भय से अनर्थ होता है! मजेदार प्रेरणादायक लोक कथा

Bhaye Se Anarth Hota Hai Prernadayak Lok Katha Folk Tales in Hindi with Moral

प्राचीन काल में राजा ब्रह्मदत्त ने एक बहुत बड़ा बाग लगाया था। उसके बीच में राजा और रानियों के नहाने के लिए एक सुंदर सरोवर था। बाग की रक्षा का उत्तम प्रबंध किया गया था। कोई बाहरी आदमी उसके भीतर नहीं जा सकता था, लेकिन बंदर कूदते-फांदते पहुंच ही जाते थे। बाग के पेड़ों पर उन्‍हीका राज्‍य था।

एक दिन राजा की महारानी कई रानियों के साथ उस सरोवर में जल-विहार करने गई। तीर पर पहुंचकर सबने अपने-अपने गहने-कपड़े उतारकर एक बक्‍स में रखे और दासी की रखवाली के लिए बैठा दिया। इसके बाद वे निश्चिन्‍त होकर तालाव में उतर पड़ी और आनंद से स्‍नान करने लगीं। कई घण्‍टों तक किसीने पानी में से निकलने का नाम भी नहीं लिया। इधर बेचारी दासी बैठे-बैठे ऊबकर सो गई। पास के पेड़ पर बैठी हुई एक बंदरी बड़ी देर से यह सब देख रही थी। उसे मनचाहा मौका मिल गया। वह धीरे-धीरे उतरकर नीचे आई और बक्‍स में से महारानी का मोतियों का हार चुपचाप उठा ले गई। उसे पेड़ के ऊपर एक खोखले में छिपाकर वह स्‍वयं उसी पर बैठकर रखवाली करने लगी।

थोड़ी देर में दासी की आंख खुली। उसने देखा तो बक्‍स का सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा था और महारानी का अमूल्‍य हार वहां नहीं था। वह हक्‍की-बक्‍की होकर इधर-उधर ताकने लगी। हार को खोजकर बेचारी हार गई, लेकिन वह कहां से मिलता! अब दासी को यह भय हुआ कि सब उसीपर चोरी का संदेह करेंगे और उसी को इसका दण्‍ड भोगना पड़ेगा। इस परिस्थिति में वह क्‍या करती! अपने बचाव के लिए उसने यही उचित समझा कि चोरी का हल्‍ला कर दिया जाए, जिससे कि लोग समझें कि कोई दूसरा आदमी हार ले गया है। वह खड़ी होकर बड़े जोर से चिल्‍लाने लगी- चोर-चोर! पकड़ो-पकड़ो… महारानी का हार लेकर भागा जा रहा है!

बाग के सिपाही यह सुनते ही दौड़ पड़े। दासी उंगली से इशारा करके बोली- दौड़ो-दौड़ो, देखो उधर दीवाल फांदकर निकल गया।

सब सिपाही दासी की बताई हुई दिशा में आग की लपट की तरह लपके! हर एक चिल्‍लाता जाता था- पकड़ो, जाने न पाए।

संयोग से, उसी समय एक सीधा-सादा किसान खेत में काम करके अपने घर को जा रहा था। सिपाहियों को इस प्रकार अपनी ओर आते देखकर उसको शंका हुई कि सब उसी को पकड़ने आ रहे हैं। वह भय से घबराकर अपने घर की ओर भागा। उसे भागते देखकर सिपाहियों को सचमुच संदेह हो गया कि वही चोर है। उन्‍होंने किसान को खदेड़कर पकड़ लिया।

जांच-पड़ताल होने लगी। राजा के सिपाही तो उसे चोर मान ही चुके थे, अब इसी को उससे भी मनवाना था। सीधे पूछने पर उसने मां-बाप-बेटों-पुरखों और भगवान की शपथ लेकर अपने अपने को बराबर निर्दोष ही बताया। तब उसे धमकी दी गई। फिर भी उसने अपने को चोर नहीं माना। यह बात सिपाहियों को अच्‍छी नहीं लगी। वे उसे ज़मीन पर पटककर डण्‍डों और घूंसों से पीटते हुए बोले- अब देखते हैं, तू कैसे नहीं मानता, सही-सही चोरी की बात बता दे, नहीं तो जान से मार डालेंगे। वही हाल हुआ- ‘जीभ तो कहि भीतर गई, जूता खाता कपाल।’

