कहा जाता है कि यज्ञ के जरिए देवता प्रकट होकर मनोवांछित वर देते हैं। वेद मंत्रों, यज्ञीय मंत्रों की शक्ति ऐसी होती है, जिसके द्वारा देवराज इंद्र सरीखे शक्तिशाली देवता को भी आने को विवश किया जा सकता है। यज्ञ में मंत्रों का विधिवत् उच्चारण एवं जाप, द्वारा आहुतियां देने से आकाश में जो अदृश्य आध्यात्मिक विद्युत् तरंगें फैलती हैं, वे उपस्थित लोगों के मनों से बुराइयों, पाप, द्वेष, वासना, कुटिलता, अनीति, स्वार्थपरता आदि को हटाती हैं। परिणाम यह होता है कि अनेक समस्याएं, चिंताएं, आशंकाएं, भय, आदि समूल नष्ट हो जाते हैं। मंत्रों से आच्छादित दिव्य आध्यात्मिक वातावरण में जो संतानें पैदा होती हैं, वे सद्गुणी और उच्च विचारधाराओं से परिपूर्ण होती हैं। दिव्य प्रभाव से महापुरुषों का निर्माण होता है और लोगों के अंतःकरण में प्रेम, सद्भाव, ईमानदारी, आस्तिकता, संयम आदि सद्विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं।
प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में यज्ञ के अनेक प्रकार बताए गए हैं। दैनिक यज्ञों के अलावा विशिष्ट प्रयोजनों के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ कराने का विधान है। हजार, लाख और करोड़ की संख्या में मंत्रोच्चार करके यज्ञ में आहुतियां दी जाती हैं और इच्छित फल प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार मंत्र जप से उत्पन्न प्रचंड शब्द शक्ति तथा साधक के संकल्प बल से अंतरिक्ष में व्याप्त दैवी चेतना संघीभूत होकर साधक के लिए सिद्धियों के अवसर प्रदान करती है।
एक बार महाराज पृथु ने एक सौ अश्वमेघ यज्ञ करने का संकल्प किया। विधि-विधानानुसार वे जब 99 यज्ञ करके अत्यंत प्रभावशाली होने लगे, तो स्वर्ग का राज छिन जाने की आशंका से इंद्र का मन विचलित होने लगा। अतः सौवें अश्वमेध यज्ञ में विघ्न डालने के लिए इंद्र ने वेष बदलकर प्रपंच द्वारा घोड़े का अपहरण कर लिया, किंतु पृथु के पुत्र ने बलपूर्वक घोड़ा छुड़ा लिया। दूसरी बार इंद्र की नीच वृत्ति से पृथु को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाकर इंद्र का नाश कर देने की घोषणा की। इस पर ऋषियों ने राजा पृथु से कहा-‘हे नृपेन्द्र! आपके इस भयंकर बाण से तो इंद्र सहित सारे देवलोक का ही नाश हो जाएगा। आपकी इच्छा इंद्र को मारने की ही है, तो हम लोग आपके मनोरथ के नाश में लगे, अभिमानी इंद्र को सारपूर्ण मंत्रों द्वारा खींचकर इसी यज्ञ अग्नि में होम कर देंगे।’
ऋषियों की वाणी सुनकर राजा पृथु ने कहा- ‘इस दुष्ट ने अकारण ही मेरे यज्ञ में विघ्न डाला है। अतः जब तक आप लोगों के द्वारा यज्ञीय मंत्रों से खिंचकर अधर्मी इंद्र मेरे सामने अग्निकुंड में जल नहीं जाता, मैं हाथ से धनुष नहीं त्यागूंगा।’
पृथु की इच्छा पूर्ण करने के लिए ऋषि अपने हाथ में खुवा उठाकर इंद्र को उद्देश्य बनाकर यज्ञ कुंड में आहुति देने लगे। जब यज्ञीय मंत्रों से खिंचकर इंद्र अग्नि कुंड में गिरने ही वाले थे कि स्वयं ब्रह्माजी ने उपस्थित हो ऋषियों से निवेदन कर इंद्र को जलने से बचा लिया। सभी के अनुरोध और इंद्र के क्षमा मांगने पर पृथु ने उसे क्षमादान दे दिया। इस तरह देवशक्तियों पर श्रेष्ठता की विजय हुई। इस कथा से यज्ञ प्रक्रिया में मंत्रों की शक्ति का पता चलता है। ‘मंत्र’ संतुलित ध्वनि के द्वारा मानसिक रोगोपचार करने में भूमिका निबाहते हैं।
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