एक बार विजयनगर के सम्राट महाराज कृष्णदेव राय की इच्छा हुई कि वे अपने राज्य का भ्रमण करें और अपनी प्रजा के दुख-सुख को स्वयं अपनी आँखों से देखें ताकि उन्हें अपने राज्य के विकास की योजना बनाते समय उन जरूरी बातों का ध्यान रह सके जिनका अभाव अभी उनकी प्रजा अनुभव कर रही है। उन्होंने अपनी इच्छा तेनाली राम को बताई।
तेनाली राम ने महाराज की बातें ध्यानपूर्वक सुनीं। उसे महाराज की बातें अच्छी लगीं। उसने महाराज से कहा, “महाराज! बहुत उत्तम विचार है। जितनी जल्दी हो सके, राज्य-भ्रमण का कार्यक्रम बना लें।”
“ठीक है। कार्यक्रम बन जाएगा। मगर मेरी इच्छा है कि राज्य-भ्रमण के दौरान तुम मेरे साथ रहो।” महाराज ने कहा।
तेनाली राम ने तत्काल उत्तर दिया, “आपकी इच्छा मेरे लिए सर्वोपरि है महाराज! आप आदेश करें-मैं आपको हर क्षण उपलब्ध मिलूँगा।”
जल्दी ही महाराज के राज्य-भ्रमण का कार्यक्रम बन गया। महाराज ने अपने साथ कुछ चुनिन्दे एवं विशेष रूप से प्रशिक्षित सिपाहियों का दस्ता रखा और तेनाली राम के साथ घोड़े पर सवार होकर राज्य-भ्रमण के लिए निकल पड़े।
पहले दिन ही संयोग ऐसा रहा कि राह में कोई बाजार नहीं मिला। घोड़े थक कर चूर थे। महाराज भी थकान का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने तेनाली राम से कहां, “मुझे लगता है कि अब शाम ढलने को है। हमें यहीं कहीं अच्छी जगह देखकर पड़ाव डालना होगा। भूख और प्यास से सभी बेहाल हैं। भोजन की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी।”
तेनाली राम ने महाराज से कहा, “महाराज! मुझे लग रहा है कि दाईं तरफ नजदीक में ही कोई नदी हमें मिल सकती है… आप भी अनुभव कर सकते हैं कि दाईं तरफ से जो हवा आ रही है, उसमें शीतलता है। यह शीतलता नमी के कारण ही हो सकती है।”
महाराज ने तेनाली राम की बातें सुनकर दाईं तरफ अपने घोड़े को घुमाया और थोड़ी दूर तक मन्थर गति से उसे दौड़ाया। इसके बाद उन्हें भी लगा कि तेनाली राम के अनुमान में सत्यता है और उन्होंने साथ चल रहे दस्ते को उसी दिशा में चलने का संकेत कर दिया।
थोड़ी देर में ही वे लोग नदी के किनारे पहुँच गए।
महाराज के निर्देश पर नदी किनारे तम्बू गाड़े गए। घोड़ों को ले जाकर सिपाहियों ने नदी में पानी पिलाया।
महाराज अपने तम्बू में विश्राम की मुद्रा में लेट गए और तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम! अब भोजन का भी प्रबन्ध हो जाना चाहिए।” ऐसा कहते समय वे अपने आस-पास नजर दौड़ाते रहे। थोड़ी दूरी पर उन्हें एक खेत दिखा जिसमें मटर की फलियाँ ही फलियाँ दूर तक दिखाई दे रही थीं। महाराज ने तेनाली राम से कहा, “क्यों न आज हम लोग इन्हीं फलियों का आहार करें?”
“विचार तो अच्छा है महाराज!” तेनाली राम ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
महाराज ने कुछ सिपाहियों को बुलवाया और उनसे कहा, “आज फलियों का आहार तुम लोगों को कैसा लगेगा?”
