महाराज कृष्णदेव राय आमोद प्रिय व्यक्ति थे। उल्लास के सामान्य अवसरों पर भी महाराज उत्सव मनाते थे। उनके इस स्वभाव के कारण विजयनगरवासी प्रसन्न रहा करते थे। कहा भी गया है – जैसा राजा, वैसी प्रजा।
एक बार, नव वर्ष के शुभागमन पर महाराज कृष्णदेव राय ने अपने मित्रों को बुलावा भेजा। महाराज की इच्छा थी कि इस बार नववर्ष समारोहपूर्वक मनाया जाए। समारोह में उन्होंने पड़ोसी राज्यों के नरेशों को भी आमंत्रण भेजा। नववर्ष के अवसर पर होने वाले समारोह में राज्य भर के कलाकारों को अपनी कला के प्रदर्शन का अवसर देने का निश्चय कर महाराज ने वैसी व्यवस्था भी करवा ली।
समारोह के लिए अतिथियों का आना प्रारम्भ हो गया। पड़ोसी राज्यों के दो नरेश समारोह के दो दिन पहले ही पहुँच चुके थे। महाराज ने इन दोनों नरेशों को अतिथिशाला में नहीं ठहराया बल्कि उन दोनों नरेशों के लिए राजमहल के ही दो कक्षों को सजाया गया था। दोनों नरेश उन्हीं कक्षों में ठहरे थे। इनमें से एक नरेश का नाम था- प्रसेनजित तथा दूसरे का नाम था – वज्रबाहू! महाराज कृष्णदेव राय का बचपन इन दोनों के साथ व्यतीत हुआ था। गुरुकुल के दिनों में महाराज कृष्णदेव राय के साथ ही इन दोनों ने शिक्षा ग्रहण की थी। एक ही गुरुकुल, एक ही गुरु।
अतिथि-प्रेमी होने के कारण महाराज कृष्णदेव राय ऐसे भी अपने महल में आने वालों का खूब सत्कार किया करते थे। अब जब उनके दो बाल-सखा पधारे हों तो उनके स्वागत-सत्कार में कोई कमी कैसे रह सकती थी! महाराज लगातार अपने इन दोनों अतिथियों के पास ही बने रहते। कभी मित्रों के साथ चैसर खेलते तो कभी घुड़सवारी के लिए निकल जाते।
दो दिन ऐसे ही बीत गए। नववर्ष समारोह का दिन आ गया। पिछले दो दिनों तक अपने मित्रों की आवभगत में लगे रहने के कारण महाराज को इस बात का कोई ज्ञान नहीं था कि मुख्य सम समारोह की क्या तैयारियों हुई हैं और क्या बाकी हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि महाराज मुख्य आयोजन के सन्दर्भ में स्वयं कोई रुचि न दिखाएँ।
महाराज के विशिष्ट सभासद भी महाराज के इस आचरण से अचम्भित थे। जिस दिन नववर्ष का मुख्य समारोह आयोजित होनेवाला था, उस दिन प्रातःकाल में महाराज के मुख्य सभासदों और विश्वसनीय माने जाने वाले लोगों ने मिलकर तय किया कि आज वे लोग महाराज से मिलने महल में जाएँगे तथा महाराज से आग्रह करेंगे कि वे समारोह की तैयारियों देख लें।
सुबह महाराज अभी बिस्तर से उठे ही थे कि उन्हें प्रहरी ने सूचना दी कि महाराज से मिलने के लिए सभासदों का विशिष्ट मंडल आया हुआ है। महाराज ने प्रहरी को निर्देश दिया कि वह उन लोगों को बाह्री कक्ष में बैठाए और प्रतीक्षा करने के लिए कहे।
थोड़ी ही देर के बाद महाराज कृष्णदेव राय अपने कपड़े बदलकर वहाँ पहुँच गए जहाँ उनकी प्रतीक्षा में सभासद बैठे हुए थे। इन सभासदों में तेनाली राम भी था।
