एक बार महाराज कृष्णदेव राय तेनाली राम के साथ घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए विजयनगर के निकटवर्ती जंगल में गए। दोनों ने इच्छा भर शिकार किया और वापसी के लिए घोड़ा घुमा लिया। लेकिन थोड़ी ही देर के बाद उन्हें समझ में आ गया कि वे राह भटक गए हैं। दोनों भटकते-भटकते थककर चूर हो चुके थे। घोड़े पसीने से लथपथ थे। सूर्य दक्षिण-पश्चिम के कोण तक पहुँचने ही वाला था। महाराज यह सब देखकर हताश हो रहे थे। उन्होंने तेनाली राम से कहा, “अब क्या होगा तेनाली राम! आखिर हम लोग कब तक जंगल में भटकते रहेंगे? हमारे घोड़े भी थक चुके हैं, उन्हें भी विश्राम चाहिए। जिस तरह प्यास के मारे हमारा गला सूख रहा है, उसी तरह इन घोड़ों को भी प्यास लगी होगी। देखते नहीं, किस तरह हॉफ रहे हैं घोड़े!”
“महाराज! धैर्य के अलावा और कोई उपाय नहीं है। अच्छा है कि हम एक ही दिशा में आगे बढ़ते रहें।” तेनाली राम ने कहा।
दोनों के घोड़े दौड़ते रहे।
थोड़ी देर के बाद तेनाली राम ने महाराज से खुश होते हुए कहा, “महाराज! सामने देखिए। पेड़ पर बगुलों का झुंड बैठा हुआ है।”
“तो इसमें खुश होने की क्या बात है? तुम तो ऐसे खुश हो रहे हो तेनाली राम मानो विजयनगर वापसी की राह मिल गई हो!” महाराज ने तेनाली राम से कहा।
जी हाँ, महाराज! बगुलों के दिखने से यह सम्भावना भी दिखने लगी है कि शीघ्र ही हमें नगर वापसी की राह बताने वाला कोई-न-कोई मिल जाएगा। खाने के लिए कुछ मिले न मिले, पीने के लिए पानी अवश्य मिल जाएगा।” तेनाली राम ने कहा।
“यह तुम किस आधार पर कह रहे हो?” महाराज ने पूछा।
“महाराज, बगुलों के आधार पर।” तेनाली राम ने उत्तर दिया।
“क्या मतलब?” महाराज ने पूछा।
“मतलब यह महाराज कि बगुलों के झुंड का यहाँ होना यह संकेत दे रहा है कि आस-पास ही कोई नदी बह रही है।” तेनाली राम ने कहा।
महाराज खुश होते हुए बोले, “अरे, मेरे ध्यान में तो यह बात ही नहीं आई थी! तुम ठीक कह रहे हो तेनाली राम! ऐसा हो सकता है।”
थोड़ी दूर घोड़ा और दौड़ा तब तेनाली राम ने भूमि पर बड़े पत्तों वाली लताएँ बिछी हुई देखीं। इन लताओं के कुछ पत्तों पर जानवरों के खुरों और पंजों के कीचड़ सने निशान थे। इनमें से कुछ निशान कच्चे थे तो कुछ सूखे यानी गीली मिट्टी वाले निशान और सूखी मिट्टी वाले निशान।
तेनाली राम ने महाराज को उन निशानों को दिखाते हुए कहा, “महाराज, घोड़े को उस ओर ले चलें जिधर से पंजों और खुरों के निशान आते दिखाई पड़ रहे हैं।” ऐसा कहते हुए तेनाली राम ने स्वयं अपना घोड़ा मोड़ लिया।
महाराज समझ नहीं पाए कि तेनाली राम किन निशानों की बात कर रहा है। वे थक चुके थे और पसीने से लथपथ हो चुके थे। उन्हें बोलने की इच्छा नहीं हुई इसलिए उन्होंने चुपचाप घोड़े को तेनाली राम के घोड़े के पीछे लगा दिया।
थोड़ी ही दूरी पर उन्हें एक नदी दिखाई पड़ी। दोनों ने नदी की धारा में हाथ-मुँह धोए। फिर जी भर के पानी पीया। जब उनकी प्यास बुझ गई तब वे अपने घोड़ों को ले आए। दोनों घोड़ों ने भी पानी पीया।
महाराज ने तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम, मैं कामना करता हूँ कि दूसरी सम्भावना भी सच साबित हो जाए।”
