विजयनगर-महाराज कृष्णदेव राय का साम्राज्य। धन-धान्य से परिपूर्ण इस राज्य की समृद्धि की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। विजयनगर के वैभव ने पड़ोसी राजाओं को चकित कर रखा था। सभी जानना चाहते थे कि विजयनगर की समृद्धि और वैभव का रहस्य क्या है।
विजयनगर के पास ही ‘सप्तद्वीप नवखंड’ नाम का एक वैभवशाली राज्य था। मान्यता थी कि प्राचीन काल में विजयनगर के पाश्र्व से एक वेगवती नदी गुजरती थी जिसके बीच में, जगह-जगह पर पाषाण-खंड उभरे हुए थे। कालान्तर में नदी का पानी कम होने लगा और ये पाषाण खंड द्वीपों के रूप में प्रकट होने लगे। एक समय ऐसा भी आया जब यह नदी सूख गई और वहाँ निर्जन स्थल प्रकट हो गया। नदी के सूखते-सूखते प्रकट हुए द्वीपों की संख्या सात थी इसलिए उस निर्जन स्थान को ‘सप्तद्वीप’ के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। नदी के सूखने या लुप्त हो जाने के बाद प्रकट हुई धरती को ‘नवखंड’ की संज्ञा दी गई। इस प्रकार इस निर्जन स्थल को ‘सप्तद्वीप नवखंड’ कहा जाने लगा।
‘सप्तद्वीप नवखंड’ एक ऐसा स्थान था जहाँ चट्टानें अधिक थीं। इसलिए खेती पर निर्भर मनुष्यों को यह निर्जन स्थल अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता था किन्तु नदी के विलुप्त होने के कारण प्रकट हुई धरती में अद्भुत उर्वरा शक्ति थी। कुछ ही वर्षों में ‘सप्तद्वीप नवखंड’ की धरती हरियाली से बैंक गई। विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ वहाँ उग आई थीं। शीघ्रता से बढ़ने वाले पौधों ने जल्दी ही पेड़ का रूप ले लिया। वनस्पतियों में फूल और फल लगने लगे। पेड़ों पर चिडियों ने पनाह लेना आरम्भ कर दिया। यह इस नवखंड की वह अवस्था थी जब उधर से गुजरने वाले यात्रियों को यह निर्जन वनस्थल अपनी प्राकृतिक सम्पदा की ओर आकर्षित करने लगा।
धीरे-धीरे वहाँ लोग आकर बसने लगे। ‘सप्तद्वीप नवखंड’ नाम से प्रसिद्ध यह स्थल अब मनुष्यों के रहने योग्य बनाया जाने लगा। चट्टानें तरासी गईं। समतल भूमि पर बिछे घास-फूस की जगह धान की हरियाली छाने लगी। गेहूँ, मक्का, ज्वार, बाजरा जैसे मानवोपयोगी अनाज उगाए जाने लगे। झाड़-झंखाड़ के स्थान पर फलदार वृक्षों के पौधे लगाए जाने लगे। इस तरह ‘सप्तद्वीप नवखंड’ की धरती अपने प्राकृतिक ऐश्वर्य से ओत-प्रोत हो गई। वहाँ बसनेवाले लोग किसी एक प्रान्त के नहीं थे। विभिन्न प्रान्तों से आकर बसे लोगों के साथ कोई वंशावली नहीं थी। कोई ‘वंश-वृक्ष’ नहीं था। वे सबके सब अपना अतीत छोड़ आए थे। वंश-बंधु से दूर थे। इसलिए इस ‘सप्तद्वीप नवखंड’ में एक मिश्रित संस्कृति का अभ्युदय हुआ। परस्पर सहयोग की संस्कृति! साहचर्य की संस्कृति! समुच्चय प्राप्त करने के लिए सतत कर्मशील रहने की संस्कृति!