महाराज को सभी सभासदों ने समारोह की तैयारियों के विषय में जानकारियों दीं और उन्हें समारोह स्थल पर चलने को कहा।
अभी महाराज अपने सभासदों की बातों का कोई उत्तर भी नहीं दे पाए थे कि महाराज के भवन में आतिथ्य प्राप्त कर रहे उनके मित्रा प्रसेनजित ने कक्ष में प्रवेश किया।
एक ऐसे कक्ष में जहाँ कोई राजा अपने विशिष्ट सभासदों के साथ विचार-विमर्श या मंत्राण कर रहा हो वहाँ इस प्रकार बिना सूचना दिए प्रवेश कर जाना अशिष्टता समझी जाती थी। सभासद चैंक पड़े और प्रश्नसूचक दृष्टि से प्रसेनजित की ओर देखने लगे।
महाराज ने भाँप लिया कि कक्ष में इस तरह प्रसेनजित का आना सभासदों को पसन्द नहीं आया। इसे उनके राज्य में, स्वयं उनके महल में अशिष्टता माना जाता है। लेकिन प्रसेनजित को वे कुछ कह भी नहीं सकते थे। बात बिगड़े नहीं इसलिए उन्होंने मुखर होते हुए कहा, “आओ भाई प्रसेनजित, अपना आसन सँभालो। ये लोग मेरे विशिष्ट सलाहकार हैं और आज नववर्ष समारोह के कार्यक्रम तय करने पधारे हैं।” थोड़ी देर चुप रहने के बाद महाराज ने अपने सभासदों से कहा, “और ये हैं-प्रसेनजित! कलिंग के महाराजा। मेरे गुरु-भाई और बाल-सखा।”
तेनाली राम ने देखा कि प्रसेनजित की चाल में एक दर्प है। महाराज द्वारा परिचय दिए जाने पर जब सभासदों ने उसका अभिवादन किया तो प्रसेनजित ने अपनी गर्दन अकड़ा ली और उसे हलका-सा हिलाकर अभिवादन स्वीकार किया। तेनाली राम ने उसकी मुद्रा देखकर मन-ही-मन कहा-अरे! यह तो बड़ा दम्भी है।
प्रसेनजित ने सभासदों की उपेक्षा करते हुए महाराज कृष्णदेव राय से पूछा, “अरे कृष्णदेव! यह सुबह-सुबह दरबार लगाकर क्यों बैठ गए? समारोह की तैयारी देखना कब से राजाओं का कार्य हो गया? क्या तुम्हारे राज्य में ऐसे योग्यजनों का अभाव है जो समारोह की तैयारी कर सकें?”
महाराज कृष्णदेव राय ने झेंपते हुए अपने सभासदों से कहा, “आप लोग सक्षम हैं। जो भी आवश्यक लगे, कर लें। हम लोग समारोह देखने के लिए पहुँचेंगे।”
महाराज की झेंप को तेनाली राम ने भाँप लिया। वह समझ गया कि सभासदों के समक्ष प्रसेनजित का यह व्यवहार महाराज को भी अनुकूल नहीं लगा। मन-ही-मन तेनाली राम ने प्रसेनजित के आचरण की समीक्षा की और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह व्यक्ति भले ही राजा हो मगर है अशिष्ट। इसे सामान्य लोक-व्यवहार की भी समझ नहीं है।
अन्ततः महाराज के बिना ही सभी सभासद उठकर समारोह-स्थल की ओर प्रस्थान कर गए। जिस समय वे लोग कक्ष से बाहर जा रहे थे उसी समय प्रसेनजित ने सभासदों को सम्बोधित करते हुए कहा, “कुछ कार्य तुम लोग स्वयं कर लिया करो। आयोजन की व्यवस्था करना या उसका निरीक्षण करना राजाओं का कार्य नहीं होता।”
