मनु महाराज का वचन है –
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौञ्जिबन्धनं ।
– मनुस्मति 2/169
अर्थात् पहला जन्म माता के पेट से होता है और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है।
माता के गर्भ से जो जन्म होता है, उस पर जन्म-जन्मांतरों के संस्कार हावी रहते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा बुरे संस्कारों का शमन करके अच्छे संस्कारों को स्थायी बनाया जाता है। इसी को द्विज अर्थात् दूसरा जन्म कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य यह तीनों इसीलिए द्विजाति कहे जाते हैं। मनु महाराज के अनुसार यज्ञोपवीत संस्कार हुए बिना द्विज किसी कर्म का अधिकारी नहीं होता-
न त्यस्मिन्युज्यते कर्म किंचदामीञ्जीबन्धनात् ।
– मनुस्मृति 2/171
यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद ही बालक को धार्मिक कार्य करने का अधिकार मिलता है। व्यक्ति को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाना ही यज्ञोपवीत है। यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कंधों पर उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना और परमात्मा को प्राप्त करना।
शास्त्रों में यज्ञोपवीत के लाभों का विस्तार से वर्णन मिलता है।
पद्मपुराण कौशल कांड में लिखा है कि करोड़ों जन्म के ज्ञान-अज्ञान में किए हुए पाप यज्ञोपवीत धारण करने से नष्ट हो जाते हैं।
पारस्करगृह्यसूत्र 2/2/7 में लिखा है, जिस प्रकार इंद्र को बृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था, उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और संपत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहनना चाहिए।
यज्ञोपवीत धारण करने से शुद्ध चरित्र और कठिन कर्तव्य पालन की प्रेरणा मिलती है। इसके धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पा लेते हैं। यानी मनुष्यत्व से देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है। ब्रह्मोपनिषद् में लिखा है कि यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सबके लिए सहज बनाया है। यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बंधनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है।
जो द्विजाति अपने बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करते, वे अपने पुरोहित के साथ निश्चित ही नरक में जाते हैं, ऐसा नारद संहिता में लिखा है। इसमें यह भी लिखा है कि यज्ञोपवीत रहित द्विज के हाथ का दिया हुआ चरणामृत मदिरा के तुल्य और तुलसीपत्र कर्पट के समान है। उसका दिया हुआ पिंडदान उसके पिता के मुख में काक विष्ठा के समान है।
वेदांत रामायण में लिखा है कि जो द्विजाति यज्ञोपवीत संस्कार किए बिना मंद बुद्धि से मंत्र जपते और पूजा-पाठादि करते हैं, उनका जप निष्फल है और वह फल हानिप्रद होता है।
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