जहाँ एक-दूसरे की गति-प्रगति का ध्यान रखने वाले लोग बसते हों वहाँ वैभव स्वयं प्रकट होता है। ऐसा ही हुआ ‘सप्तद्वीप नवखंड’ में। वहाँ फल-फूल और अनाज का प्रचुर उत्पादन होने लगा। ‘सप्तद्वीप नवखंड’ से फल सब्जियाँ और अनाज पड़ोसी राज्यों के लोग खरीदकर ले जाने लगे। इस तरह ‘सप्तद्वीप खंड’ में व्यापारिक संरचना’ भी तैयार होने लगी। परस्पर सहयोग पर निर्भर वहाँ के निवासियों ने अपने लिए एक शासन प्रणाली भी विकसित कर ली। इस तरह ‘सप्तद्वीप नवखंड’ ने एक राज्य का रूप अख्तियार कर लिया।
चूँकि विजयनगर के पास ही बसा हुआ था यह सप्तद्वीप नवखंड इसलिए वहाँ की व्यापार प्रणाली और शासन प्रणाली दोनों पर विजयनगर का प्रभाव था। विजयनगर के शिल्पियों द्वारा निर्मित विविध सामग्री ‘सप्तद्वीप नवखंड’ को भेजी जाती और बदले में वहाँ से साग-सब्जी, फल और अनाज विजयनगर के लिए आता। महाराज कृष्णदेव राय के पूर्वजों के समय से ही यह विनिमय-परम्परागत चल रही थी। महाराज कृष्णदेव राय के समय में सप्तद्वीप नवखंड लोक-समर्थित महाराज थे विचित्र भानु! महाराज विचित्र भानु में ऐश्वर्य की लिप्सा अधिक थी। उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए सैन्य-दल का गठन किया। उनसे पूर्व जिस किसी का शासन सप्तद्वीप नवखंड राज्य पर हुआ, उसने राज्य के व्यापारिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने का ही काम किया था। किसी भी राज्य से आनेवाले यात्रियों को राज्य में प्रवेश की खुली सुविधा थी। विचित्र भानु ने शासन सँभालते ही कई तरह की निषेधाज्ञा जारी की। उसके सत्ता में आते ही राज्य में प्रवेश करनेवाले व्यापारियों से वाणिज्यिक शुक्ल की वसूली अनिवार्य कर दी गई। ‘सप्तद्वीप नवखंड’ में वाणिज्यिक प्रवेश पर शुल्क लगाए जाने के परिणामस्वरूप कई पड़ोसी राज्यों से उसके राजनयिक – सम्बन्ध सामान्य नहीं रह गए। महाराज विचित्र भानु की धन-लिप्सा बढ़ती गई। उसने अपनी प्रजा से भी विभिन्न मदों में शुल्क लेने का चलन आरम्भ किया।
महाराज विचित्र भानु के इन कदमों से ‘सप्तद्वीप नवखंड’ की प्रजा में क्षोभ उत्पन्न होने लगा। प्रजा की प्रतिक्रिया से बेपरवाह महाराज विचित्रा भानु अपनी ही गति से बढ़ रहा था। उसने अपने सैन्य बल की स्थापना के बाद एक गुप्तचर संगठन की आवश्यकता भी महसूस की और शीघ्र ही उसके राज्य में पहली बार ‘गुप्तचर संगठन’ की संरचना तैयार हो गई। उसका दर्प बढ़ रहा था। वह गुप्तचर संगठन से मिलनेवाली सूचनाओं के आधार पर अपनी नीतियाँ निर्धारित करने लगा। ‘सप्तद्वीप नवखंड’ में पहली बार ऐसा हुआ जब राजा और प्रजा के बीच सीधे संवाद की राह बन्द हो गई। पहले सप्तद्वीप नवखंड का राजा किसी भी कार्य के आरम्भ से पहले प्रजा की राय लेना आवश्यक समझता था। विचित्र भानु के शासनकाल में प्रजा-राजा संवाद की परिपाटी का पटापेक्ष हो गया।
अपनी ही धुन में मग्न महाराज विचित्र भानु अब अपने सैन्य बल और गुप्तचर संगठन के बूते स्वेच्छाचारी होने लगा। वह जहाँ कहीं भी जाता उसके आसपास चुनिन्दा लड़ाकों का सशस्त्रा दस्ता उसकी सुरक्षा के लिए तैनात रहता। ‘सप्तद्वीप नवखंड’ की प्रजा पर अत्याचार बढ़ने लगा। शुल्क वसूली के कारण राज्य में राजस्व की वृद्धि अवश्य हो रही थी किन्तु प्रजा सुखी नहीं थी। निषेधाज्ञा के कारण ‘सप्तद्वीप नवखंड’ में व्यापारियों का आना-जाना कम होने लगा। पड़ोसी राज्यों में जहाँ कहीं भरे सप्तद्वीप-नवखंड से वनोपजों का निर्यात होता था वहाँ अब सप्तद्वीप नवखंड के व्यापारियों का महत्त्व कम होने लगा। गुप्तचर संगठनों से राज्य की लगातार कम होती साख की सूचना मिलने पर महाराज विचित्र भानु को समझ में नहीं आया कि उसके राज्य के प्रति पड़ोसी राज्यों के व्यवहार में आए परिवर्तन का कारण क्या है। उसने मन-ही-मन तय कर लिया कि वह इस परिवर्तन का कारण जानने के लिए पड़ोसी राज्यों में अपने गुप्तचरों का एक सर्वेक्षण दस्ता भेजेगा। यह दस्ता अन्य बातों के अलावा यह भी पता करेगा कि वहाँ बसे सभी राज्यों में सबसे लोकप्रिय शासक कौन है तथा सबसे वैभव-सम्पन्न राज्य कौन-सा है? अपने इस निर्णय तक पहुँचने में महाराज विचित्र भानु ने अपने मंत्रियों, दरबारियों अथवा प्रजाजनों से कोई सलाह लेने की आवश्यकता भी नहीं महसूस की। अपनी सनक में वह गुप्त सूचनाएँ प्राप्त करता रहा।