प्रसेनजित द्वारा आदेशात्मक स्वर में कही गई यह बात किसी भी सभासद को पसन्द नहीं आई। वर्षों से वे महाराज कृष्णदेव राय की सेवा में हैं। कभी भी महाराज ने उनसे इस शैली में बातें नहीं कीं। वे सभी मन-ही-मन प्रसेनजित को कोसते हुए कक्ष से बाहर हो गए। नववर्ष का रंगारंग कार्यक्रम शुरू हो चुका था। एक के बाद एक मंच पर कलाकार आते, अपनी कला का प्रदर्शन करते और लौट जाते। पहले बाल कलाकारों को कला प्रदर्शन का अवसर दिया गया, फिर पुरुष कलाकारों को और अन्त में महिला कलाकारों को। महिला कलाकारों में एक से बढ़कर एक नृत्यांगनाएँ मंच पर आती रहीं। नृत्य प्रस्तुत कर जाती रहीं।
तेनाली राम ने देखा कि दर्शकों की अगली पाँत में महाराज के साथ बैठा प्रसेनजित महिला कलाकारों की ओर बहुत ही लोलुप-ष्टि से देख रहा है। उसकी दृष्टि में छिपे अश्लील भाव को पहचानकर मन-ही-मन तेनाली राम क्षुब्ध हो उठा कि महाराज ऐसे व्यक्ति को अपना बाल-सखा कहते नहीं अघाते मगर तेनाली राम अपने स्थान पर बने रहने के लिए बाध्य था। इस अशिष्ट व्यक्ति को दंडित करने का अधिकार तो उसे कतई नहीं था। मगर प्रसेनजित के प्रति उसके मन में वितृष्णा का भाव अवश्य गहरा गया था।
मध्य रात्रि तक समारोह चलता रहा। समारोह के समापन के बाद महाराज अपने मित्रों के साथ भवन में चले गए।
सभासदों को घोर विस्मय हुआ कि महाराज ने अन्य अतिथियों से यह भी नहीं पूछा कि उन्हें समारोह में आनन्द आया या नहीं। ‘शुभ रात्रि’ कहने की औपचारिकता भी उन्होंने नहीं निभाई। तेनाली राम को महाराज के व्यवहार में आया यह परिवर्तन पसन्द नहीं आया। महाराज कृष्णदेव के दरबार में उसकी हैसियत मात्र एक विदूषक की थी। वह संशय में था कि महाराज को उनके आचरण में उत्पन्न हो रहे दोष के प्रति कैसे सचेत करे।
नववर्ष का समारोह सम्पन्न हो चुका था। अतिथि वापस लौट चुके थे। किन्तु महाराज राजकाज की सामान्य दिनचर्या में भाग नहीं ले रहे थे। कुछ आवश्यक होता तो सम्बन्धित कर्मचारी को राजभवन में बुलाकर ही निर्देश दे देते और फिर अपने दोनों मित्रों के साथ या तो चैसर खेलने में व्यस्त हो जाते या शिकार करने निकल जाते।
एक दिन उन्होंने किसी कार्यवश तेनाली राम को राजभवन में बुलवाया। जो निर्देश देना था, दिए। जो बातें करनी थीं, कीं। अवसर देखकर तेनाली राम ने महाराज से कहा, “महाराज, बादल यदि बरसना बन्द कर दे तो धरती उर्वर नहीं रहती। हवा यदि बहना बन्द कर दे, सूर्य यदि चमकना बन्द कर दे तब प्रकृति का विनाश अवश्यम्भावी है। हवा, बादल, सूरज जिस तरह अपने कर्तव्य में सतत निमग्न रहते हैं उसी तरह प्रजापालक राजा को भी अपने कर्तव्य में लगा रहना चाहिए!”
महाराज कृष्णदेव राय चैंके। उन्होंने तेनाली राम की ओर प्रश्नसूचक – दृष्टि से देखा। किसी राजा के इस तरह देखने का अर्थ होता है- अवश्यम्भावी दंड! मगर तेनाली राम के चेहरे पर रंचमात्रा भी भय नहीं था।
महाराज ने कुपित स्वर में पूछा, “तुम्हारे कहने का आशय क्या है, तेनाली राम?”
