बहुत दिन पहले जिरेंशे-शेशेन नाम का एक ज्ञानी था। उसका ज्ञान समुद्र-सा गहरा और निस्सीम था, उसके मुख से शब्द बुलबुल के मुंह से गीत जैसे झरते थे। किन्तु अपने सारे गुणों के बावजूद जिरेंशे स्तेपी (जंगल) में सबसे ज्यादा गरीब था। जब वह अपनी मिटृटी की झोंपड़ी में लेटता, तो उसके पैर देहली के बाहर निकले रहते, और खराब मौसम में हवा और पानी असंख्य छिद्रों में से होकर उसकी झोंपड़ी में आते रहते।
एक बार जिरेंशे अपने साथियों के साथ जंगल में जा रहा था। दिन ढलने लगा था, और घुड़सवार उजाला रहते किसी घर तक पहुँचने के लिए घोड़ों को सरपट दौड़ा रहे थे। अचानक उनके रास्ते में एक चौड़ी नदी दिखाई दी। नदी के उस पार गांव था, और इस किनारे पर कुछ स्त्रियां बोरियों में उपले इकट्ठा कर रही थी।
उनके पास पहुँचकर घुड़सवारों ने उनसे दुआ-सालम की और पूछा कि वे नदी कैसे पार कर सकते हैं।
तब झण्ड में से एक किशोरी निकलकर आगे आयी, जिसे उसकी सखियां क़ाराशाश के नाम से पुकारती थी। वह जीर्ण-शीर्ण, पैवंद लगा हुआ कुरता पहने हुई थी, पर उसका मुख अद्वितीय सौन्दर्य से दमक रहा था: उसकी आंखे सितारों जैसी थी, मुखड़ा चांद का सा और बदन-किसी सुघड़ और सुनम्य लता सरीखा।
”दो घाट हैं,” लड़की ने कहा। ”जो बायें है-पास होते हुए भी दूर है: और जो दायें है- वह दूर होते हुए भी पास है।” उसने उन्हें दो पगडण्डियां दिखा दी।
केवल जिरेंशे ही युवती के शब्दों का अर्थ समझ सका और उसने घोड़े को दायें मोड़ लिया।
कुछ समय बाद उसे घाट नज़र आ गया। वहां तल रेतीला था और पानी छिछला। वह आसानी से घोड़े पर नदी पार कर गया और बड़ी जल्दी गांव में पहुँच गया।
उसके साथियों ने निकटवर्ती घाट चुना और शीघ्र ही पछताने लगे। वे नदी के मध्य तक भी नहीं पहुँच पाये थे कि उनके घोड़े बुरी तरह काई में फंस गये। घुड़सवारों को सबसे-गहरे स्थान में घोड़ों से उतरना पड़ा और लगाम थामे पैदल चलकर किनारे तक पहुँचना पड़ा। जब वे तर-बतर होकर ठिठुरते हुए गांव में पहुँचे, अंधेरा छाने लगा था।
जिरेंशे ने नुक्कड़वाले तम्बू-घर के आगे अपना घोड़ा रोक दिया। वह गांव का सबसे गरीब तम्बू-घर था, और वह फौरन भांप गया कि वह उसी लड़की के माता-पिता का है, जिसने उन्हें घाट का रास्ता बताया था। वह वहीं अपने साथियों की प्रतीक्षा करने लगा।
बांके नौजवानों से मिलने क़ाराशाश की मां निकली और उसने उन्हें घोड़ों से उतरकर तम्बू-घर में सफ़र की थकान दूर करने को कहा। तम्बू-घर अंदर से भी उतना ही दरिद्र था जितना कि बाहर से। गृहणी ने अथिथियों के लिए कालीन के स्थान पर भेड़ की सूखी खालें फैला दी।
कुछ समय बाद क़ाराशाश उपलों से भरी पूरी बोरी लादे तम्बू-घर में आयी। बसंत ऋतु, और सूर्यास्त से पहले तेज बारिश हो चुकी थी। जंगल से सारी स्त्रियां गीले उपले लेकर आयी थी और उस रात उनके परिवारों को बिना खाये सोना पड़ा था।
केवल क़ाराशाशा सूखे उपले लेकर आयी थी। उसने अलाव जलाया, अथिथियों ने तापा और कपड़े सुखा लिये।
”तुमने अपने उपलों को बारिश से कैसे बचा लिया ?” आगंतुकों ने उससे पूछा।
