तृतीया तंत्र : काकोलूकीयम् (कौवे और उल्लुओं की कहानी)

Panchatantra Tritiya Tantra Kakolukiyam Story in Hindi
Panchatantra Tritiya Tantra Kakolukiyam Story in Hindi

तृतीया तंत्र : काकोलूकीयम्

दक्षिण देश में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। नगर के पास एक बड़ा पीपल का वृक्ष था। उसकी घने पत्तों से ढकी शाखाओं पर पक्षियों के घोंसले बने हुए थे। उन्हीं में से कुछ घोंसलों में कौवों के बहुत-से परिवार रहते थे। कौवों का राजा वायसराज मेघवर्ण भी वहीं रहता था। वहाँ उसने अपने दल के लिए एक व्यूह-सा बना लिया था।

उससे कुछ दूर पर्वत की गुफा में उल्लुओं का दल रहता था। इनका राजा अरिमर्दन था।

दोनों में स्वाभाविक वैर था। अरिमर्दन हर रात पीपल के वृक्ष के चारों ओर चक्कर लगाता था। वहाँ कोई इकला-दुकला कौवा मिल जाता, तो उसे मार देता था। इसी तरह एक-एक करके उसने सेकड़ो कौवे मार दिए।

तब मेघवर्ण ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर उनसे उलूकराज के प्रहारों से बचने का उपाय पूछा। उसने कहा- कठिनाई यह है कि हम रात को देख नहीं सकते और दिन को उल्लू न जाने कहाँ जा छिप जाते हैं। हमें उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं। समझ में नहीं आता कि इस समय सन्धि, युद्ध, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि उपायों में किसका प्रयोग किया जाए?

पहले मेघवर्ण ने उज्जीवी नाम के प्रथम सचिव से प्रश्न किया। उसने उत्तर दिया- महाराज ! बलवान् शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिए। उससे तो सन्धि करना ठीक है। युद्ध से हानि ही हानि है। समान बल वाले शत्रु से भी पहले सन्धि करके, कछुए की तरह सिमटकर, शक्ति संग्रह करने के बाद ही युद्ध करना उचित है।

उसके बाद संजीवी नाम के द्वितीय सचिव से प्रश्न किया गया। उसने कहा-महाराज शत्रु के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिए। शत्रु सन्धि बाद भी नाश ही करता है। पानी अग्नि द्वारा गर्म होने के बाद भी अग्नि को बुझा ही देता है। विशेषतः क्रूर, अत्यन्त लोभी और धर्मरहित शत्रु से कभी भी सन्धि न करे। शत्रु के प्रति शान्ति-भाव दिखलाने से उसकी शत्रुता की आग और भी भड़क जाती है। वह और भी कर हो जाता है। जिस : से हम आमने-सामने की लड़ाई न लड़ सकें उसे छल-बल द्वारा हराना चाहिए शत्रु किन्तु सन्धि नहीं करनी चाहिए। सच तो यह है कि जिस राजा की भूमि शत्रु के खून और उनकी विधवा स्त्रियों के आँसुओं से नहीं सींची गई, वह राजा होने के योग्य ही नहीं।

तब मेघवर्ण ने तृतीय सचिव अनुजीवी से प्रश्न किया। उसने कहा-महाराज हमारा शत्रु दुष्ट है, बल में भी अधिक है। इसलिए उसके साथ सन्धि और युद्ध दोनों के करने में हानि है। उसके लिए तो शास्त्रों में यान-नीति ही विधान है। हमें यहाँ से किसी दूसरे देश में चला जाना चाहिए। इस तरह पीछे हटने में कायरता दोष नहीं होता। शेर भी तो हमला करने से पहले पीछे हटता है। वीरता का अभियान करके जो हठपूर्वक युद्ध करता है वह शत्रु की इच्छा पूरी करता है और अपने व अपने वंश का नाश कर लेता है।