“जी हाँ, महाराज, नदी है तो आस-पास कोई बस्ती भी होगी। पहले थोड़ा विश्राम कर लें फिर देखते हैं कि आगे क्या है।” इतना कहकर तेनाली राम ने दोनों घोड़ों को ऐसे स्थान पर ले जाकर बाँध दिया जहाँ हरी घास दूर तक भूमि पर आच्छादित थी। उसने घोड़ों को वहीं छोड़ दिया और स्वयं महाराज के पास आ गया। उसने महाराज से कहा, “महाराज! आइए, नदी के किनारे बालू पर हम लोग थोड़ी देर लेट लें। थोड़े विश्राम के बाद सोचेंगे कि अब क्या करना है और किधर जाना है।”
महाराज थके हुए तो थे ही, उन्होंने बालू पर लेटते हुए कहा, “लेकिन तेनाली राम! थोड़ी ही देर में शाम हो जाएगी। ऊपर से, यह नदी का किनारा है। कभी भी कोई जंगली जानवर इधर पानी पीने के लिए आ सकता है।”
महाराज के पास ही तेनाली राम लेट गया और कहा, “महाराज, जंगली जन्तुओं से भय की आवश्यकता नहीं। इस समय यदि कोई भी जीव इधर आया तो विश्वास कीजिए कि वह शिकार करके अपना पेट भर चुका होगा। वैसे भी मनुष्य से सभी भी जानवर स्वयं भयभीत रहते हैं इसलिए भयरहित होकर हम लोग थोड़ी देर विश्राम करें।”
अभी उन लोगों को विश्राम के लिए लेटे कुछ समय ही बीता था कि एक प्रौढ़ महिला हाथ में घड़ा लिये नदी से पानी लेने के लिए आई। उसने घड़े को पानी में डुबोया तो उसमें जाते पानी की ‘गड-गड’ ध्वनि से महाराज और तेनाली राम दोनों का ध्यान उस ओर गया। उन दोनों ने नदी की ओर देखा और प्रसन्न हो गए। महाराज ने प्रसन्न होते हुए तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम! तुम्हारा दूसरा अनुमान भी सच साबित हुआ। चलो, महिला से पता करें विजयनगर जाने का रास्ता।”
दोनों महिला के पास पहुँचे। महिला ने उन्हें देखते ही समझ लिया कि ये दोनों राजसी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। अवश्य इनमें से कोई राजा है। ऐसा सोचकर उसने दोनों को नमस्कार किया और पूछने लगी, “राह भटक गए हो राजन?” महाराज
उस महिला की शालीनता से बहुत प्रभावित हुए और महिला से कहा, “हाँ माता! हम दोनों राह भूल गए हैं। जंगल में भटकते-भटकते थक गए हैं और भूखे हैं।”
महिला ने उनसे कहा, “कोई बात नहीं, अब तुम दोनों मेरे साथ मेरी झोंपड़ी में चलो। झोंपड़ी में जो कुछ है उससे अपनी भूख मिटाओ। घोड़ों को ले चलकर झोंपड़ी के पास बाँध देना। घोड़ों के चारे की व्यवस्था भी मैं कर दूँगी। सुबह जहाँ कहीं भी जाना है, चले जाना। पल-दो पल में अब सूरज डूब जाएगा। रात हो जाएगी। और जंगल में रात को अनजान राह पर भटकना खतरे से खाली नहीं। कहते हैं कि भी जन्तुओं की शक्ति रात्रि में कई गुना बढ़ जाती है।”
महाराज और तेनाली राम के समक्ष उस महिला का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के अलावा कोई चारा नहीं था इसलिए वे दोनों उस महिला के साथ उसकी झोंपड़ी में चले गए।
महिला की झोंपड़ी जंगल में बसे एक छोटे गाँव में थी। पाँच-छः परिवारों वाले इस गाँव में पन्द्रह-बीस लोग ही रहते थे। वन-पत्रों और शिकार पर उनका जीवन आधारित था।
महाराज और तेनाली राम दोनों ही भूख से बेहाल थे। महिला ने उन्हें गुड़ और चने के उपयोग से बनाया गया पेठा दिया। महाराज को यह पेठा बहुत स्वादिष्ट लगा।
