आध्यात्मिक उन्नति के लिए वाणी का शुद्ध होना परमावश्यक है। मौन से वाणी नियंत्रित एवं शुद्ध होती है। इसलिए हमारे शास्त्रों में मौन का विधान बनाया गया है। श्रावण मास की समाप्ति के बाद भाद्रपद प्रतिपदा से 16 दिनों तक इस व्रत के अनुष्ठान का विधान है। ऐसी मान्यता है कि मौन से सब कामनाएं पूर्ण होती हैं। ऐसा साधक शिवलोक को प्राप्त होता है। मौन के साथ श्रेष्ठ चिंतन, ईश्वर स्मरण आवश्यक है।
शास्त्रकार ने मौन की गणना पांच तपों में की है-
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥
श्रीमद्भगवद्गीता 17/16
अर्थात् मन की प्रसन्नता, सौम्य स्वभाव, मौन, मनोनिग्रह और शुद्ध विचार ये मन के तप हैं।
इनमें मौन का स्थान मध्य में है। मन के परिष्कार तथा संयम के लिए मन की प्रसन्नता धारण की जाए, सौम्यता धारण की जाए तत्पश्चात् मौन का प्रयोग किया जाए। इसके प्रयोग से शुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं। मन का परिष्कार होकर चंचलता और व्यर्थ चिंतन से मुक्ति होती है।
maun vrat ka kya mahatva hai
चाणक्य नीति दर्पण में कहा गया है-
ये तु संवत्सरं पूर्ण नित्यं मौनेन भुंजते ।
युगकोटिसहखैस्तु स्वर्गलोके महीयते ॥
– चाणक्य नीति 11/9
अर्थात् जो मनुष्य प्रतिदिन पूरे संवत भर मौन रहकर भोजन करता है, वह दस हजार कोटि वर्ष तक स्वर्ग में पूजा जाता है।
मौन की महिमा अपार है। मौन से क्रोध का दमन, वाणी का नियंत्रण, शरीर बल, संकल्प बल एवं आत्मबल में वृद्धि, मन को शांति तथा मस्तिष्क को विश्राम मिलता है, जिससे आंतरिक शक्तियों का विकास होता है और ऊर्जा का क्षरण रुकता है। इसीलिए मौन को व्रत की संज्ञा दी गई है।
मौन के संबंध में महाभारत में एक कथा है। जब महाभारत का अंतिम श्लोक महर्षि वेदव्यास द्वारा बोला गया और गणेश जी द्वारा भोज पत्र पर लिखा जा चुका, तब महर्षि व्यास ने कहा- ‘विघ्नेश्वर धन्य है आपकी लेखनी ! महाभारत का सृजन तो वस्तुतः परमात्मा ने किया है, पर एक वस्तु आपकी लेखनी से भी अधिक विस्मयकारी है यह है आपका मौन। इस अवधि में मैंने तो 15-20 लाख शब्द बोल डाले, परंतु आपके मुख से मैंने एक भी शब्द नहीं सुना।’ इस पर गणेश जी ने मौन की व्याख्या करते हुए कहा- ‘बादनारायण, किसी दीपक में अधिक तेल होता है और किसी में कम, तेल का अक्षय भंडार किसी दीपक में नहीं होता। उसी प्रकार देव, मानव और दानव आदि जितने भी तनधारी जीव हैं, सबकी प्राण-शक्ति सीमित है, उसका पूर्णतम लाभ वही पा सकता है, जो संयम से इसका उपयोग करता है। संयम का प्रथम सोपान है- वाक् संयम। जो वाणी का संयम नहीं रखता, उसके अनावश्यक शब्द प्राणशक्ति को सोख डालते हैं। वाक्संयम से यह समस्त अनर्थपरंपरा दग्धबीज हो जाती है। इसीलिए में मौन का उपासक हूं।
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