स्वस्तिक चिह (卐) में किसी धर्म विशेष की नहीं, बल्कि सभी धर्मों एवं समस्त प्राणि मात्र के कल्याण की भावना निहित है। इसीलिए हिन्दू धर्म में ही नहीं, अपितु विश्व के सारे धर्मों ने इसे परम पवित्र, मंगल करने वाला चिह्न माना है। प्रत्येक शुभ और कल्याणकारी कार्य में स्वस्तिक का चिह्न सर्वप्रथम प्रतिष्ठित करने का आदिकाल से ही नियम है। गणेशपुराण में कहा गया है कि स्वस्तिक भगवान् गणेशजी का स्वरूप है। मांगलिक कार्यों में इसकी स्थापना अनिवार्य है। इसमें विघ्नों को हरने और सारे अमंगल दूर करने की शक्ति निहित है। जो इसकी प्रतिष्ठा किए बिना मांगलिक कार्य करता है, वह निर्विघ्न सफल नहीं होता। इसी कारण किसी भी मांगलिक कार्य के शुभारंभ से पहले स्वस्तिक चिह्न बनाकर स्वस्तिवाचन करने का विधान है-

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्ताक्षर्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
– यजुर्वेद 25/11
अर्थात् महान कीर्ति वाले भगवान् इंद्र हमारा कल्याण करें, विश्व के ज्ञान स्वरूप पूषा देव हमारा कल्याण करें, जिसके हथियार अरिष्ट भंग करने में समर्थ हैं, ऐसे गरुड़ देव हमारी रक्षा करें। बृहस्पति देवता हमारे घर में कल्याण की प्रतिष्ठा करे।
अथर्ववेद 1/31/4 में कहा गया है कि हमारा माता के लिए कल्याण हो। पिता के लिए कल्याण हो। हमारे गोधन का मंगल हो। विश्व के समस्त प्राणियों का मंगल हो। हमारा यह संपूर्ण विश्व उत्तम धन और उत्तम ज्ञान से संपन्न हो। हम लोग चिरकाल तक प्रतिदिन सूर्य का दर्शन करते रहें। हम दीर्घजीवी हों।
स्वस्तिक को ‘सातिया’ के नाम से भी जाना जाता है। सातिया को सुदर्शन चक्र का प्रतीक भी माना जाता है। यह धनात्मक या ‘प्लस’ को भी इंगित करता है, जो संपन्नता का प्रतीक है। स्वस्तिक के चारों ओर लगाए गए बिंदुओं को चार दिशाओं का प्रतीक माना गया है।
शास्त्रानुसार स्वस्तिक की आठ भुजाएं पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश, मस्तिष्क भाव आदि की प्रतीक मानी जाती हैं। मुख्य चार भुजाएं चारों दिशाओं, चार युग सतयुग, त्रेता, द्वापर व कलियुग, चार वर्षों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र, चार आश्रम ब्रहाचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास, चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ब्रह्मा के चार मुख और चार हाथों की प्रतीक चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद तथा चार नक्षत्रों-पुष्य, चित्रा, श्रवण व रेवती आदि की प्रतीक भी मानी जाती हैं।
ऋग्वेद की एक ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है। अमरकोश में इसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया गया है। आचार्य यास्क ने स्वस्तिक को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। इसे श्री अर्थात् धन की देवी लक्ष्मी का प्रतीक चिह्न भी माना जाता है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का चिह्न अपने में अनेक प्रतीकों को समेटे हुए चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इंद्र, वरुण व सोम की पूजा के लिए और सप्तऋषियों के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। अतः इसके महत्त्व को समझकर, हमें श्रद्धापूर्वक इसे अपनाना चाहिए।
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