किसान ने देखा कि बिना चोर बने प्राण नहीं बचेगा। वह चिल्‍लाता हुआ बोला- अब मत मारो, मैं सच-सच बताता हूँ, मैंने ही चोरी की है।

सिपाहियों ने उसे ठोक-पीटकर चोर बना दिया। उनका काम पूरा हो गया। उसे बांधकर वे राजा के सामने ले गए। राजा ने उनका बयान सुनकर किसान से पूछा- क्‍यों रे, तूने महारानी के हार की चोरी की है?

किसान धोखे में फंस चुका था। उसने सोचा कि ‘नही’ कहते ही फिर पीठ पर डंडे बरसने लगेंगे। इसलिए कुछ सोच-विचारकर वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला- हां, धर्मावतार! उसे मैंने ही चुराया है, लेकिन अपने लिए नहीं, दूसरे के लिए। आपके खजांची साहब ने मुझे इस काम के लिए भेजा था। उस हार को मैंने उनके कहने से उन्‍हीं के लिए चुराकर उन्‍हीं को दे दिया है। अब वह मेरे पास नहीं है। मैं गरीब उसको लेकर क्‍या करता!

कोषाध्‍यक्षजी वही खड़े सब सुन रहे थे। उन्‍हें ऐसा लगा मानो पीछे से किसी ने उनकी गर्दन पर छुरी चला दी। किसान का बयान सुनते ही राजा ने उनकी ओर घूरकर पूछा- क्‍यों कोषाध्‍यक्ष, तुमने ऐसा दुस्‍साहस किया है? महारानी का हार कहां है?

कोषाध्‍यक्ष के होश उड़ गए थे। उन्‍होंने सोचा कि एक दम इंकार करने से काम न चलेगा, क्‍योंकि राजा के मन में शंका उत्‍पन्‍न हो ही चुकी है, इसलिए वे भी बात बनाकर बोले- महाराज, किसान की बात सत्‍य है। मैंने उसे चोरी के लिए भेजा था, लेकिन मैं उस हार को अपने लिए नहीं चाहता था। आपके पुरोहितजी बहुत दिनों से उसके लिए ललचाए थे। कल उन्‍होनं मेरे यहां पूजा-पाठ करके दिक्षणा में वही हार मांगा, इसलिए मुझे चोरी करानी पड़ी। उसे मैं पुरोहितजी को दे चुका हूँ।

पुरोहितजी न्‍यायालय में खड़े-खड़े बड़े चाव से वहां का कौतुक देख रहे थे। कोषाध्‍यक्ष के मुख से अपना नाम सुनते ही उन्‍हें ऐसा लगा मानो पैरों के नीचे भूचाल आ गया। उनका सिर चकराने लगा। इतने में राजा ने उनको देखकर पूछा- क्‍यों धर्माचार्यजी, आप इस चोरी के मूल कारण हैं? पाप का धन लेने में आपको लज्‍जा नहीं आई? कहां है वह हार?

पुरोहितजी कुछ देर तक कांपते खड़े रहे। वे कोषाध्‍यक्ष की बात को काटने का साहस नहीं कर सके, क्‍योंकि राजा ऐसे उच्‍च अधिकारी के आगे उनकी बात को संभवत: सत्‍य न मानते। उन्‍होंने भी अपनी मुसीबत दूसरे के सिर पर टालने में ही कल्‍याण समझा, और बड़ी नम्रता से कहा- कोषाध्‍यक्षजी का कहना सत्‍य है महाराज, सोलह आने सत्‍य है। उन्‍होंने मुझे महारानी का हार दिया था। वह मेरे काम का नहीं था, क्‍योंकि मेरी पण्डिताइन को मोतियों की माला की अपेक्षा असली रुद्राक्ष की माला पसंद है। अत: श्रीमान् जी, मैंने उसे आपके कोटपाल (कोतवाल) जी को एक उपकार के बदले में दे डाला। अब तो वह उन्‍हीं से मिल सकता है। दुहाई राजा देव की, मैं अपना सारा पाप धोकर शुद्ध हो गया हूँ।

