लालच बुरी बला! – चार ब्राह्मण-पुत्र की पंचतंत्र कहानी!

Lalach Buri Bala Hai Panchtantra Story in Hindi with Moral
Lalach Buri Bala Hai Panchtantra Story in Hindi with Moral

अतिलोभो न कर्तव्यो लोभं नैव परित्यजेत् ।
अतिलोभाऽभिभूतस्य चक्रं भ्रमति मस्तके॥

धन के अति लोभ से मनुष्य धन-संचय के चक्र में ऐसा फँस जाता है, जो केवल कष्ट ही कष्ट देता है।

एक नगर में चार ब्राह्मण-पुत्र रहते थे। चारों में गहरी मैत्री थी। चारों ही निर्धन थे। निर्धनता को दूर करने के लिए चारों चिन्तित थे। उन्होंने अनुभव कर लिया था कि अपने बन्धु-बान्धवों में धनहीन जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा शेर-हाथियों से भरे कंटीले जंगल में रहना अच्छा है। निर्धन व्यक्ति को सब अनादर की दृष्टि से देखते हैं, बन्धु-बान्धव भी उससे किनारा कर लेते हैं, अपने ही पुत्र पौत्र भी उससे मुख मोड़ लेते हैं। पत्नी भी उससे विरक्त हो जाती है। मनुष्यलोक में धन के बिना न यश सम्भव है, न सुख। धन हो तो कायर भी वीर हो जाता है, कुरूप भी सुरूप कहलाता है और मूर्ख भी पण्डित बन जाता है।

यह सोचकर उन्होंने धन कमाने के लिए किसी दूसरे देश को जाने का निश्चय किया। अपने बन्धु बान्धवों को छोड़ा, अपनी जन्मभूमि से विदा ली और विदेश यात्रा के लिए चल पड़े। चलते-चलते क्षिप्रा नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ नदी के शीतल जल में स्नान करने के बाद महाकाल को प्रणाम किया। थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें एक जटाजूटधारी योगी दिखाई दिए। इन योगिराज का नाम भैरवानन्द था। योगिराज इन चारों नौजवान ब्राह्मणपुत्रों को अपने आश्रम में ले गए और उनसे प्रवास का प्रयोजन पूछा।

चारों ने कहा-हम अर्थसिद्धि के लिए यात्री बने हैं। धनोपार्जन ही हमारा लक्ष्य है। अब या तो धन कमाकर ही लौटेंगे या मृत्यु का स्वागत करेंगे। इस धनहीन जीवन से मृत्यु ही अच्छी है।

योगिराज ने उनके निश्चय की परीक्षा के लिए जब कहा कि धनवान् बनना तो दैव के अधीन है, तब उन्होंने उत्तर दिया- यह सच है कि भाग्य ही पुरुष को धनी बनाता है, किन्तु साहसिक पुरुष भी अवसर का लाभ उठाकर अपने भाग्य का बदला लेते हैं। पुरुष का पौरुष कभी-कभी दैव से भी अधिक बलवान् हो जाता है। इसलिए आप हमें भाग्य का नाम लेकर निरुत्साह न करें। हमने अब धनोपार्जन का प्रण पूरा करके ही लौटने का निश्चय किया है। आप अनेक सिद्धियों को जानते हैं। आप चाहें तो हमें सहायता दे सकते हैं। हमारा पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं। योगी होने के कारण आपके पास महती शक्तियाँ हैं। हमारा निश्चय भी महान है। महान ही महान की सहायता करता है।

भैरवानन्द को उनकी दृढ़ता देखकर प्रसन्नता हुई। प्रसन्न होकर धन कमाने का रास्ता बतलाते हुए उन्होंने कहा- तुम हाथों में दीपक लेकर हिमालय पर्वत की ओर जाओ। वहाँ जाते-जाते जब तुम्हारे हाथ का दीपक नीचे गिर पड़े तो ठहर जाओ। जिस स्थान पर दीपक गिरे उसे खोदो। वहीं तुम्हें धन मिलेगा। धन लेकर वापस चले आओ।

चारों युवक हाथों में दीपक लेकर चल पड़े। कुछ दूर जाने के बाद उनमें से एक के हाथ का दीपक भूमि पर गिर पड़ा। उस भूमि को खोदने पर उन्हें ताम्रमयी भूमि मिली। वह ताँबे की खान थी। उसने कहा- यहाँ जितना चाहो, ताँबा ले लो। अन्य युवक बोले-मूर्ख ! ताँबे से दरिद्रता दूर नहीं होगी। हम आगे बढ़ेंगे। आगे इससे अधिक मूल्य की वस्तु मिलेगी। उसने कहा- तुम आगे जाओ, मैं तो यहीं रहूँगा। यह कहकर उसने यथेष्ट ताँबा लिया और घर लौट आया।

शेष तीनों मित्र आगे बढ़े। कुछ दूर जाने के बाद उनमें से एक के हाथ का दीपक ज़मीन पर गिर पड़ा। उसने ज़मीन खोदी तो चाँदी की खान पाई। प्रसन्न होकर बोला- यहाँ जितनी चाहो चाँदी ले लो, आगे मत जाओ ।

