बहुत दिन हुए, किसी गांव में सीताराम नाम का एक सीधा-सादा आदमी रहता था। उसे पक्षियों से बड़ा प्रेम था। काम-धाम से छुट्टी पाने पर वह पालतू चिडि़यों के साथ मनोविनोद में समय बिताता था। उसका घर एक छोटा-मोटा चिडि़याघर ही था।
एक दिन सीताराम के दो साथियों ने किसी दूर के मेले में जाने का विचार किया। सीताराम भी एक पिंजरे में कुछ कबूतरों को लेकर उनके साथ जाने को तैयार हो गया। दोनों साथियों ने पूछा- भाई, इन कबूतरों को क्यों ले चल रहे हो? सीताराम ने कहा- मेले में बहुत से प्रेमी मित्र मिलेंगे, उन्हें एक-एक कबूतर भेंट करूंगा। मैं गरीब आदमी हूँ, इसके अतिरिक्त और क्या दूँ, कहां से दूँ! मित्रों से खाली हाथ मिलने में लज्जा आती है।
दोनों साथी उसकी बात सुनकर हंसने लगे। परंतु उनकी हंसी सीताराम के मन में नहीं धंसी। वह उनके साथ अपना पिंजरा लेकर चल पड़ा। मेले का स्थान वहां से दूर था। बीच में एक पहाड़ी घाटी पड़ती थी। घाटी तक पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई। तीनों रात बिताने के लिए एक घने पेड़ के पीचे ठहर गए।
रात में कुछ डाकुओं ने उन्हें घेर लिया। उनके पास न तो अधिक रूपये-पैसे थे और न उपयोगी वस्तुएं ही थी। लूट में डाकुओं को लाभ नहीं हुआ, इसलिए उनके सरदार ने अपने साथियों से झुंझलाकर कहा- इस डाके में तो घाटा ही घाटा रहा, अब दन तीनों को पकड़कर हमारी गढ़ी में ले चलो और वहां इनसे मार-मारकर काम लो, बस, इसी प्रकार इनसे कुछ लाभ उठाया जा सकता है।
डाकू उन्हें पकड़कर गढ़ी ही ओर ले चले। सीताराम ने उस समय भी अपना पिंजरा नहीं छोड़ा। रास्त्े में उसके एक साथी ने धीरे से कहा- भाई, कहीं के न रहे, मेले के लिए निकले थे, अब तबेले की हवा खानी पड़ेगी।
दूसरा साथी भी बोला- क्या कहें, जो कुछ पास था, वह तो गया ही, दासता की बेड़ी अलग से पड़ गई। अकेले कैसे मन लगेगा, कैसे दिन कटेगा, कैसे रात कटेगी!!
उनकी बातें सुनकर सीताराम ने कहा- भाइयों, घबराते क्यों हो? साथ में मेरे पालतू कबूतर हैं? ये हमारे दुर्दिन के साथ होंगे। इनकी संगति में हमें अकेलेपन का कष्ट नहीं होगा।
दोनों साथियों ने अपने-अपने कान बंद कर लिए। थोड़ी देर में तीनों डाकुओं के दुर्ग में पहुंच गए। वहां डाकूराज ने उन्हें दूसरे दिन से काम में लगा दिया। सीताराम को तो तबेलों की सफाई का काम सौंपा गया और उसके साथियों को घोड़ों के लिए घास छीलने का। तीनों आपने-अपने काम में लग गए।
सीताराम दोपहर तक तो तबेले साफ करता रहा, उसके बाद जब खाने की छुट्टी मिली तो वह अपने पिंजरे को लेकर बैठ गया। बैठे-बैठे उसे एक बात सूझी। उसने पास में पड़े हुए एक सादे कागज के टुकड़े को उठाया और एक कांटे से अपनी उंगली में से कुछ खून निकाला। फिर एक सींक खून में डुबोकर उससे उस कागज पर कुछ लिखा। इसके उपरान्त उस कागज को लपेटकर एक कबूतर के पैर में बांध दिया। इतने ही में वहां डाकुओं का सरदार आ पहुंचा। उसने सीताराम को काम छोड़कर बैठे देखा और उसी क्षण क्रोध से पागल होकर उसके पिंजरे को पैर की ठोकर से दूर फेंक दिया। पिंजरे का दरवाजा पहले से ही खुला था। सारे कबूतर उसमें से निकलकर उड़ गए। डाकूराज ने सीताराम को मार-पीटकर फिर काम में लगा दिया।
रात में तीनों साथी इकट्ठे हुए। दो के मुंह तो लटके हुए थे, परंतु सीताराम प्रसन्न था। उन्होंने उससे प्रसन्नता का कारण पूछा। सीताराम बोला- आज मेरे साथी कबूतर यहां से चले गए।
उन दोनों ने पिंजरे को खाली देखकर फिर कहा- तब तो तुम्हारे प्राण-पखेरू ही उड़ गए। तुमने उन्हें क्यों विदा कर दिया? क्या तुम जीवन से निराश हो गए?
सीताराम ने उत्तर दिया- मित्रों, वे मेरे पुराने साथी थे। बस संकट में वे मेरे सहायक होंगे, इसीलिए मैंने उन्हें जान-बूझकर जाने दिया है। वे कुछ न कुछ करके रहेंगे।
दोनों साथियों ने इसे उस सनकी का प्रलाप समझा। वे चुप हो गए। रात में तीनों रूखा-सूखा खाकर डाकुओं की गढ़ी में ही सो गए। दूसरे दिन उन्हें पहले दिन की तरह अपने-अपने काम पर जाना पड़ा। दोपहर तक वे अपने काम में लगे रहे, उसके बाद उन्होंने देखा कि डाकुओं का दुर्ग चारों ओर से सशस्त्र सिपाहियों द्वारा घेर लिया गया है। देखते ही देखते चारों ओर से गोलियों की बौछार होने लगी और सिपाही लोग गढ़ी का फाटक तोड़कर भीतर घुस आए। उन्होंने एक-एक करके सब डाकुओं को पकड़ लिया।
किसी की समझ में यह बात नहीं आई कि अधिकारियों को डाकुओं के गुप्त निवास का पता कैसे चला। इतने ही में एक सिपाही ने सीताराम को पहचानकर कहा- तुम्हारा लड़का कल रात ही में तुम्हारी चिट्ठी थाने पर दे गया था।
इसे सुनते ही बंदी डाकूराज ने चौंककर पूछा- चिट्ठी यहां से गई कैसे?
सीताराम ने हंसकर कहा- श्रीमान् के पैर की एक ठोकर से।
इसके बाद उसने अपने साथियों को सारा हाल बताया। वास्तव में उसने चिट्ठी में डाकुओं की गढ़ी का पता लिखकर ही उसे कबूतर के पैर में बांधा था। कबूतर जब उसके घर पहुंचा तो घरवालों ने पर्चे को उसके पैर से खोलकर पढ़ा और थाने पर ले जाकर दे दिया।
सीताराम की कृपा से उनके साथियों ने छुटकारा पाकर कहा- समय पर छोटा साथी भी काम का होता है।
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