भारतीय संस्कृति में कर्मफल के सिद्धांत को विश्वासपूर्वक मान्यता प्रदान की गई है। मनुष्य को जो कुछ भी उसके जीवन में प्राप्त होता है, वह सब उसके कर्मों का ही फल है। मनुष्य के सुख-दुख, हानि-लाभ, जीत-हार, सुख-दुख के पीछे उसके कर्मों को आधार माना गया है।

कर्म फल भोगने की अनिवार्यता पर कहा गया है –

नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥
– ब्रह्मवैवर्तपुराण 37/16
अर्थात् करोड़ों कल्प वर्ष बीत जाने पर भी कर्मफल भोगे बिना, मनुष्य को कर्म से छुटकारा नहीं मिल सकता। वह शुभ या अशुभ जैसे भी कर्म करता है, उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है।

यही बात शिवमहापुराण और महाभारत के वनपर्व में भी कही गई है।

ऐहिकं प्राक्तनं वापि कर्म यचितं स्फुरत ।
पौरुषोऽसौ परो यत्नो न कदाचन निष्फलः ॥
– योगवासिष्ठ 3/95/34
अर्थात् पूर्वजन्म और इस जन्म के किए हुए कर्म, फल रूप में अवश्य प्रकट होते हैं। मनुष्य का किया हुआ यत्न, फल लाए बिना नहीं रहता है।

रामायण के अध्योध्याकांड में देवगुरु बृहस्पति देवराज इंद्र को भगवान् की कर्म-मर्यादा का बोध कराते हुए कहते हैं-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करै सो तस फल चाखा ॥
काहु न कोउ सुख-दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सव भ्राता ॥
अर्थात् विश्व में कर्म ही प्रधान है, जो जैसा करता है, उसे वैसा फल भोगना ही पड़ता है। दुनिया में कोई किसी को न दुख देने में समर्थ है, न सुख देने में। सभी व्यक्ति अपने किए हुए कर्मों का ही फल भोगते हैं।

कहा जाता है कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों, ज्ञानी-ध्यानी, महाराजाधिराज, पराक्रमी, बड़े-बड़े सम्राट्, महापुरुषों, बलशाली व्यक्तियों को भी अपने-अपने कर्मों का फल भोगना पड़ा है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास मिला और उनकी पत्नी माता सीता का अपहरण हुआ। महाबलशाली भीम को रसोइया बनकर नौकरी करनी पड़ी। महाप्रतापी सम्राट् नल को अपनी प्राण प्यारी पत्नी दमयंती को वन में अकेला छोड़कर राजा ऋतुपर्ण का कोचवान बनना पड़ा। महाराजा हरिश्चन्द्र को श्मशान में चांडाल की चाकरी करनी पड़ी। महारानी द्रौपदी को सैरन्ध्री बनकर रानियों की सेवा करनी पड़ी। महाप्रतापी और गांडीवधारी अर्जुन को हिजड़ा बनकर विराट्राज की कन्या को नाचना सिखाना पड़ा।

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