दान देना मनुष्य जाति का सबसे बड़ा तथा पुनीत कर्तव्य है। इसे कर्तव्य समझकर दिया जाना चाहिए और उसके बदले में कुछ पाने की इच्छा नहीं रहनी चाहिए। अन्नदान महादान है, विद्यादान और बड़ा है। अन्न से क्षणिक तृप्ति होती है, किंतु विद्या से जीवनपर्यंत तृप्ति होती है।

ऋग्वेद में कहा गया है- संसार का सर्वश्रेष्ठ दान ज्ञानदान है, क्योंकि चोर इसे चुरा नहीं सकते, न ही कोई इसे नष्ट कर सकता है। यह निरंतर बढ़ता रहता है और लोगों को स्थायी सुख देता है।

धर्म शास्त्रों में हर तिथि-पर्व पर स्नानादि के पश्चात् दान का विशेष महत्त्व बताया गया है। सुपात्र को सात्विक भाव से श्रद्धा के साथ किए गए दान का फल अकसर जन्मांतर में मिलता है।

भविष्यपुराण 151/18 में लिखा है। है कि दानों में तीन दान अत्यन्त श्रेष्ठ हैं- गोदान, पृथ्वीदान और विद्यादान। ये दुहने, जोतने और जानने से सात कुल तक पवित्र कर देते हैं।

मनुस्मृति के अध्याय 4 में श्लोक 229 से 234 के मध्य दान के संबंध में महत्त्वपूर्ण बातें बताई गई हैं-

भूखे को अन्नदान करने वाला सुख लाभ पाता है, तिल दान करने वाला अभिलषित संतान और दीप दान करने वाला उत्तम नेत्र प्राप्त करता है। भूमिदान देने वाला भूमि, स्वर्णदान देने वाला दीर्घ आयु, चांदी दान करने वाला सुंदर रूप पाता है। सभी दानों में वेद का दान सबसे बढ़कर है। जो दाता आदर से प्रतिग्राही को दान देता है और प्रतिग्राही आदर से उस दान को ग्रहण करता है, वे दोनों स्वर्ग को जाते हैं। इससे उलटा अपमान से दान देने वाला और दान लेने वाला दोनों नरक में जाते हैं। जिस-जिस भाव से जिस फल की इच्छा कर जो दान करता है, जन्मांतर में सम्मानित होकर वह उन-उन वस्तुओं को उसी भाव से पाता है।

अन्यायपूर्वक कमाए धन के दान के संबंध में स्कंदपुराण में लिखा है-

न्यायोपार्जित वित्तस्य दशमांशेन धीमतः ।
कर्त्तव्यो विनियोगश्च ईश्वरप्रीत्यर्वमेव च ॥
– स्कंदपुराण/माहेश्वरखंड
अर्थात् अन्याय पूर्वक अर्जित धन का दान करने से कोई पुण्य नहीं होता। दान रूप कर्तव्य का पालन करते हुए भगवत्प्रीति को बनाए रखना भी आवश्यक है।

यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया: ‘श्रेष्ठ दान क्या है?’ इस पर युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘जो सत्पात्र को दिया जाए। जो प्राप्त दान को श्रेष्ठ कार्य में लगा सके, उसी सत्पात्र को दिया दान श्रेष्ठ होता है। वही पुण्य फल देने में समर्थ है।’ कर्ण ने अपनी त्वचा का, शिवि ने अपने मांस का, जीमूतवाहन ने अपने जीवन का तथा दधीचि ने अपनी अस्थियों का दान कर दिया था। दानवीर कर्ण की दानशीलता जगविख्यात है ही।

जब शक्तिशाली वृत्रासुर किसी भी तरह नहीं मारा जा सका, तो उसके त्रास से सभी देवता भयभीत हो गए। ब्रह्माजी से ज्ञात हुआ कि किसी तपस्वी की अस्थियों के वज्र से ही वृत्रासुर मारा जा सकता है। तपस्वियों में प्रसिद्ध महर्षि दधीचि के पास इंद्र, विष्णु आदि देवता पहुंचे। उन्होंने परमार्थ के लिए, देवत्व की रक्षा हेतु अपना नश्वर शरीर सहर्ष प्रस्तुत कर दिया। उनकी अस्थियों के दान से वज्ज बनाया गया और वृत्रासुर को उसी से मारा गया।

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