‘सर्वेक्षण दस्ता’ तैयार करने के मंसूबे को अमली जामा पहनाने के लिए उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और उनसे बातचीत करते हुए कुछ गुप्तचरों को पड़ोसी राज्यों के आन्तरिक सर्वेक्षण के लिए भेज दिया। इन गुप्तचरों को निर्देश मिला कि वे सम्बद्ध राज्य में जाएँ और वहाँ सामान्य नागरिक की तरह रहकर यह जानने का प्रयत्न करें कि वहाँ की प्रजा और राजा के बीच कैसा सम्बन्ध है। क्या उस राज्य की प्रजा खुशहाल है? क्या प्रजा के बीच राजा लोकप्रिय है? ऐसे ही अनेक प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए गुप्तचरों के सर्वेक्षण दस्ते के सदस्य आस-पास के राज्यों में प्रवेश कर गए। उन्हें अधिकतम छः माह की अवधि में अपना सर्वेक्षण कार्य पूरा कर लेने का निर्देश मिला था।
छः माह की अवधि पूर्ण हुई। ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के गुप्तचर पड़ोसी राज्यों से लौटे। महाराज विचित्र भानु को गुप्तचरों ने एकत्र की गई सूचनाएँ सौंपीं। इन सूचनाओं के अध्ययन से उसे ज्ञात हुआ कि पड़ोसी राज्य विजयनगर सबसे वैभवशाली राज्य है। वहाँ की प्रजा खुशहाल है और वहाँ के राजा महाराज कृष्णदेव राय अपने राज्य में तो सर्वाधिक लोकप्रिय हैं ही, आस-पास के राज्यों में उनके जैसा लोकप्रिय राजा कोई नहीं है।
सर्वेक्षण दस्ते से मिली सूचनाओं के निष्कर्ष से महाराज विचित्र भानु आहत हुआ। इन सूचनाओं से उसके अभिमान को ठेस पहुँची थी। अब उन पर यह जानने की सनक सवार हो गई कि विजयनगर में ऐसा क्या है जिससे वहाँ के लोग खुशहाल हैं?
सर्वेक्षण दस्ता एक बार फिर सक्रिय हो उठा। कुछ दिनों में ही महाराज विचित्र भानु को सर्वेक्षण दस्ते का सर्वेक्षण-निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि विजयनगर के लोग परिश्रमी हैं। प्रायः प्रत्येक घर में रोजगार का कोई न कोई परम्परागत साधन है। वहाँ कपड़े बुनने वालों का गाँव है तो मिट्टी के बर्तन बनाने वालों का गाँव भी। लोहे का काम करने वालों का गाँव है तो सोना और चाँदी का काम करने वालों का भी। पूरे विजयनगर में कुटीर और लघु उद्योगों का जाल बिछा हुआ है। खेत-खलिहानों में काम करने वाले लोगों के पास भी कोई न कोई पारम्परिक धन्धा अवश्य है। विजयनगर के सभी गाँवों में एक साम्य यह भी है कि वहाँ के प्रत्येक परिवार के पास दुधारू पशु उपलब्ध हैं। गाय, भेंस, बकरी हर परिवार में है इसलिए दूध, दही, घी, मक्खन आदि की बहुतायत है। विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय के पास भी एक समृद्ध गोशाला है। दुग्ध उत्पादों को विजयनगर के वैभव का मुख्य आधार माना जाता है। दुग्ध उत्पादों की प्रचुरता और उपलभ्यता से ही विजयनगर के निवासी हृष्ट-पुष्ट-तन्दुरुस्त हैं। वहाँ ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हाथियों से भी टक्कर लेने की सामथ्र्य रखते हैं।
महाराज विचित्र भानु ने जब सर्वेक्षण दल का यह निष्कर्ष सुना तब चिन्तित हो उठा। उसने तो स्वयं को ही सबसे सामथ्र्यवान राजा मान लिया था। सर्वेक्षण दल से विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय के बारे में उसे जो जानकारियाँ मिलीं उससे वह उद्वेलित हो उठा। स्वयं को सबसे प्रतापी मानने का दंभ पालने वाले कभी भी अपने आगे किसी अन्य की प्रशंसा स्वीकार नहीं कर पाते हैं। महाराज विचित्र भानु का भी यही हाल था। उसमें विजय नगर की समृद्धि के प्रति ईष्या का भाव जाग्रत् हुआ। ईष्या में पड़े सामान्य मनुष्य की तरह वह भी तिल-तिल कर जलने लगा। अन्ततः उसने अपने गुप्तचर संगठन को निर्देश दिया कि संगठन के सदस्य कोई ऐसी तरकीब अपनाएँ जिससे विजयनगर के लोग अपनी गायों को शीघ्रता से बेचने का निर्णय लेने के लिए बाध्य हो जाएँ।
और इस प्रकार ‘सप्तद्वीप नवखंड’ का गुप्तचर संगठन पड़ोसी राज्य विजयनगर में सक्रिय हो गया।
एक दिन महाराज कृष्णदेव राय अपने दरबार में बैठे हुए थे। आम दिनों की तरह दरबार में काम-काज चल रहा था। दरबार में चर्चा चल रही थी कि विजयनगर के गाँवों में इन दिनों एक ही चर्चा चल रही है कि कोई भीषण संक्रामक रोग से आस-पास के राज्यों में मवेशी मर रहे हैं। आम तौर पर यह रोग हृष्ट-पुष्ट गायों पर तेजी से असर डालता है। बैल और बछड़ों पर कम। ग्रामीण इस संक्रामक रोग के बारे में सुनकर आतंकित हो उठे हैं कि कहीं इस रोग से प्रभावित होकर उनकी गायें न मर जाएँ!
