गुरुजनों से वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर तत्त्वज्ञान की प्राप्ति करना ही इस संस्कार का परम प्रयोजन है। जब बालक-बालिका का मस्तिष्क शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता है, तब यह संस्कार किया जाता है। आमतौर पर 5 वर्ष का बच्चा इसके लिए उपयुक्त होता है। मंगल के देवता गणेश और कला की देवी सरस्वती को नमन करके उनसे प्रेरणा ग्रहण करने की मूल भावना इस संस्कार में निहित होती है। बालक विद्या देने वाले गुरु का पूर्ण श्रद्धा से अभिवादन व प्रणाम इसलिए करता है कि गुरु उसे एक श्रेष्ठ मानव बनाए।

ज्ञान स्वरूप वेदों का विस्तृत अध्ययन करने के पूर्व मेधाजनन नामक एक उपांग संस्कार करने का विधान भी शास्त्रों में वर्णित है। इसके करने से बालक में मेधा, प्रज्ञा, विद्या तथा श्रद्धा की अभिवृद्धि होती है। इससे वेदाध्ययन आदि में न केवल सुविधा होती है, बल्कि विद्याध्ययन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। ज्योतिर्निबंध में लिखा है-
विद्यया लुप्यते पापं विद्ययाऽऽयुः प्रवर्धते ।
विद्यया सर्वसिद्धिः स्याद्विद्ययात्मृतमश्नुते ॥
अर्थात् वेद विद्या के अध्ययन से सारे पापों का लोप होता है, आयु की वृद्धि होती है, सारी सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहां तक कि विद्यार्थी के समक्ष साक्षात् अमृत रस अशन-पान के रूप में उपलब्ध हो जाता है।
शास्त्र वचन है कि जिसे विद्या नहीं आती, उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों फलों से वंचित रहना पड़ता है। इसलिए विद्या की आवश्यकताएं अनिवार्य हैं।
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते, कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति, किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥
-सुभाषित भाण्डागार 31-14
अर्थात् विद्या माता की तरह रक्षा करती है, पिता की तरह हितकारी कार्यों में नियोजित करती है, पत्नी की तरह कष्टों का निवारण करके आनंद प्रदान करती है, लक्ष्मी का विस्तार करती है और सभी दिशाओं में कीर्तिवान् बनाती है, इस प्रकार कल्पलता की तरह विद्या क्या-क्या नहीं करती, अर्थात् सब कुछ प्रदान करती है।
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