लड़की ने उन्हें बताया कि जब बर्षा शुरू हुई, वह उपलों की बोरी पर लेट गयी। और उसे अपने बदन से ढके रखा। उसके कपड़े गीले हो गये, पर कपड़े तो चूल्हे के पास बड़ी आसानी से सुखाये जा सकते हैं। उसके लिए ऐसा करने के सिवा और कोई चारा नहीं था, क्योंकि उसका पिता गड़रिया है, रात को भूखा और तर-बतर लौटता और बिना आग के उसको बहुत परेशानी होती। अन्य स्त्रियां वर्षा के समय स्वंय बोरियों के नीचे छिप गयीं, जिससे उनके कपड़े भी भीग गये और उपले भी।
मेहमानों ने उसका जवाब सुना और उसकी बुद्धिमत्ता पर आश्चर्यचकित रह गये।
इसी बीच उन्हें यह जानने की इच्छा हुई कि उन्हें खाने में क्या खिलाया जायेगा।
क़ाराशाश ने उनसे यह कहा: ”मेरे पिता गरीब है, पर मेहमाननवाज हैं। जब वह बाय का रेवड़ हांककर लायेंगे, तो अगर मिल गया, तो आपके लिए एक भेड़ काटेंगे, और अगर नहीं मिला, तो दो भेड़ें।”
जिरेशे के अलावा और कोई लड़की की बात का अर्थ न समझ सका, बसने उसे मज़ाक समझा।
क़ाराशाश का पिता आया। अपने तम्बू-घर में अजनबियों को देखकर वह बाय से बिना बुलाये अतिथियों की खातिरदारी करने के लिए भेड़ मांगने भागा।
बाय ने उसे बिना कुछ दिये भगा दिया।
तब गड़रिये ने अपनी एकमात्र भेड़ काटी, जो शीघ्र ही ब्यानेवाली थी, और उसके मांस से आगंतुक बांके नौजवानों के लिए स्वादिष्ट बेसबरमाक (काजाखों का मांस से बना रास्ट्रीय खाना) पकाया।
मेहमान तभी जाकर क़ाराशाशा के शब्दों का अर्थ समझा।
खाना खाते समय जिरेंशे क़ाराशाश के सामने बैठा था। उसकी सुंदरता और बुद्धिमत्ता पर मुग्ध होकर उसने, इस बात का संकेत देते हुए कि उसे उससे प्रगाढ़ प्रेम हो गया है। अपना हाथ सीने पर रखा।
क़ाराशाश ने, जो उस पर बराबर नजर रखे हुए थी, उसकी यह हरकत देख ली और अपनी उंगलियों से आंखों का स्पर्श किया: वह इस प्रकार यह कहना चाहती थी कि युवक की भावना उसकी दृष्टि से छिपी नहीं रही है।
तब जिरेंशे ने, यह पूछने की इच्छा से कि कहीं उसका पिता उसके महर में इतने जानवर तो नहीं मांगेगा, जितने की उसके सिर पर बाल हैं, अपने बालों पर हाथ फेरा।
क़ाराशाश ने यह संकेत देते हुए कि उसका पिता उसे उतने जानवरों के बदले में भी नहीं देगा, जितने कि भेड़ की खाल पर बाल हैं, उस भेड़ की खाल पर हाथ फेरा, जिस पर वह बैठी थी।
अपनी ग़रीबी को याद करके जिरेंशे ने उदासी से सिर झुका लिया।
युवती को उस पर दया आ गयी। उसने खाल का कोना उलटकर उंगलियों से उसकी चिकनी सतह को छुआ। इस प्रकार उसने जिरेंशे को समझा दिया कि योग्य वर मिलने पर उसका पिता उसका विवाह बिना महर के भी कर सकता है।
गड़रिया युवक-युवती के मौन वार्तालाप को बराबर देख रहा था। वह समझ गया कि उन्हें एक दूसरे से प्रेम हो गया है, और उसे यह विश्वास हो गया कि जिरेंशे उतना ही बुद्धिमान है, जितना उसकी पुत्री। इसलिए जब जिरेंशे ने उसे क़ाराशाश से विवाह करने की इच्छा प्रकट की, तो वह सहर्ष इसके लिए तैयार हो गया।
तीन दिन बाद जिरेंशे नव-वधु को लेकर अपने गांव आ गया।
रूपसी व बुद्धिमान क़ाराशाश की ख्याति शीघ्र ही सारी स्तेपी (जंगल) में फैल गयी और अंत में खान के महल में भी पहुँच गयी।
वजीरों की कपटपूर्ण बातें सुनकर कि दुनिया में में क़ाराशाश से सुंदर और बुद्धिमान और कोई औरत नहीं है, खान को गरीब जिरेंशे से डाह होने लगी और उसने उससे उसकी पत्नी छीन लेने की ठान ली।
एक बार खान का संदेशवाहक सरपट घोड़ा दौड़ाता जिरेंशे के पास आया और उसने खान की ओर से उसे अपनी अपनी पत्नी के साथ तुरंत महल में हाजि़र होने का हुक्म दिया।
