वेद वाक्य अतिथिदेवो भव का अर्थ है- अतिथि देवस्वरूप होता है। उसकी सेवा देव पूजा कहलाती है। सूतजी के अनुसार अतिथि सत्कार से बढ़कर दूसरा कोई महान धर्म नहीं है, अतिथि से महान कोई देवता नहीं है। द्वार पर आए अतिथि का यथा – योग्य स्वागत – सत्कार करना हमारी परंपरा में कर्तव्य ही नहीं धर्म माना गया है। भारतीय संस्कृति में अतिथि सत्कार को ‘अतिथि यज्ञ’ कहा गया है। इसे संपन्न करना प्रत्येक गृहस्थ के दैनिक जीवन का अंग माना गया है और इसकी गणना पंचमहायज्ञों में की जाती है। इस सत्कार में अतिथि का वर्ण, आश्रम, अवस्था, योग्यता नहीं देखनी चाहिए बल्कि उसे तो आराध्य ही समझना चाहिए। संसार के किसी भी देश की संस्कृति में अतिथि सम्मान की ऐसी भावना एवं सभ्यता देखने को नहीं मिलती।
अतिथि के लक्षण बतलाते हुए महर्षि शातातप (लघुशाता. 55) कहते हैं कि- जो बिना किसी प्रयोजन के, बिना बुलाए, किसी भी समय, किसी भी स्थान से घर में उपस्थित हो जाए, उसे अतिथि रूपी देवता समझना चाहिए। जिसके आगमन की पूर्व जानकारी हो, वह अतिथि नहीं कहलाता।
महाभारत में महात्मा विदुर धृतराष्ट्र से कहते हैं-
पीठं दत्त्वा साधवेऽभ्यागताय आनीयापः परिनिर्णिज्य पादौ ।
सुखं पृष्ट्वा प्रतिवेद्यात्मसंस्थां ततो दद्यादन्नमवेक्ष्य धीरः ॥ महाभारत उद्योग पर्व 38/2
अर्थात् राजन! धीर पुरुष को चाहिए कि जब कोई सज्जन अतिथि के रूप में घर आए, तो पहले आसन देकर एवं जल लाकर उसके चरण पखारें (धोएं), फिर उसकी कुशल क्षेम पूछकर अपनी स्थिति बताएं, तदुपरांत आवश्यकता समझकर उसे भोजन कराएं।
वेद में कहा गया है-
जग्धपाप्पा यस्यान्न मश्नन्ति । – अथर्ववेद 9/6/1
अर्थात् अतिथि सत्कार करने वाले के पाप धुल जाते हैं।
यद्वा अतिथि पतिरतिथोन् प्रतिपश्यति देवयजनंपेक्षते ।
– अथर्ववेद 9/6(1)/3
अर्थात् द्वार पर आए हुए मेहमान (अतिथि) का स्वागत करना देवताओं को आहुतियां देने के समान है।
महाभारत के वनपर्व 200/23-24 में कहा गया है कि जो व्यक्ति अतिथि को चरण धोने के लिए जल, पैर की मालिश के लिए तेल, प्रकाश हेतु दीपक, भोजन के लिए अन्न और रहने के लिए स्थान देते हैं, वे कभी यमद्वार नहीं देखते यानी यमराज के यहां नहीं जाते।
शास्त्रकारों ने कहा है कि अतिथि को आसन देने से ब्रह्माजी प्रसन्न होते हैं। अर्घ्यदान करने (हाथ घुलाने) से शिवजी संतुष्ट होते हैं। पाद्य देने (पैर धुलाने) से इंद्रादि देवता प्रसन्न होते हैं। भोजन कराने से भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं। इस प्रकार अतिथि संपूर्ण देवताओं का स्वरूप होता है। अतः उसका सदैव स्वागत करना चाहिए।
मनुस्मृति 3/106 में कहा गया है कि गृहस्थ स्वयं जैसा भोजन करे वैसा ही अतिथि को भी दे। अतिथि का सत्कार करना सौभाग्य, यश, आयु और सुख को देने और बढ़ाने वाला है।
महाभारत में अतिथि सत्कार के अनेक वृत्तांत देखे जा सकते हैं। मोरध्वज द्वारा अपना पुत्र देना, भूखे बहेलिए के लिए कबूतर-कबूतरी का अपना शरीर दे देना, महारानी कुंती का ब्राह्मण कुमार के बदले अपने पुत्र भीम को राक्षस का आहार बनने के लिए भेजना, दुर्भिक्ष पीड़ित समय में अनेक दिनों से भूखे ब्राह्मण परिवार का अपनी थाली की रोटियां चांडाल को देना, राजा शिवि द्वारा कबूतर की रक्षा के लिए अपना मांस काट-काट कर देना आदि उदाहरण अतिथि सम्मान के उच्च आदर्श को दशति हैं।
तैत्तिरीय उपनिषद् की भृगुवल्ली तो आतिथ्य सत्कार को व्रत की संज्ञा देती है। रामायण में भगवान् श्रीराम उस कबूतर का उदाहरण देते हैं, जिसने व्याघ्र का यथोचित आतिथ्य करते हुए अपने मांस का भोजन कराया था।
महाभारत के शांति पर्व में अतिथि सत्कार न करने के दुष्परिणाम इस प्रकार बताए हैं-
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते ।
स दत्त्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ॥
– महाभारत शांतिपर्व 191/12
अर्थात् जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा, प्यासा, निराश होकर वापस लौट जाता है, उस गृहस्थी की कुटुंब संस्था नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। गृहस्थ महादुखी हो जाता है, क्योंकि अपना पाप उसे देकर उसका संचित ‘पुण्य’ वह निराश अतिथि खींच ले जाता है। अतः सभी को आतिथ्य धर्म का पालन कर अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए।
वेद में भी अतिथि सत्कार न करने के संबंध में लिखा है-
इष्टं च वा एष पूर्त च गृहाणामश्नाति यः पूर्वोउतिये रश्नाति ।
एष वा अतिथिर्यच्छो त्रिय स्तस्मात् पूर्वो नाश्नीयात् ॥
– अथर्ववेद 9/6/3
अर्थात् जो मनुष्य अतिथि से पहले खाता है, वह घरों का इष्ट सुख और पूर्ण मनोरथ खाता है। यानी नाश करता है। अतिथि श्रोत्रिय, वेद विज्ञान होता है, इसलिए अतिथि के पूर्व भोजन मत करो।
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