“महाराज! आप अन्नदाता हैं। मेरी विनती है कि आप मेरे और विजयनगरवासियों के अन्नदाता बने रहें।”
महाराज कृष्णदेव राय की तनी भृकुटियों का तनाव तेनाली राम का उत्तर सुनकर थोड़ा कम हुआ किन्तु तेनाली राम के कथन के निहितार्थ को समझते हुए वे उद्वेलित हो गए थे। उन्होंने आवेश-भरे स्वर में पूछा, “तुम्हें क्या लगता है, मैं अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर रहा? राजकाज में व्यस्त रहना मात्र ही मेरी दिनचर्या होनी चाहिए? मेरे दो अभिन्न मित्र वर्षों बाद मिले हैं… मेरा उनके प्रति भी तो कुछ कर्तव्य है!”
तेनाली राम ने उनकी ओर विस्मय-भरी दृष्टि से देखा और अनायास उसके मुँह से निकला, “अभिन्न मित्र ?”
“क्यों, तुम्हें कोई सन्देह है?” महाराज ने पूछा।
तेनाली राम मौन उनकी ओर देखता रहा।
“बोलो तेनाली राम, बोलते क्यों नहीं? बताओ कि ये दोनों मेरे मित्रा हैं या नहीं? फिर इनके प्रति मेरा कोई दायित्व है या नहीं?”
“मित्र?” तेनाली राम ने महाराज की ओर फिर से प्रश्नात्मक दृष्टि डाली।
तेनाली राम की प्रश्नात्मक-दृष्टि से महाराज विचलित हो गए और संशययुक्त वाणी में तेनाली राम से पूछने लगे, “बताओ तेनाली राम! क्या ये दोनों मेरे मित्र नहीं हैं? क्या तुम्हें इनकी मित्रता पर सन्देह है? क्या बात है, बिना डर के बोलो। तुम्हारे मन में इनके प्रति क्या धारणा है?”
महाराज के स्वर में जिज्ञासा थी। महाराज के बदले स्वर को सुनकर तेनाली राम के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि सत्ता कितने आडम्बर से अपना दर्पपूर्ण चेहरा बनाए रखती है किन्तु सच का एक झोंका उसे जड़ से हिला देता है। यही महाराज कृष्णदेव राय अभी दो क्षण पहले अपनी मित्रता की बखान करते हुए अपने मित्रों के प्रति अपने कर्तव्य का उल्लेख कर रहे थे और अब वही महाराज कृष्णदेव राय संशययुक्त मन से पूछ रहे हैं, ‘क्या वे मित्रा नहीं हैं?’ तेनाली राम ने स्थिति अनुकूल पाते हुए उसका लाभ उठाया और बोला, “महाराज! मित्र-अमित्र की पहचान मैंने नहीं की हैं किन्तु यदि आप चाहें तो वह भी कर सकता हूँ।”
“हाँ, तेनाली राम! मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे बताओ कि इन दोनों में से मेरा सच्चा मित्र कौन हैं?” महाराज ने कहा। “तो ठीक है महाराज!” तेनाली राम ने विश्वास-भरी-दृष्टि से महाराज की आँखों में झाँकते हुए कहा, “आज रात्रि विश्राम मैं राजभवन में कर सकूँ, ऐसी व्यवस्था करा दें। मेरे ठहरने का प्रबन्ध अपने इन दोनों मित्रों के कक्ष के आसपास करा दें।”
महाराज मान गए।
शाम को तेनाली राम आया तो उसे महाराज के मित्र प्रसेनजित और बज्रबाहु के कक्षों के सामने के एक कक्ष में ठहरा दिया गया। तेनाली राम के राजभवन में ठहरने की सूचना गोपनीय रखी गई।
महाराज कृष्णदेव राय स्वयं एक बार तेनाली राम के कक्ष में आए। उन्होंने तेनाली राम से कहा, “कुछ चाहिए तो बताओ।”
“नहीं महाराज, मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस, आप इतना करें कि अपने मित्रों के कक्ष में ही रात्रि का भोजन भेजें। भोजन में ऐसे पकवान हों जिनमें अच्छी सुगन्ध हो। सुस्वादु पकवानों से भरे थाल जब आप अपने मित्रों के कक्ष में भिजवा दें तब तुरन्त यह समाचार फैला दें कि आपका स्वास्थ्य अचानक बहुत खराब हो गया है। बाकी बातें हम लोग बाद में करेंगे।” तेनाली राम ने कहा।