शेष दो मित्र बोले- पीछे ताँबे की खान मिली थी। यहाँ चाँदी की खान मिली है; निश्चय ही आगे सोने की खान मिलेगी। इसलिए हम तो आगे ही बढ़ेंगे। यह कहकर दोनों मित्र आगे बढ़ गए।

उन दो में से एक के हाथ से फिर दीपक गिर गया, खोदने पर उसे सोने की खान मिल गई। उसने कहा- यहाँ जितना चाहो सोना ले लो। हमारी दरिद्रता का अन्त हो जाएगा। सोने से उत्तम कौन-सी चीज़ है। आओ, सोने की खान से यथेष्ट सोना खोद लें और घर ले चलें। उसके मित्र ने उत्तर दिया – मूर्ख! पहले ताँबा मिला था, फिर चाँदी मिली, अब सोना मिला है; निश्चय ही आगे रत्नों की खान होगी। सोने की खान छोड़ दे और आगे चल । किन्तु वह न माना। उसने कहा- मैं सोना लेकर ही चला जाऊँगा, तुझे आगे जाना हो तो जा।

अब वह चौथा युवक एकाकी आगे बढ़ा। रास्ता बड़ा विकट था। काँटों से उसके पैर छलनी हो गए। बर्फीले रास्तों पर चलते-चलते शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया, किन्तु वह आगे ही आगे बढ़ता गया।

बहुत दूर जाने के बाद उसे एक मनुष्य मिला, जिसका सारा शरीर खून से लथपथ था और जिसके मस्तक पर चक्र घूम रहा था। उसके पास जाकर चौथा युवक बोला—तुम कौन हो? तुम्हारे मस्तक पर चक्र क्यों घूम रहा है? यहाँ कहीं जलाशय हो तो बतलाओ, मुझे प्यास लगी है। यह कहते ही उसके मस्तक का चक्र उतरकर ब्राह्मण युवक के मस्तक पर लग गया। युवक के आश्चर्य की सीमा न रही। उसने कष्ट से कराहते हुए पूछा- यह क्या हुआ? यह चक्र तुम्हारे मस्तक से छूटकर मेरे मस्तक पर क्यों लग गया।

अजनबी मनुष्य ने उत्तर दिया- मेरे मस्तक पर भी यह इसी तरह अचानक लग गया था। अब यह तुम्हारे मस्तक से तभी उतरेगा जब कोई व्यक्ति धन के लोभ में घूमता हुआ यहाँ तक पहुँचेगा और तुमसे बात करेगा।

युवक ने पूछा- यह कब होगा?

अजनबी- अब कौन राजा राज्य कर रहा है?

युवक- वीणा वत्सराज।

अजनबी- मुझे काल का ज्ञान नहीं। मैं राजा राम के राज्य में दरिद्र हुआ था और सिद्धि का दीपक लेकर यहाँ तक पहुंचा था। मैंने भी एक और मनुष्य से यही प्रश्न किए थे, जो तुमने मुझसे किए हैं।

युवक- किन्तु इतने समय में तुम्हें भोजन व जल कैसे मिलता रहा?

अजनवी – यह चक्र धन के अति लोभ पुरुष के लिए बना है। इस चक्र के मस्तक पर लगने के बाद मनुष्य को भूख-प्यास, नींद, जरा-मरण आदि नहीं सताते, केवल चक्र घूमने का कष्ट ही सताता रहता है। यह व्यक्ति अनन्त काल तक कष्ट भोगता है।

यह कहकर वह चला गया और वह अति लोभी ब्राह्मण युवक कष्ट भोगने के लिए वहीं रह गया। थोड़ी देर बाद खून से लथपथ हुआ वह इधर-उधर घूमते-घूमते उस मित्र के पास पहुँचा जिसे स्वर्ण की सिद्धि हुई थी, और जो अब स्वर्णकण बटोर रहा था। उससे चक्रधर ब्राह्मण-युवक ने सब वृत्तान्त कह सुनाया।

स्वर्ण-सिद्धि युवक ने चक्रधर युवक को कहा कि मैंने तुझे आगे जाने से रोका था तूने अब मेरा कहना नहीं माना। बात यह है कि तुझे ब्राह्मण होने के कारण विद्या तो मिल गई, कुलीनता भी मिली; किन्तु भले-बुरे को परखनेवाली बुद्धि नहीं मिली। विद्या की अपेक्षा बुद्धि का स्थान ऊँचा है। विद्या होते हुए जिनके पास बुद्धि नहीं होती, वे हिंसकारकों की तरह नष्ट हो जाते हैं।

चक्रधर ने पूछा- किन हिंसकारकों की तरह?

स्वर्ण-सिद्धि ने तब अगली कथा सुनाई:- वैज्ञानिक मूर्ख!

आगें पढें:- वैज्ञानिक मूर्ख!

पढ़ें:- सभी पंचतंत्र की प्रेरक कहानियां


Lalach Buri Bala Hai Panchtantra Story in Hindi with Moral, Pancham Tantra Apariksitakarakam, Pandit Vishnu Sharma – Panchtantra Short Stories With Moral for Kids in Hindi, Panchtantra Ki Prernadayak Kahaniyan Bacchon Ke Liye

error: Content is protected !!