कैसे आचार्य चाणक्‍य ने चंद्रगुप्‍त मौर्य की जान बचाई।

ईश्‍वर से क्या मांगे

एक जंगल में एक महात्‍मा जी रहते थे। वह अपना संपूर्ण समय ईश्‍वर की आराधना में लगाते। उनके पास उनका शिष्‍य आया और उसने महात्‍मा जी से जानना चाहा, अगर मुझे ईश्‍वर मिल जाये तो मुझे उनसे क्‍या मागना चाहिए।

महात्‍मा जी ने कहा- परमार्थ का धन।

फिर शिष्‍य ने पूछा- अगर ईश्‍वर ने इसके लिए अतिरिक्‍त कोई वस्‍तु मांगने को कहा जब?

महात्‍मा जी ने कहा- अपने पसीने के श्रम की कमाई।

शिष्‍य ने पूछा- तीसरी वस्‍तु।

महात्‍मा जी ने कहा- उदारता।

चौथी वस्‍तु- शर्म।

पांचवी वस्‍तु- अच्‍छा स्‍वभाव।

इसके अलावा कुछ और मांगने को कहने पर महात्‍माजी ने क्‍या उत्‍तर दिया?

महात्‍मा जी ने कहा कि जिस बंदे को परमार्थ का धन, अपने पसीने की आय, उदारता, शर्म और अच्‍छा स्‍वभाव प्राप्‍त हो जाये तो उसके लिये और मांगने को कुछ भी नहीं बचेगा।

यही जीवन में आनंद का मार्ग है।


आचार्य चाणक्‍य

महाराज चंद्रगुप्‍त मौर्य आचार्य चाणक्‍य के साथ जो मौर्य साम्राज्‍य के महामंत्री थे, परामर्श कर रहे थे। उसी समय प्रधान शिल्‍पकार, जिनके द्वारा माराज चंद्रगुप्‍त मौर्य के राजमहल का निर्माण किया जा रहा था, राजमहल में उपस्थित हुआ। यह शिल्‍पकार यूनान का था। उसने महाराज से कहा कि कृपया आप अपने नवनिर्मित राजमहल का निरीक्षण करने की कृपा करें। पाटलीपुत्र में यवन शैली का यह पहला राजमहल बन रहा था और निर्माण कार्य के समय साम्राज्‍य के किसी भी व्‍यक्ति का प्रवेश निषेध था।

थोड़ी देर में महाराज अपने समस्‍त वज़ीरों के साथ वहॉं पहुंच गये। तभी चाणक्‍य ने देखा कि कुछ चीटियां निरंतर कच्‍चे चावल लिये एक छेद से निकल कर वाटिका की तरफ जा रही है। यह देखकर आचार्य चाणक्‍य वहीं रूक गये और आदेश दिया कि महाराज जिस द्वार से आये हैं तुरंत बाहर निकल जायें।

शिल्‍पकार ने बड़ी विनय मुद्र में कहा कि महाराज, क्‍या मुझसे कोई गलती हुई है। महाराज ने कहा कि गलती मुझये हुई है कि हम बिना गृह पूजन किये हुये महल में प्रवेश कर रहे हैं जो उचित नहीं है। तुरंत पूजा के लिए राजपुरोहित को बुलाया गया। राजपुरोहित ने कहा कि भवन-पूजन से पहले भवन को रिक्‍त करना होगा।

शिल्‍पकार बहुत दु:खी हुआ और उसने कहा कि केवल एक बार प्रवेश कर निरीक्षण कर लिया जाये। तब चाणक्‍य ने कहा कि एक उपाय है। इस महल में हाथी प्रवेश कराया जाये। यह सुन कर शिल्‍पकार को बहुत खराब लगा। तभी आचार्य ने निर्देश दिये कि शिल्‍पकार को बंदी बना लिया जाये। जैसे ही हाथी ने अंदर प्रवेश किया, वह सतखण्‍डा विशाल राजमहल बालू की तरह गिर गया। यवनों के सैनिक जो वहां इसी बात की प्रतीक्षा कर रहे थे, कूद पड़े और घमासान युद्ध प्रारंभ हो गया। सारे भवन के सैनिक बंदी बना लिये गये और एक बार फिर आचार्य चाणक्‍य की बुद्धि व चतुरता से सम्राट चंद्रगुप्‍त मौर्य को जीवन दान मिला।

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