“महाराज! इस बियाबान में जो कुछ भी मिल जाए, वही उत्तम आहार है।” एक सिपाही ने हिम्मत करके कहा।
“तो जाओ सामने, खेत में फलियाँ तैयार हैं, तोड़कर कुछ हम दोनों के लिए लाओ और तुम लोग भी खाओ। घोड़े तो मैदान में घास चर ही रहे होंगे।”
“जैसी आज्ञा महाराज!” कहकर सिपाही मुड़ने ही जा रहा था कि तेनाली राम ने हस्तक्षेप किया, “ठहरो!” फिर महाराज की ओर देखते हुए बोला, “महाराज! मैं तो इस तरह फलियाँ ग्रहण नहीं करूँगा। आप इस राज्य के राजा अवश्य हैं किन्तु इस खेत के मालिक नहीं हैं। इस खेत का मालिक तो वही किसान होगा जिसने इस खेत में फलियाँ उगाई हैं। इसे अपने पसीने से सींचा है। बिना उसकी आज्ञा के इस खेत की एक फली भी तोड़ना अपराध है। और यह केवल अपराध ही नहीं है अपितु राजधर्म के विरुद्ध चरण है जो कि एक राजा को शोभा नहीं देता।”
महाराज को तेनाली राम की बात उचित लगी। उन्होंने सिपाही को निर्देश दिया, “जाओ! इस खेत के स्वामी का पता लगाकर उससे आज्ञा लो। यदि वह मिल जाए तो उससे कहना-इस राज्य के राजा ने उसके खेत की फलियों मँगाई हैं।”
सिपाही जब उस खेत के मालिक का पता लगाते हुए उसके पास पहुँचा तो सिपाही को देखकर खेत का मालिक घबरा गया। किन्तु जब उसे यह पता चला कि महाराज स्वयं उसके खेत के पास विश्राम कर रहे हैं और अपनी भूख मिटाने के लिए खेत से थोड़ी फलियाँ तोड़ने की आज्ञा चाहते हैं तब उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। प्रसन्नता से उसका हृदय भर गया। मन-ही-मन वह विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय के प्रति श्रद्धा से भर गया- ‘कितने महान हैं महाराज! स्वयं राजा हैं मगर मुझ जैसे गरीब किसान की मेहनत का सम्मान करते हैं। वे चाहें तो पूरे खेत की फलियाँ तोड़ लें, कौन रोक सकता है उन्हें मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया…’ और इसी तरह की अनेक बातें सोचता हुआ वह दौड़ पड़ा उधर जिधर महाराज के विश्राम के लिए तम्बू गाड़ा गया था।
महाराज के पास पहुँचकर वह किसान साष्टांग दंडवत् की मुद्रा में आया तथा महाराज से कहा, “महाराज! प्रजापालक! आपको देखकर मेरे नयन तृप्त हुए। यह राज्य आपका, यह खेत आपका, आप प्रजापालक, मैं आपकी प्रजा। मुझसे आज्ञा लेने की कोई आवश्यकता आपको नहीं थी मगर फिर भी आपने एक गरीब किसान के श्रम का जो महत्त्व दिया है उसके कारण सदियों तक पृथ्वी पर आपकी न्यायप्रियता की स्मृति रहेगी।” इसके बाद वह किसान खुद सिपाहियों के साथ खेत में गया और फलियाँ तोड़कर महाराज के समक्ष श्रद्धापूर्वक प्रस्तुत किया और फिर महाराज से आज्ञा लेकर गाँव लौट गया।
पुनः थोड़ी देर के बाद वह आया। उसके साथ गाँव के कुछ लोग थे जो अपने साथ तरह-तरह के पकवान लाए थे- महाराज के लिए और महाराज के अनुचरों के लिए।
इतने सम्मान की कल्पना महाराज ने नहीं की थी। तेनाली राम यह सब देखकर मुस्कुरा रहा था।
दूसरे दिन जब महाराज वहाँ से अगले पड़ाव के लिए कूच करने लगे तब तेनाली राम का घोड़ा उनके घोड़े के साथ-साथ चल रहा था। महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम! तुम्हारे कारण कल रात अच्छा भोजन प्राप्त हुआ। अब आगे देखें क्या होता है!”
तेनाली राम ने कहा, “आगे भी अच्छा ही होगा… और महाराज! इस गाँव के लोग वर्षों आपका गुणगान करेंगे और आपकी न्यायप्रियता एवं ईमानदारी की कथाएँ कहेंगे जबकि आप जानते हैं कि आपने इनका लिया ही है, दिया कुछ नहीं!”
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