महाराज कृष्णदेव कृष्णदेव राय के कानों में जब यह बात पड़ी तो उन्होंने संक्रामक रोग की चर्चा करने वाले दरबारी को टोक दिया, “सुकेतु! फिर से बोलना, गायों को कौन-सा रोग लग रहा है? ग्रामीणों में कैसा आतंक हैं?”
महाराज कृष्णदेव राय में अपनी प्रजा के प्रति संवेदनशीलता थी इसलिए प्रजा से जुड़ी छोटी-से-छोटी बात पर वे ध्यान देते थे। उनके टोकते ही उनका दरबारी सुकेतु अपने स्थान से उठा और बोला, “महाराज! मेरे गाँव के लोग डरे हुए हैं कि उनकी गायों को कोई छूत का रोग नहीं लग जाए! पूरे गाँव में इन दिनों इस बात की चर्चा हो रही है कि एक रोग बहुत तेजी से फैल रहा है। इस रोग के प्रभाव में आने के बाद गाय तुरन्त मर जाती है। और जिस गाँव में इस रोग से एक गाय मरती है तो फिर उस गाँव में ताबड़तोड़ गायों के मरने का सिलसिला आरम्भ हो जाता है। यह विचित्र रोग आम तौर पर पूर्ण स्वस्थ गायों पर ही अपना प्रभाव तेजी से डालता है!”
“…तो तुम यह कहना चाहते हो कि तुम्हारे गाँव में गायों की महामारी फैल गई है?” महाराज कृष्णदेव राय ने पूछा।
“जी हाँ, महाराज!” सुकेतु ने उत्तर दिया।
महाराज ने इशारा करके सुकेतु को बैठ जाने का संकेत किया। सुकेतु अपने आसन पर बैठ गया।
इसके तुरन्त बाद एक अन्य दरबारी ने कहा, “महाराज! इस तरह की चर्चा मेरे गाँव में भी हो रही है।”
पुनः कुछ अन्य दरबारियों ने भी समान सूचना महाराज को दी। उस समय दरबार में तेनाली राम भी उपस्थित था। दरबार में हो रही चर्चाओं से महाराज कृष्णदेव राय चिन्तित हो उठे। महाराज के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ देखकर तेनाली राम सक्रिय हुआ। अपने आसन से उठकर उसने सभासदों से पूछा, “क्यों भाइयो, आपमें से और किसी ने गायों की महामारी के बारे में सुना है?”
कई स्वर उभरे, “मैंने! मैंने! मैंने!”
तेनाली राम ने फिर एक सवाल किया, “बन्धुओ! क्या आपमें से किसी ने महामारी से कहीं गायों को मरते देखा है?”
दरबार में सन्नाटा छा गया। किसी ने तेनाली राम के इस प्रश्न का सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। तेनाली राम की मुखमुद्रा गम्भीर हो गई। उस दिन दरबार के समापन तक महाराज और तेनाली राम दोनों गम्भीर बने रहे। महाराज चिन्तित थे कि उनके राज्य के मवेशियों पर किसी अनजाने संक्रामक रोग का खतरा मंडरा रहा है… और तेनाली राम इस घटना में किसी षड्यंत्रा की सम्भावना पर विचार कर रहा था।
दरबार के समापन के बाद जब सभी सभासद लौट गए तब महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से पूछा, “तेनाली राम! क्या तुमने कभी ऐसे रोग के बारे में सुना है जिसका प्रकोप केवल स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट गायों पर ही होता हो? इतनी अवस्था हो जाने के बाद भी मैंने पहले ऐसी महामारी के बारे में नहीं सुना !… तुमने सुना हो तो बताओ !… यह एक गम्भीर समस्या है और इस समस्या को सुलझाना मेरा कर्तव्य है! राज-धर्म है!”
महाराज की बातें सुनकर तेनाली राम ने कहा, “नहीं महाराज! इससे पहले मैंने कभी इस तरह की किसी महामारी के बारे में नहीं सुना है लेकिन आप चिन्ता नहीं करें, शीघ्र ही सच्चाई वाई सामने आ जाएगी। यदि कोई रोग है तो उसका निदान राजवैद्य निकाल ही लेंगे…”
“… और हम हाथ पर हाथ धरे तब तक बैठे रहें?” महाराज कृष्णदेव राय ने कुपित स्वर में पूछा।
“नहीं महाराज! मुझ पर भरोसा करें। मैं सक्रिय हो चुका हूँ। तब ही मैंने निवेदन किया है कि शीघ्र ही सच्चाई सामने आ जाएगी। अभी मैं इससे अधिक कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूँ।” तेनाली राम ने विनम्रता के साथ महाराज कृष्णदेव राय से कहा।
तेनाली राम का उत्तर सुनकर महाराज मौन हो गए। वह उनसे आज्ञा लेकर अपने घर वापस आ गया। वह चिन्तित था। पता नहीं क्यों, उसका दिमाग यह स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि कोई ऐसा रोग भी होता है जो केवल स्वस्थ गायों को अपनी चपेट में लेकर पलों में उसे मार डालता है.. ऐसा तो सर्पदंश में भी नहीं होता!