कोतवाल साहब चारों को हथकड़ी-बेड़ी पहनाने के लिए पहले से ही खड़े राजा के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे। एकाएक पुरोहितजी ने अपने गले का फन्‍दा उनके गले में डाल दिया। वे भीतर ही भीतर डूबने उतराने लगे। पुरोहितजी जैसे धर्मधुरन्‍धर को सरासर झूठा बताकर वे सहज में छुटकारा नहीं पा सकते थे। ऐसी दशा में उन्‍होंने भी इस संकट को दूसरे के सिर मढ़ने का निश्‍चय किया। राजा के पूछने पर वे बोले- अन्‍नदाता, परमपूज्‍य पुरोहितजी का कथन सत्‍य है। उन्‍होंने मुझे बड़े प्रेम में महारानीजी का हार दिया था, लेकिन उसे मैंने श्रीमान् जी के संगीताचार्य को उपहार में दे दिया। वे प्राय: मेरे घर पर गाने-बजाने जाते थे। इसीलिए मैंने महारानीजी का हार देकर उनका सत्‍कार करना उचित समझा। अब वह उन्‍हीं के पास है। आज्ञा हो तो उन्‍हें बांधकर जेल में डाल दूं।

इस प्रकार गवैयाजी भी इस मामले में घसीटे गए। गाने की जगह उन्‍हें रोना याद आने लगा। घबराहट में उन्‍हें कोई बलिदान का बकरा नहीं मिला। वे सहसा बोल उठे- महाराज, यदि कोतवाल साहब अपने स्‍वप्‍न का हाल कहते हों तो वह सत्‍य हो सकता है। मुझे तो इनके हाथ से फूटी कौड़ी का हार भी नहीं मिला।

उस दिन समय बहुत हो गया था। सुलझने की जगह मामला उलझता ही जा रहा था। राजा ने आगे की सुनवाई के लिए दूसरी तिथि नियत करके पांचों आदमियों को जेल में बंद करवा दिया।

राजा का बुद्धिमान और अनुभवी मंत्री दरबार में बैठे-बैठे ध्‍यान से सब कुछ देख-सुन रहा था। उसकी समझ में यह बात नहीं आई कि जिस बाग के चारों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें है और फाटक पर पहरा रहता है, उसमें दिन दहाड़े घुसकर कोई आदमी चोरी करने का साहस कैसे करेगा! उसे यह समझने में देर नहीं लगी कि पांचों आदमियों ने दण्‍ड के भय से मनगढ़न्‍त बयान दिए हैं। फिर भी, इस विषय में कोई सम्‍मति देने से पहले सच्‍ची बात का पता लगाना आवश्‍यक था। इसके लिए मंत्री ने रात में एक गुप्‍तचर को उन बन्दियों की कोठरी के पास बैठकर उनकी आपसी बातों को सुनने के लिए नियुक्‍त कर दिया।

रात में सन्‍नाटा होने पर पांचों आदमी आपस में इस प्रकार तू-तू मैं-मैं करने लगे। कोषाध्‍यक्षजी दांत पीसते हुए किसान से बोले- क्‍यों रे कंगाल के पूत, मैंने तेरा क्‍या बिगाड़ा था, जो तूने इस तरह मेरे सिर झूठा अपराध लगा दिया?

किसान ने क्षमा मांगते हुए कहा- सरकार, मैंने न तो चोरी की, न डाका डाला, फिर भी सिपाही लोग मुझे चोर मानकर मारने लगे। उनकी मार से डरकर, मैं भी अपने को चोर मानने लगा। राजा के आगे भय के मारे मैं आप जैसे बड़े आदमी की आड़ में खड़ा हो गया। आपकी शरण न लेता तो सिपाही लोग मुझे मार डालते।

इतने ही में पुरोहितजी बिगड़कर कोषाध्‍यक्ष से बोले- अरे कुबेर के पुतले! किस बल पर उस किसान से ऐंठते हो? पहले यह तो बताओं कि तुमने झूठ बोलकर मुझे क्‍यों फंसाया? यह कहां की भलमनसाहत है?