दूसरे दिन सुबह महिला ने उन दोनों को विजयनगर की राह दिखा दी और वे दोनों विजयनगर चले आए।
फिर सब कुछ सामान्य हो गया। महाराज और तेनाली राम नियमित राजभवन जाते। वहाँ दोनों में बातचीत होती।
एक दिन महाराज ने तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम! मुझे वह पेठा खाने की बड़ी इच्छा है। कहीं से चने-गुड़ के पेठे की व्यवस्था करो।”
तेनाली राम ने विजयनगर की एक दुकान से महाराज के लिए पेठा मंगवा दिया।
मगर महाराज को इस पेठे में वह स्वाद नहीं मिला।
दूसरे दिन महाराज ने तेनाली राम को बताया कि कल जो पेठा खाया, उसमें वह बात ही नहीं थी जो उस जंगलवाली महिला के पेठे में थी।
तेनाली राम ने किसी दूसरी दुकान से महाराज के लिए पेठा मँगा दिया मगर महाराज को उससे भी सन्तुष्टि नहीं मिली।
इस प्रकार महाराज को बारी-बारी से विजयनगर की सभी दुकानों के पेठे खिलाए गए मगर महाराज को उस महिला की झोंपड़ी में मिले पेठे का स्वाद नहीं मिला।
अन्ततः एक दिन तेनाली राम ने महाराज से जंगल में उस महिला से मिलने चलने के लिए कहा। महाराज सहर्ष तैयार हो गए।
दूसरे दिन सुबह दोनों जंगल में उस महिला की झोंपड़ी की ओर चल दिए। महिला की झोंपड़ी तक पहुँचते-पहुँचते दोनों थककर चूर हो गए। उन्हें भूख भी जोरों की लगी थी।
महिला की झोंपड़ी में जब वे दोनों पहुँचे तब महिला उन्हें देखकर बहुत प्रसन्न हुई। उसने उन दोनों को बैठने के लिए चटाई बिछा दी। पीने के लिए पानी दिया।
महाराज ने महिला से कहा, “माँ, मुझे चना-गुड़ का पेठा खिलाओ। तुम्हारे हाथ का पेठा खाने के लिए ही मैं यहाँ आया है।”
महाराज की अपनापन-भरी बातें सुनकर महिला बहुत प्रसन्न हुई। उसने तुरन्त महाराज के लिए पेठा बनाया।
इस बीच तेनाली राम ने महिला को बता दिया था कि चना-गुड़ का यह पेठा महाराज को कितना पसन्द है और कैसे विजयनगर की हर दुकान का पेठा खाने के बाद भी महाराज को उसके हाथ से बने पेठे का स्वाद नहीं मिला और वे पेठा खाने जंगल में आ गए।
पेठा बनाकर महिला ने महाराज और तेनाली राम के लिए परोस दिया। महाराज ने पेठा खाने पर पायादृवही स्वाद ! वही मिठास! वे पेठे के स्वाद में खो से गए। जी भर के पेठा खाया और महिला के पेठे की खूब प्रशंसा की।
महिला ने पेठे के स्वाद का रहस्य खोलते हुए कहा, “राजन! जब तुम पहली बार पेठा खाए थे, उस दिन भी तुम्हें खूब जोरों की भूख लगी थी। जंगल में भटकने के कारण श्रमजनित थकन से तुम क्लान्त से थे। शरीर से खूब पसीना बह चुका था। इस प्रकार तुम्हारे शरीर के रग-रग को नई उर्जा के लिए आहार की आवश्यकता थी और आज भी तुम्हारी स्थिति उस दिन जैसी ही है। सच है कि यह पेठा भी वैसा ही पेठा है जैसा विजयनगर की दुकानों में मिलता है। दरअसल बात यह है कि जब भी श्रम करने के बाद भूख लगती है तब भोजन करने पर उसका स्वाद अद्वितीय लगता है।”
दरअसल बात यह है कि महिला की बात से महाराज और तेनाली राम बहुत सन्तुष्ट हुए। महाराज ने महिला को ढेर सारा धन उपहार में दिया और वहाँ से विजयनगर वापस आ गए।
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