने लगा। उसने शीघ्र ही शेर तक पहुँचकर उसे मार डाला।
अगले दिन सांड़-घोड़ा लेकर जक्सीलिक़ अपने घर चला गया।
जक्सीलिक़ को जंगल की झोपड़ी में गये काफ़ी समय बीत गया। एक बार उसकी भेंट फिर जमनदिक़ से हो गयी।
जमनदिक़ भिखारी जैसा दिख रहा था। वह फटा-पुराना चोंगा और वैसी ही फटी हुई टोपी पहने हुआ था, जिसमें हर दिशा में गंदी रूई के चिथड़े निकले हुए थे।
”औह जक्सीलिक़, मैंने तब तुम्हारे साथ बहुत बुरा किया!” जमनदिक़ ने कहा। ”पर सब उल्टा ही हुआ, तुम खुद देख रहे हो। मुझे बताओ, जक्सीलिक़, तुम इतने मालदार कैसे हो गये? क्या मैं भी ऐसा हो सकता हूँ?”
जक्सीलिक़ ने उसे सब सिलसिलेवार सुना दिया: कैसे वह झोंपड़ी में पहुँचा, कैसे उसने लोमड़ी, भेडि़ये और शेर की बातचीत सुनी और उसके बाद उसने क्या किया।
”ठीक है, अपनी कि़स्मत आजमाओ,” अंत में जक्सीलिक़ ने कहा। ”लेकिन तुम्हें चेतावनी दिये देता हूँ: झोंपड़ी में पहुँचकर बहुत होशियार रहना। अगर देग में मांस पक रहा हो, तो तुम उसे खाओ नहीं। केवल उंगली डूबोकर चख लेना। फिर छत पर चढ़कर वहॉं तब तक लेटे रहना, जब तक कि झोंपड़ी के वासी आ न जायें और जब वे आपस में बातचीत करने लगें, तुम ध्यानपूर्वक सुनकर याद कर लेना।”
जमनदिक़ ने बिना एक क्षण की देर किये जक्सीलिक़ से विदा ली और जंगल को चल दिया। उसने झोंपड़ी जल्दी ढूंढ ली, उसमें घुसा और उसने वहां सब वैसा ही पाया, जैसा कि जक्सीलिक़ ने बताया था।
झोंपड़ी के बीचोंबीच चलते अलाव पर बड़ा-सा देग रखा था और देग में गोश्त पक रहा था। थका हुआ और भूखा जमनदिक़ यह देखकर बहुत खुश हुआ कि झोंपड़ी में कोई नहीं है।
”झोंपड़ी के मालिक आस-पास कहीं है ही नहीं, इसलिए उन्हें कुछ पता नहीं चलेगा,”
जमनदिक़ ने सोचा और देग के पास जाकर बेठ गया। उसने चरबीदार मांस के कुछ कतले निकालकर जल्दी से खा लिये और सुस्ताने के लिए झोंपड़ी की छत पर जा चढ़ा।
जमनदिक़ भरपेट खाने के बाद ऊंघने भी न पाया था कि भेडि़या व लोमड़ी झोंपड़ी में आ पहुँचे। लोमड़ी ने देग पर नज़र डाली और लगी चिल्लाने:
”हाय, हाय, हमारा खाना कोई खा गया!”
भेडि़या लोमड़ी को शांत करने लगा:
”हमारा खाना कौन खा सकता है! खुद ही सोचो: हमारी झोंपड़ी ही इतने घने जंगल में है कि हम खुद बड़ी मुश्किल से रास्ता ढूंढ़ पाते हैं। तुम बेकार ऐसा सोचती हो।”
”नहीं, नहीं, इस बार मुझे कोई धोखा नहीं दे सकता! तुम इधर देखो, इधर! देग में टखने की हड्डी है? नहीं है! छाती का गोश्त भी गायब है। मैं अभी सो जाती हूँ,” चालाक लोमड़ी बोली, ”और सपने में मुझे दिखाई दे जायेगा कि हमारी झोंपड़ी में कौन आया था।”
लोमड़ी पापलर की डाल पर लेटकर धीरे-धीरे खर्राटे लेने लगी, जैसे सचमुच सो रही हो, जब कि जमनदिक़ छत पर मृतप्राय लेटा रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। वह अपने आपको खाने का लोभ संवरण न कर पाने के लिए कोस रहा था।
लोमड़ी जागकर बोली:
”सुनो, दोस्त, हमारी छत पर कोई है। कहीं हमारा खाना उसी ने तो नहीं खाया है?”
लोमड़ी और भेडि़या लपककर छत पर चढ़ गये और वहां उन्होंने जमनदिक़ को देखा। वे उसे नीचे घसीट लाये और आधा-आधा बांटकर खा गये।
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