उनके पास कोई चारा नहीं रहा और वे दोनों चल पड़े।
खान ने जैसे ही क़ाराशाश को देखा, उसने किसी भी कीमत पर उसे अपनी पत्नी बनाने की ठाल ली और जिरेंशे को अपनी सेवा में रहने की आज्ञा दे दी।
जिरेंशे दिन भर खान के आंखे चौधियानेवाले महल में टहल बजाता और शाम को थका-हारा अपनी झोपड़ी में क़ाराशाश के पास लौट आता।
और वहॉं वह स्वतंत्रता का आनंद लेता हुआ अपनी प्रिय पत्नी की गोद में सिर रखकर कहता था:
”अपनी झोपड़ी में रहने में कितना सुख है! यह खान के महल में कहीं लम्बी-चौड़ी लगती है!”
जबकि उस समय उसके पैर देहली के बाहर निकले हुए थे।
समय बीतता रहा, पर खान किसी न किसी तरह जिरेंशे को मरवाकर क़ाराशाश को हथियाने के बारे में तरकीबें बराबर सोचता रहा। उसने कई बार जिरेंशे को खतरनाक और मुश्किल काम सौंपे, पर वह हर बार बड़ी जल्दी और चतुराई से उन्हें कर देता था और उसे मौत की सजा देने का कोई बहाना न मिल रहा था।
एक बार ऐसा हुआ कि खान अपने अंगरक्षकों के साथ जंगल से गुजर रहा था। हवा चल रही थी। जंगल में पीरीकती-पोल्यें (जंगल में उगनेवाला एक प्रकार का पुष्पगुच्छी, जो हवा के साथ लुढ़कता रहता है।) लुढ़क रहा था। खान ने जिरेंशे से कहा:
”इस पीरीकती-पोल्ये का पीछा करके उससे पूछो कि वह कहॉं से कहॉं तक लुढ़क रहा है। ख़बरदार रहना, अगर तुम उसका जवाब न लाये, तो तुम्हारा सिर अलग कर दिया जायेगा।”
जिरेंशे पीरीकली-पोल्ये के पीछे भागा, उसने उसके पास पहुँच उसे बरछी से भेद दिया और थोड़ी देर रुकने के बाद पावस लौट आया।
खान ने पूछा:
”क्यों, पीरीकती-पोल्ये ने क्या कहां?
जिरेंशे ने उत्तर दिया:
”आलीजाह, पीरीकती-पोल्ये ने आपको सलाम कहलवाया है और मुझसे यह कहा है: ‘मैं कहॉं से कहॉं तक लुढ़कता रहता हूँ- हवा को मालूम रहता है, कहाँ रुकता हूँ – खाई को मालूम रहता है। यह हर किसी को मालूम है। इतना साफ़ है कि या तो तुम बेवकूफ़ हो, जो मुझसे ऐसे सवाल पूछ रहे हो, या वह बेवक़ूफ़ है, जिसने तुम्हें मुझसे यह पूछने भेजा है’।”
खान आग-बबूला हो उठा, पर खून का घूंट पीकर रह गया और कुछ नहीं बोला, लेकिन जिरेंशे से वह मन ही मन और अधिक द्वेष रखने लगा।
दूसरी बार खान ने जिरेंशे को हुक्म दिया कि वह उसके सामने हाजिर हो, पर तब न दिन होना चाहिए, न रात, वह न पैदन हो, न घोड़े पर सवार, न महल के अंदर आये, न ही महल के बाहर रहे, ऐसा न करने पर उसने उसे मौत की सज़ा देने की धमकी दी।
आरम्भ में जिरेशे उदास हो गया, किन्तु बाद में उसने क़ाराशाश के साथ सलाह मशविरा किया और उन दोनों ने इस कठिन समस्या का समाधान खोज लिया।
जिरेंशे खान के सामने भोर में बकरे पर सवार होकर पहुँचा और ठीक दरवाजे की चौखट पर रुक गया।
खान की चालबाजी फिर बेक़ार रही। तब उसने एक नयी चाल चली।
जब पतझड़ आयी, उसने जिरेंशे को अपने पास बुलवाया और उसे चालीस मेढ़े सौंपकर बोला:
”मैं तुम्हें ये चालीस मेढ़े दे रहा हूँ, तुम्हें सारे जाड़े इनकी संभाल करनी है। लेकिन याद रखो: अगर बसंत तक इन्होंने भेड़ों की तरह बच्चे नहीं दिये, तो मैं तुम्हारा सिर कटवा दूँगा।”
जिरेंशे मेढ़े हांकता हुआ बहुत उदास घर लौटा।
”आपको क्या हुआ?” क़ाराशाश ने उससे पूछा। ”आप इतने उदास क्यों है?”