दूसरे दिन महाराज कृष्णदेव राय का दरबार लगा हुआ था। सभी सभासद अपने आसनों पर विराजमान थे। महाराज कुछ विलम्ब से आए। दरबार में चर्चा चल रही थी कि विजयनगर के कुछ गाँवों में मवेशियों के व्यापारी घूम रहे हैं और ग्रामीण बहुत कम मूल्य लेकर उनसे गायें बेच रहे हैं। महाराज कृष्णदेव राय तक जब यह बात पहुँची तब उन्होंने पश्चात्ताप की मुद्रा में कहा, “आह! अब यही होना था…।” विवश से महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम के आसन की ओर देखा। आसन रिक्त था। तेनाली राम दरबार में उपस्थित नहीं था। महाराज को एक कचोट-सी हुई। वे इस समय तेनाली राम की आवश्यकता तीव्रता से महसूस कर रहे थे।
दरबार में कामकाज चल रहा था। महाराज कृष्णदेव राय बार-बार तेनाली राम के आसन की ओर देख रहे थे। आसन रिक्त था। उस दिन दरबार के समापन तक तेनाली राम नहीं आया। दूसरे दिन दरबार में तेनाली राम सशस्त्रा बल के जवानों के साथ दरबार में उपस्थित हुआ। सशस्त्रा बल के जवानों ने पाँच अजनबियों को रस्सियों में जकड़कर महाराज के सामने प्रस्तुत किया।
महाराज कृष्णदेव राय को जब कुछ भी समझ में नहीं आया तब पूछा, “यह सब क्या है तेनाली राम?”
तेनाली राम ने उत्तर दिया, “महाराज!” यह सब एक बड़े षड्यंत्र का छोटा-सा हिस्सा है। कृपया इन गिरफ्तार लोगों को कारागार में डालने का आदेश दें। इन लोगों पर आरोप है कि ये भोले-भाले ग्रामीणों को झाँसा देकर उनकी गायें बहुत कम मूल्य पर खरीद रहे थे। इस काम में एक बड़ा गिरोह काम कर रहा है। ये लोग उसीं गिरोह के सदस्य हो सकते हैं।” थोड़ी देर की चुप्पी के बाद तेनाली राम ने कहा, “महाराज! शेष बातें न्यायिक प्रक्रिया के समय हो जाएँगी। इन लोगों को कारागार में डालने का निर्देश दें। इनसे बरामद हुई गायों को राज्य की गोशाला में रखने की व्यवस्था करा दें। भविष्य में गायें इन बदमाशों के अपराध का साक्ष्य बनेंगी। इन गायों के वास्तविक स्वामियों का नाम-पता आदि सुरक्षा अधिकारी की पंजी में है। शेष बातें मैं बाद में करूँगा। अभी मुझे कुछ विशेष कार्य करने हैं जो राज्य-हित में परम आवश्यक है इसलिए मुझे अनुमति दें!”
महाराज कृष्णदेव राय कोई प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाते, उससे पूर्व ही तेनाली राम मुड़कर तेजी से दरबार के बाहर चला गया। दरबार में थोड़ी देर तक सन्नाटा छाया रहा। रस्सी में बँधे लोगों के आर्त स्वरों से यह सन्नाटा टूटा, “महाराज! दुहाई हो महाराज! दुहाई!”
महाराज कृष्णदेव राय ने पूछा, “क्या कहना चाहते हो?”
“महाराज, हम लोग पड़ोसी राज्य के ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के मवेशी व्यापारी हैं। आपके राज्य में आकर हम पहली बार मवेशी खरीद रहे थे कि हमें गिरफ्तार कर लिया गया। महाराज, हमने कोई अपराध नहीं किया है। हम ग्रामीणों द्वारा बताए गए मूल्य पर ही उनसे उनकी गायें खरीद रहे थे कि हमें पकड़ लिया गया और हमसे खरीदी गईं गायें छीन ली गई! महाराज, न्याय करें!”
महाराज कुछ कहते कि महामंत्री ने अपने आसन से उठकर प्रश्न किया, “तुम सप्तद्वीप नवखंड के मवेशी व्यापारी हमारे राज्य में मवेशियों के व्यापार के लिए कैसे आ गए? तुम्हारे राज्य में तो व्यापारियों के प्रवेश पर शुल्क लिया जाता है… फिर दूसरे राज्यों के समान सुविधा तुम निःशुल्क कैसे प्राप्त कर सकते हो?”
