उपायं चिन्तयेत्प्रज्ञास्त्थाSपायं च चिन्तयेत्।
उपाय की चिन्ता के साथ, तज्जन्य अपाय या
दुष्परिणाम की भी चिन्ता कर लेनी चाहिए।
जंगल के एक बड़े वटवृक्ष की खोल में बहुत-से बगुले रहते थे। उसी वृक्ष की जड़ में एक सांप भी रहता था। वह बगुलों के छोटे-छोटे बच्चों को खा जाता था।
एक बगुला सांप द्वारा बार-बार बच्चों के खाए जाने पर बहुत दु:खी और विरक्त-सा होकर नदी के किनारे आ बैठा। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे। उसे इस प्रकार दु:खमग्न देखकर एक केकड़े ने पानी से निकालकर उसे कहा – मामा ,क्या बात है? आज रो क्यों रहे हो?
बगुले ने कहा – भैया! बात यह है कि मेरे बच्चों को सांप बार-बार खा जाता है। कुछ उपाय नहीं सूझता,किस प्रकार सांप का नाश किया जाए? तुम्हीं कोई उपाय बताओ।
केकड़ी ने मन में सोचा, यह बगुला मेरा जन्मबैरी है। इसे ऐसा उपाय बताऊंगा, जिससे सांप के नाश के साथ-साथ इसका भी नाश हो जाए। यह सोचकर वह बोला:
मामा, एक काम करो! मांस के कुछ टुकड़े लेकर नेवले के बिल के सामने डाल दो। इसके बाद बहुत से टुकडे उस बिल से शुरू करके सांप के बिल तक बिखेर दो। नेवला उन टुकड़ों को खाता-खाता सांप के बिल तक आ जाएगा और वहां सांप को भी देख कर उसे मार डालेगा।
बगुले ने ऐसा ही किया। नेवले ने सांप को तो खा लिया, किंतु सांप के बाद उस वृक्ष पर रहने वाले बगुलों को भी खा डाला।
बगुले ने उपाय तो सोचा, किंतु उसने अन्य दुष्परिणाम नहीं सोचे। अपनी मूर्खता का फल उसे मिल गया। पाप बुद्धि ने भी उपाय तो सोचा, किंतु अपाय नहीं सोचा।
करटक ने कहा – इसी तरह दमनक तूने भी उपाय तो किया, किंतु अपाय की चिंता नहीं की। तू भी पापबुद्धि के समान ही मुर्ख है। तेरे जैसे पापबुद्धि के साथ रहना भी दोषपूर्ण है। आज से तू मेरे पास मत आना। जिस स्थान पर ऐसे-ऐसे अनर्थ हों वहां से दूर ही रहना चाहिए। जहां चूहे मन भर की तराजू को खा जाएं, वहां यह भी संभव है कि चील बच्चे को उठाकर ले जाए।
दमक में पूछा – कैसे?
करटक ने तब लोहे की तराजू की एक कहानी सुनाई।
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