“लेकिन इससे होगा क्या?” महाराज ने पूछा।
“यही तो देखना है महाराज!” तेनाली राम ने कहा।
“तुम्हारी बातें मुझे समझ में नहीं आ रही हैं तेनाली राम!” महाराज ने जिज्ञासा-भरे स्वर्राटे में कहा।
“सुबह तक प्रतीक्षा करें महाराज!” तेनाली राम ने महाराज को यह कहते हुए आश्वस्त किया।
रात्रि के भोजन का समय था। राजभवन में अतिथि के रूप में रह रहे प्रसेनजित और वज्रबाहु के कक्ष में भोजन लाकर रखा गया था। भोजन से भूख जगाने वाली सुगन्ध उठ रही थी जिससे आसपास का वातावरण महमहा उठा था। प्रसेनजित और वज्रबाहु अभी भोजन करने के लिए उद्यत हुए ही थे कि दो प्रहरी दौड़ते हुए आए और बोले, “महाराज का स्वास्थ्य बहुत खराब है। राजवैद्य उनकी शुश्रूषा में लगे हैं मगर उनकी स्थिति खराब होती ही जा रही है।”
यह सूचना देकर दोनों प्रहरी लौट गए। वज्रबाहु तत्काल भोजन की थाल से उठ गए और अपना हाथ अंगवस्त्राम् से पोंछते हुए महाराज के कक्ष की ओर दौड़ पड़े, जबकि प्रसेनजित ने जी-भर के भोजन किया और थोड़ी देर लेटने के बाद वह महाराज के कक्ष की ओर गया।
तेनाली राम ने दोनों के जाने के बाद उनके कक्षों में जाकर भोजन की थाल में भोजन की स्थिति देखी। प्रसेनजित की थाल रिक्त हो चुकी थी जबकि वज्रबाहु की थाल में भोजन ज्यों का त्यों था। एक निवाला तैयार था, जैसे उसे हाथ में उठाकर फिर से थाल में रख दिया गया हो !
सुबह तक राजवैद्य भवन में रहे। सूर्योदय से पहले ही महाराज स्वस्थ हो गए।
तेनाली राम महाराज के कक्ष में उन्हें देखने के बहाने पहुँचा।
उसे देखकर महाराज ने पूछा, “क्यों तेनाली राम! आज मेरे प्रश्न का उत्तर तो दे दोगे?”
“आज नहीं, अभी महाराज!” तेनाली राम ने मुस्कुराते हुए कहा।
“हाँ, बताओ तेनाली राम, मेरा मित्र इन दोनों में से कौन है? या दोनों ही हैं? या दोनों में से कोई नहीं, संशयमुक्त होकर बताओ।” महाराज ने पुनः तेनाली राम से पूछा।
तेनाली राम ने महाराज की ओर देखते हुए कहा, “महाराज! आपका सच्चा मित्रा वज्रबाहु है, प्रसेनजित नहीं।” फिर तेनाली राम ने महाराज के अस्वस्थ होने के बाद की घटना बता दी कि मित्रा का स्वास्थ्य खराब होने की सूचना से उद्वेलित होकर किस तरह वज्रबाहु भोजन छोड़कर महाराज के शयन कक्ष की ओर दौड़ पड़ा और प्रसेनजित ने किस तरह भोजन करने के बाद विश्राम किया और तब अपने कक्ष से निकला।
तेनाली राम से पूरा वृत्तान्त जानने के बाद महाराज ने उसे अपने गले से लगा लिया और कहा, “भविष्य में भी तुम मेरे आचरण पर दृष्टि रखना। यदि कभी मैं कर्तव्यविमुख होता दिखें तो इस बात की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट करने के लिए जो भी उचित जान पड़े, करना।”
उस दिन से ही महाराज कृष्णदेव राय पहले की भाँति दरबार में जाने लगे। महाराज को सक्रिय और सजग देखकर सभासदों में भी उत्साह पैदा हो गया और विजयनगर में पैदा हुई उदासीनता समाप्त हो गई।
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