जिरेंशे ने खान की मूर्खतापूर्ण आज्ञा के बारे में उसे बता दिया।
”प्रियतम,” क़ाराशश कह उठी, ”इतनी मामूली-सी बात के लिए उदास होने की क्या जरूरत है! सर्दी आने तक सारे मेढ़ों को काटकर खा डालते हैं, जब बसंत आयेगा, खुद देख लेना, सब अपने-आप ठीक हो जायेगा।”
और जिरेंशे ने वैसा ही किया, जैसा क़ाराशश ने कहा।
बसंत आया।
एक दिन खान के क़ासिद ने जिरेंशे की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया और एलान किया कि उसके पीछे-पीछे खुद खान घोड़े पर आ रहा है: वह जानना चाहता है कि उसके मेढ़े ब्याये या नहीं।
जिरेंशे ने, यह महसूस करके कि अब उसकी मौत निश्चित है, सिर लटका लिया। पर क़ाराशाश बोली:
”दिल छोटा मत करो, प्रियतम। तुम जंगल में जाकर छिप जाओ और शाम तक नज़र मत आओ। मैं खुद खान से मिलूँगी।”
जिरेंशे जंगल में चला गया, और क़ाराशाश झोपउ़ी में रुक गयी। कुछ ही देर में उसे घोड़े की टापें और भयावनी आवाज सुनाई दी: ”ऐ, घर में कौन है! आवाज दो!”
क़ाराशाश खान की आवाज से उसे पहचान गयी। उसने झोंपड़ी से निकलकर उसे झुककर सलाम किया।
”तुम्हारा पति कहॉं है? मेरा स्वागत उसने क्यों नहीं किया?” खान ने गुस्से में कहा।
क़ाराशाश ने उसे नम्रतापूर्वक उत्तर दिया:
”जहांपनाह, मेरे अभागे पति पर दया कीजिये: वह आपको खुश करने के लिए घर से बाहर गये हैं। उन्होंने जैसे ही सुना कि आप हमसे मिलने आ रहे हैं, उनका दिल कचोटने लगा, क्योंकि हम ग़रीब है और हमारे घर में बड़े मेहमानों की खातिरदारी के लिए कुछ नहीं है। इसीलिए मेरे पति जल्दी से अपनी पालतू बटेर का दूध निकालने और उसके दूध से आपके लिए कि़मिज तैयार करने जंगल में चले गये। आप हमारी झोंपड़ी में तशरीफ़ लाइये, जहांपनाह, मेरे पति जल्दी ही लौट आयेंगे और आपकी काफ़ी अच्छी तरह खातिरदारी करेंगे।”
खान गुस्से से पागल हो उठा।
”तू झूठ बोलती है, नालायक औरत!” वह चिल्लाया। ”कही बटेरों का भी दूध दोहा जाता है!”
”आप हैरान क्यों होते हैं, हुजूरे आलम?” क़ाराशाश ने ऐसे कहा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। ”क्या आपको नहीं मालमू कि जिस देश में बुद्धिमान शासन करता है, वहॉं इससे बढ़कर भी चमत्कार होते हैं? आपके ही चालीस मेढ़े आजकल ब्याने वाले नहीं है क्या?”
खान समझ गया कि वह मामूली औरत उसका मजाक़ उड़ा रही है। उसकी समझ में नहीं आया कि वह शर्म के मारे कहॉं मुँह छिपाये और वह फ़ौरन घोड़ा मोड़कर उस पर चाबुक बरसाता हुआ ऑंखों से ओझल हो गया।
उस दिन के बाद उसने जिरेंशे और क़ाराशाश को कभी परेशान नहीं किया और वे अपने अंतिम दिनों तक सुख से जीते रहे।
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