“…महाशय ! आपके राज्य में विधि-सम्मत दृष्टि से किसी भी तरह के प्रवेश शुल्क का निर्धारण नहीं हुआ है… यदि होता तो हम वह वैधानिक शुल्क अवश्य चुकाते।”
महाराज कृष्णदेव राय को उस व्यक्ति का उत्तर किसी राज्य के सामान्य नागरिक का उत्तर नहीं लगा। उन्होंने महामंत्री को मौन हो जाने का संकेत किया और सुरक्षा अधिकारी को निर्देश दिया, “गिरफ्तार लोगों को कारागार में डाल दिया जाए। तेनाली राम की उपस्थिति में ही उनके अपराध अथवा दंड के बारे में कोई चर्चा होगी।”
तीन दिनों के बाद महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में एक विचित्र दृश्य देखने को मिला। भरे दरबार में पाँच महिलाओं और पाँच पुरुषों को सुरक्षाकर्मियों ने उपस्थित किया। इन सबके हाथ पीछे की ओर बँधे थे। महाराज के सामने उपस्थित होते ही ये लोग दुहाई-दुहाई चिल्लाने लगे। महिलाएँ विलाप करने लगीं। उनके बिलखने से पूरा दरबार हुत्प्रभ रह गया। महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में इससे पहले कभी भी ऐसा दृश्य उपस्थित नहीं हुआ था। महाराज कुछ कहते या फिर दरबारियों से कोई प्रतिक्रिया उभरती, उससे पहले ही तेनाली राम ने दरबार में प्रवेश किया और अपने आसन पर बैठ गया।
महाराज कृष्णदेव राय ने जब तेनाली राम की ओर देखा तो पाया कि वह किसी गहन चिन्ता में डूबा है।
महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम को चिन्ता में डूबे देखकर पूछा, “क्या बात है तेनाली राम! आज कुछ चिन्तित मुद्रा में हो? तीन दिनों तक यहाँ आए ही नहीं… कोई सूचना भी नहीं दी…”
“महाराज!” बीच में ही बोलते हुए तेनाली राम ने कहा, “अभी तो आप इन पाँच जोड़ों को अविलम्ब कारागार में भेज दें! इन लोगों पर ग्रामीणों के बीच अफवाह फैलाकर उन्हें आतंकित करने का आरोप है। इनके अफवाह फैलाने के प्रयासों का पर्याप्त साक्ष्य मेरे पास है। मैंने इन्हें इस कार्य में संलग्न पाया है। शेष बातें मैं बाद में करूंगा।”
महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम के गम्भीर भाव को भाँपते हुए समझ लिया कि कोई ऐसी बात अवश्य है जो वह अन्य दरबारियों के समक्ष नहीं कहना चाहता है। महाराज के निर्देश पर पाँचों जोड़ों को कारागार में डाल दिया गया।
महाराज कृष्णदेव राय ने अविलम्ब सभा विसर्जित कर दी। फिर तेनाली राम से कहा, “अब कहो तेनाली राम! कहाँ रहे तीन दिन? क्या करते रहे?… और इतने गम्भीर क्यों हो?”
“महाराज, चिन्ता की बात है। विजयनगर में अराजकता फैलाने का प्रयास हो रहा है। अभी-अभी जिन जोड़ों को कारागार में भेजा गया है वे सभी पड़ोसी राज्य ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के रहनेवाले हैं। इससे पहले जो लोग मवेशियों की खरीद-बिक्री के मामले में पकड़े गए थे, वे लोग भी उसी राज्य के रहने वाले हैं। महाराज! मैंने जो सूचनाएँ एकत्रित की हैं उनमें सबसे चिन्ता की बात यह है कि ‘सप्तद्वीप नवखंड’ का राजा विचित्र भानु बहुत ही महत्त्वाकांक्षी है और अपनी धन-लोलुपता के कारण उसने अपने राज्य में विविध शुल्कों का प्रावधान किया है जिससे उसकी प्रजा त्रास्त है। इसमें हमारे लिए यह सूचना सतर्क करने वाली है कि पड़ोसी राज्य ‘सप्तद्वीप नवखंड’ में तेज गति से सशस्त्रा सेना का विकास हो रहा है। विजयनगर के सीमान्त क्षेत्रों में ‘सप्त नवखंड’ के सैनिकों की गतिविधियाँ बढ़ रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के सैनिक किसी सामरिक तैयारी में हैं, इसलिए महाराज! मेरी सलाह है कि सेनापति को आप स्थितियों की सूचना दे दें और उन्हें निर्देश दे दें कि विजयनगर की सीमाओं पर सैन्य चैकसी बढ़ा दी जाए। महत्त्वाकांक्षी, धन-लोलुप विचित्र भानु कब हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने को उत्सुक हो जाए, कहा नहीं जा सकता।” यह सब कहते समय तेनाली राम के चेहरे पर अपूर्व गम्भीरता छाई हुई थी। उसकी आँखों में ऐसे दूरद्रष्टा भाव थे जिन्हें देखकर यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि तेनाली राम विजयनगर के दरबार में एक विदूषक मात्र है जिसका काम महाराज कृष्णदेव राय को हँसाना है, समय-समय पर दरबारियों को अपने चुटीले-हास्य प्रयोगों से प्रफुल्लित करना है।
महाराज कृष्णदेव राय अभी तक तेनाली राम की बातें गम्भीरता से सुन रहे थे। उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए तेनाली राम से पूछा, “तेनाली राम! आखिर तुम इस गम्भीर निष्कर्ष पर कैसे पहुँचे?”