कोषाध्‍यक्षजी विनयपूर्वक बोले- धर्माचार्यजी, मैं क्‍या करता! जब मैंने देखा कि अब मुझे जेल में जाना ही पड़ेगा, तो यह सोचा कि चलो एक साधु-महात्‍मा को भी साथ लेते चलें। आप जैसे धर्मात्‍माओं के साथ तो नरक में भी स्‍वर्ग का सुख भोगा जा सकता है। वहां पूजा-पाठ और सदगुरु के चरणों का दर्शन नित्‍य होता रहे- इसी विचार से मैंने आपको इस मामले में अपना साथी बना लिया। अब बैठकर शंख बजाइए।

अब कोतवाल साहब से नहीं रहा गया। वे आंखें निकालकर पुरोहितजी से बोले- क्‍यों रे धूर्त धर्माचार्य, कोषाध्‍यक्षजी पर रोष करते समय तुझे अपने कुकर्म पर लज्‍जा नहीं आती? तूने मेरे ऊपर क्‍यों मिथ्‍या दोषारोपण किया?

पुरोहितजी ने नम्र होकर उत्तर दिया- कोप न कीजिए कोटपालजी! पंडित का काम बिना आश्रयदाता के नहीं चलता। मेरा जेल जाने का मुहूर्त आ गया था। मैंने सोचा कि आपको भी अपने साथ लेता चलूं, तो ठाठ से जेल में रहने को मिलेगा। आपके रहते वहां मेरी और कौन आंख उठाएगा।

संगीताचार्य का क्रोध भी ज्‍वालामुखी की भांति फूट पड़ा। उन्‍होंने डांटकर कोतवाल से पूछा- क्‍यों साहब, पुरोहितजी की बात तो आपको बहुत खटक रही है, लेकिन आपने मेरे साथ क्‍या किया है? मैं कब आपके घर गाने बजाने गया था? आपने मुझे इस तरह फंसाकर किस वैर का बदला लिया है?

कोतवालजी उन्‍हें शांत करतु हुए बोले- भाई, मैंने सोचा कि आप साथ रहेंगे तो कुछ गाना-बजाना, आमोद-प्रमोद होता रहेगा, इसीलिए मैंने जेलयात्रियों के दल में आपको भी सम्मिलित कर लिया। अब तड़प-झड़प छोड़कर झपताल गाइए।

पांचों आदमी रात-भर इसी तरह बड़बड़ाते रहे। प्रात:काल गुप्‍तचर ने मंत्री के आगे सब कुछ ज्‍यों का त्‍यों कह सुनाया। मंत्री को पूर्ण विश्‍वास हो गया कि हार को किसी आदमी ने नहीं चुराया है। उसे बाग के बंदरों पर संदेह हुआ। अब प्रश्‍न यह था कि बंदरों से चोरी का पता कैसे लगेगा। मंत्री को एक उपाय सूझा। उसने बाहर के पंद्रह-बीस बंदरों को पकड़वाकर हर एक के गले में नकली मोतियों का एक-एक हार डलवा दिया। इसके बाद उन्‍हें बाग में छुड़वा दिया गया।

मालाधारी बंदर धूमधाम से पेड़ों पर कूदने-फांदने लगे। बाग के पुराने बंदर उनका राजसी ठाट-बाट देखकर अपनी दीनता का अनुभव करने लगे। लेकिन चोर बंदरी से नहीं रहा गया। उसने सोचा कि मुझे भी अब अपना वैभव दिखाना चाहिए। वह महारानी का हार गले में पहनकर इतराती हुई महारानी की तरह बाग में घूमने लगी। मंऋी के सिपाहियों ने उसे देखते ही घेरकर पकड़ लिया। चोर और हार दोनों मिल गए। सिपाही लोग बंदरी को उसी वेश में मंत्री के पास ले आए। मंत्री ने तुरंत उसे ले जाकर राजा को दिखाया और अपनी जांच का सारा वृत्तान्‍त भी बता दिया। राजा ने संदेह में पकड़े हुए व्‍यक्तियों को तत्‍काल कारागार से मुक्‍त करने की आज्ञा दे दी। जिन सिपाहियों ने भोले-भाले किसान को जबर्दस्‍ती चोर बना रखा था, उन्‍हें कठोर राजदण्‍ड दिया गया।

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