इसके बाद मेघवर्ण ने चतुर्थ सचिव प्रजीवी से प्रश्न किया। उसने कहा— महाराज! मेरी सम्मति में तो सन्धि, विग्रह और यान तीनों में दोष है। हमारे लिए आसन नीति का आश्रय लेना ही ठीक है। अपने स्थान पर दृढ़ता से बैठना सबसे अच्छा उपाय है। मगरमच्छ अपने स्थान पर बैठकर शेर को भी हरा देता है, हाथी को भी पानी में खींच लेता है। यही यदि अपना स्थान छोड़ दे तो चूहे से भी हार जाए। अपने दुर्ग में बैठकर हमारा एक सिपाही शत-शत शत्रुओं का नाश कर सकता है। हमें अपने दुर्ग को दृढ़ बनाना चाहिए। अपने स्थान पर दृढ़ता से खड़े छोटे-छोटे वृक्षों को आँधी-तूफान के प्रबल झोंके भी उखाड़ नहीं सकते।

तब मेघवर्ण ने चिरंजीवी नाम के पंचम सचिव से प्रश्न किया। उसने कहा- महाराज! मुझे तो इस समय संश्रय नीति ही उचित प्रतीत होती है। किसी बलशाली सहायक मित्र को अपने पक्ष में करके ही हम शत्रु को हरा सकते हैं। अतः हमें यहीं ठहरकर किसी समर्थ मित्र की सहायता ढूँढ़नी चाहिए। यदि एक समर्थ मित्र न मिले तो अनेक छोटे-छोटे मित्रों की सहायता भी हमारे पक्ष को सबल बना सकती है। छोटे-छोटे तिनकों से गुंथी हुई रस्सी भी इतनी मज़बूत बन जाती है कि हाथी को जकड़कर बाँध लेती है।

पाँचों मन्त्रियों से सलाह लेने के बाद वायसराज मेघवर्ण अपने वंशागत सचिव स्थिरजीवी के पास गया। उसे प्रणाम करके वह बोला-श्रीमान! मेरे सभी मन्त्री मुझे जुदा-जुदा राय दे रहे हैं। आप उनकी सलाहें सुनकर अपना निश्चय दीजिए।

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया- वत्स! सभी मन्त्रियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक ही मन्त्रणा दी है; अपने-अपने समय सभी नीतियाँ अच्छी होती है। किन्तु मेरी सम्मति में तो तुम्हें द्वैधीभाव या भेद-नीति का ही आश्रय लेना चाहिए। उचित यह है कि पहले हम सन्धि द्वारा शत्रु में अपने लिए विश्वास पैदा कर लें, किन्तु शत्रु पर विश्वास न करें। सन्धि करके युद्ध की तैयारी करते रहे; तैयारी पूरी होने पर युद्ध कर दें। सन्धिकाल में हमें शत्रु के निर्बल स्थलों का पता लगाते रहना चाहिए। उनसे परिचित होने के बाद वहीं आक्रमण कर देना उचित है।

मेघवर्ण ने कहा- आपका कहना निः सन्देह सत्य है, किन्तु शत्रु का निर्बल स्थल किस तरह देखा जाए?

स्थिरजीवी- गुप्तचरों द्वारा ही हम शत्रु के निर्बल स्थल की खोज कर सकते हैं। गुप्तचर ही राजा की आँख का काम देता है।

स्थिरजीवी की बात सुनने के बाद मेघवर्ण ने पूछा- श्रीमान! यह तो बतलाइए कि कौवों और उल्लुओं का यह स्वाभाविक वैर किस कारण से है?

तब स्थिरजीवी ने अगली कथा सुनाई: उल्लू का अभिषेक!

पढ़ें:- सभी पंचतंत्र की प्रेरक कहानियां


Panchatantra Tritiya Tantra Kakolukiyam Kawo Aur Ullun Ki Story in Hindi, Read All Motivational and Inspirational Stories in Hindi, Panchtantra Short Stories With Moral for Kids in Hindi, Panchtantra Ki Kahaniyan Bacchon Ke Liye

error: Content is protected !!