“महाराज!” तेनाली राम ने उत्तर दिया, “मैंने अपने विश्वस्त अनुचरों को उस दिन ही ‘सप्तद्वीप नवखंड’ भेज दिया था जिस दिन मवेशियों को कम मूल्य पर खरीदने के प्रयास में कुछ लोग पकड़े गए थे। मेरे विश्वस्त अनुचरों में प्रशिक्षित गुप्तचरों जैसी सामथ्र्य है। उन्होंने ‘सप्तद्वीप नवखंड’ से सूचनाएँ एकत्रित कीं। इन सूचनाओं से यह स्पष्ट हो गया कि विजयनगर में ‘सप्तदीप नवखंड’ के भेदिए सक्रिय हैं। महाराज! आप एक कार्य और अविलम्ब करें कि जितने भी लोग मेरे अनुरोध पर कारागार में डाले गए हैं, उनसे कड़ाई से पूछताछ कराएँ। अभी कई महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आ जाएँगे!”
महाराज कृष्णदेव कृष्णदेव राय को तेनाली राम की यह सलाह पसन्द आ गई। उन्होंने तेनाली राम से कहा, “ठीक है, तेनाली राम! अब कल बातें होंगी! तुम अब अपना कार्य करो और मैं अपना कार्य करूँगा!”
तेनाली राम महाराज कृष्णदेव राय का अभिवादन करके दरबार से लौट गया।
महाराज कृष्णदेव राय से मिलने मध्य रात्रि में सुरक्षा अधिकारी और कारागार अधिकारी आए। गुप्त मंत्रणा कक्ष में बातें होती रहीं। कारागार अधिकारी और सुरक्षा अधिकारी को विदा करने के बाद बाद महाराज कृष्णदेव राय ने सुरक्षा प्रहरी को एक अतिरिक्त घोड़े के साथ तेनाली राम के घर जाकर उन्हें यथाशीघ्र बुला लाने के लिए कहा।
थोड़ी ही देर में सुरक्षा-प्रहरी के साथ घोड़े पर सवार तेनाली राम वहाँ पहुँच गया। उन्हें अविलम्ब महाराज के ‘गुप्त मंत्रणा कक्ष’ में प्रवेश मिल गया।
महाराज कृष्णदेव राय अपने आसन पर विराजमान थे। उनकी आँखें लाल थीं। रात भर जगने की थकान के लक्षण उनके चेहरे पर विराजमान थे। तेनाली राम की ओर थकी दृष्टि डालते हुए उन्होंने उसे बैठने का संकेत किया। तेनाली राम एक आसन पर जैसे ही बैठा, महाराज कृष्णदेव अपने आसन से उठ खड़े हुए और धीरे-धीरे चलते हुए तेनाली राम के पास आ गए फिर तेनाली राम के कन्धों पर हाथ रखकर कहा, “तेनाली राम! तुम्हारा अनुमान सही था। तुम्हारे द्वारा पकड़े गए लोग ‘सप्तद्वीप नवखंड’ राज्य के गुप्तचर संगठन के सदस्य हैं। वे पाँच जोड़े विजयनगर के गाँवों में यह अफवाह फैला रहे थे कि पड़ोसी राज्यों में मवेशियों की महामारी फैली है और इस माहमारी में स्वस्थ गायें ही मर रही हैं। इस अफवाह का उद्देश्य यह था कि लोग इस अफवाह से घबरा जाएँ और कम कीमत में अपनी गायों को बेचने के लिए तैयार हो जाएँ। मवेशी व्यापारियों का दल भी यहाँ सप्तद्वीप नवखंड के गुप्तचर संगठन ने ही भेजा था। तुम्हारी यह सूचना भी सही है कि विजयनगर के सीमा क्षेत्रा में ‘सप्तद्वीप नवखंड’ की सैन्य गतिविधियाँ चिन्ताजनक रूप से बढ़ गई हैं। अब मुझे परामर्श दो कि हमें क्या करना चाहिए। विजयनगर के इतिहास में युद्ध का अस्तित्व नहीं है। हमारी प्रजा युयुत्सु नहीं है। हम शान्तिप्रिय हैं किन्तु हम अपनी अस्मिता की रक्षा करना भी जानते हैं।”
महाराज कृष्णदेव राय की गम्भीर और चिन्ता-बोझिल वाणी ने तेनाली राम को उद्वेलित कर दिया। महाराज कृष्णदेव राय का इतना सन्तप्त स्वर उसने कभी नहीं सुना था। थोड़ी चुप्पी के बाद सहज स्वर में तेनाली राम ने कहा, “महाराज! आप सप्तद्वीप नवखंड के महाराज विचित्र भानु को एक प्रतिवाद पत्र भेजें जिसमें कहा गया हो कि ‘सप्तद्वीप नवखंड के ऐसे सभी गुप्तचर गिरफ्तार कर लिये गए हैं जो विजयनगर में अराजक गतिविधियों में संलग्न थे। इन लोगों पर कड़ी कार्रवाई होगी। यदि ‘सप्तद्वरीप नवखंड’ के गुप्तचरों की गतिविधियाँ नहीं रोकी गईं तो हम विवश होकर अपनी सुरक्षा के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए बाध्य होंगे। ऐसे में पड़ोसी राज्य होने की मर्यादा का ध्यान रखना हमारे लिए आवश्यक नहीं रह जाएगा।’ पत्रा में यह सन्देश भी होना चाहिए कि ‘विजयनगर के सीमान्तकों पर चल रही सप्तद्वीप नवखंड के सैनिकों की गतिविधियाँ अविलम्ब रोकी जाएँ अन्यथा हमें भी अपनी शक्ति और सामथ्र्य का प्रदर्शन करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।'” इस बातचीत के बाद तेनाली राम घर लौट आया।
महाराज कृष्णदेव राय का पत्र जब सप्तद्वीप नवखंड के राजा महाराज विचित्र भानु के पास पहुंचा तब वह क्रोध से काँप उठा। उसे अपने बाहुबल और सैन्य संगठन पर बहुत घमंड था। क्रोधावेग में उसने विजयनगर के महाराज के पत्रवाहक दूत से कहा, “जाओ! महाराज कृष्णदेव राय को कहो कि हमारे गुप्तचरों को अविलम्ब कारागार से मुक्त कर दें अन्यथा परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें। हम उन्हें तीन दिनों का समय दे रहे हैं। तीन दिनों में हमारे आदमी हम तक नहीं पहुँचे तो परिणाम इतना भयंकर होगा कि उसे विजयनगर की पीढियाँ स्मरण करेंगी!”
दूत ने लौटकर महाराज कृष्णदेव राय को सारी बातें बताईं। गुप्तचरों को छोड़ने का कोई कारण नहीं था किन्तु यह महाराज कृष्णदेव राय के लिए अनिर्णय की भी घड़ी थी… विजयनगर पर युद्ध के काले अवसादकारी बादल मंडरा रहे थे।
ऐसी घड़ी में तेनाली राम ने महाराज कृष्णदेव राय से कहा, “महाराज! आप इस संशय में न पड़ें कि विजयनगर के इतिहास में युद्ध कभी नहीं हुआ! जो कभी अतीत में नहीं हुआ वह भविष्य में नहीं होगा, ऐसा मानकर अनिर्णय में रहना उचित नहीं। संशयमुक्त होकर सीमा की रक्षा का निर्देश अपने सशस्त्रा सैन्य बल को दें।”
तीन दिन बीते। विजयनगर की सीमा पर भीषण संग्राम मच गया। इस घनघोर युद्ध में सप्तद्वीप नवखंड के राजा विचित्र भानु को स्वयं महाराज कृष्णदेव राय ने पराजित कर बन्दी बना लिया।
युद्धोन्माद के थमने के बाद विजयनगर में एक विजयोत्सव का आयोजन हुआ। इस आयोजन में तेनाली राम एक त्रिपुंडूधारी ब्राह्मण के वेश में उपस्थित हुआ। विजयोल्लास में विजयनगर की प्रजा भी शामिल थी।
महाराज कृष्णदेव राय ने ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के बंदी राजा विचित्र भानु को भी उचित आसन देकर बैठाया।
यह समारोह सैन्य बलों के उत्साहवर्द्धन के लिए था- इसलिए आयोजन में सेना के जवानों द्वारा विविध सैन्य कलाओं का प्रदर्शन हुआ है। इस बीच ही एक पारदर्शी पात्र में पानी लेकर तेनाली राम मंच पर आया और बोला, “बंधुओ, यह जलपात्रा विजयनगर है। विजयनगर के निवासी इसमें भरे पानी की तरह हैं जिन्हें कोई भी खंडित नहीं कर सकता। पानी निकालो-थोड़ा-सा इस पात्रा से… देखो इसमें कोई गड्डा नहीं पड़ेगा-पानी समानता में बँटेगा – और यह पड़ोसी राज्य सप्तद्वीप नवखंड हमारे लिए इस पुडिया की तरह है…”
तेनाली राम ने अपना दूसरा हाथ ऊपर उठाकर लोगों को दिखाया। उसकी उँगलियों में एक पुडिया दबी थी। तेनाली राम ने उस पुडिया को पानी में डाल दिया। पात्र का पानी लाल हो उठा लेकिन पुडिया पानी में गल गई!… लोग हँसने लगे।
तेनाली राम ने फिर लोगों से पूछा, “समझे कुछ?”
भीड़ से समवेत स्वर उभरा, “मिट गया सतद्वीप नवखंड का अस्तित्व!”
तभी सप्तद्वीप नवखंड का महाराज विचित्र भानु अपने आसन से उठा और महाराज कृष्णदेव राय के सम्मुख घुटने के बल खड़ा होकर हाथ जोड़कर बोला, “महाराज! मेरे अपराध क्षमा करें!” और इसके बाद उसके गले से कोई बोल नहीं फूटा।
महाराज कृष्णदेव राय ने विचित्र भानु का कन्धा पकड़कर उठाया… उसी समय तेनाली राम ने कहा, “और आरम्भ हुआ नया सह-अस्तित्व!”
विजयनगर की प्रजा की तालियों की अनुगूँज के बीच महाराज कृष्णदेव राय सप्तद्वीप नवखंड के राजा विचित्र भानु को क्षमा कर अपने गले से लगा रहे थे।
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