सप्तद्वीप न्वखंड राज्य के राजा विचित्र भानु की युद्ध-पिपासा शान्त हो चुकी थी। विजयनगर के साथ युद्ध में उसे पराजय का मुँह देखना पड़ा था। उसकी क्षमा-याचना को विजयनगर के राजा महाराज कृष्णदेव राय ने जिस सहृदयता से लिया था उसे देखकर विचित्र भानु विस्मित रह गया था। महाराज कृष्णदेव राय की उदारता से उसे यह बोध हुआ था कि किसी भी शासक के लिए अभिमान और अहंकार उचित नहीं है। पराक्रमी होने का यह कदापि अर्थ नहीं है कि बल-प्रयोग से अकारण किसी की अस्मिता पर चोट पहुँचाई जाए। इस पराजय के बाद वह स्थिरचित्त से अपनी प्रजा की भलाई के कार्यों में लग गया। सैन्य सामग्रियों पर होनेवाला व्यय अब कुएँ खुदवाने, तालाब बनवाने आदि कार्यों पर होने लगा। वह अपने राज्य के ग्रामों को राजधानी से जोड़ने के उपक्रम में सड़कें बनवाने लगा। विजयनगर में उसने देखा था कि वहाँ की प्रजा अपने राजा, महाराज कृष्णदेव राय से किस तरह जुड़ी हुई है- महाराज कृष्णदेव राय उत्सव के समय अपने प्रजाजनों से आत्मीयता से बातें करते थे और प्रजा के वरिष्व जनों को तो वे नाम लेकर बुलाते थे… यह स्थिति दर्शाती थी कि महाराज कृष्णदेव राय सीधे अपनी प्रजा के सम्पर्क में हैं। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद महाराज विचित्र भानु ने अपना सुरक्षा घेरा शिथिल किया। अब वह प्रजा के लिए भी उपलब्ध था। सप्ताह के सात दिनों में एक दिन ऐसा भी था जिस दिन कोई भी आदमी उससे सीधा सम्पर्क साध सकता था। अपना सरोकार बता सकता था। अनुनय-विनय कर सकता था।
इस तरह विचित्रा भानु अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय होने लगा और एक दिन ऐसा भी आया जब उसे लगा कि राज्य की रक्षा के नाम पर व्यर्थ ही बहुत व्यय करना पड़ता है। सीमा की सुरक्षा पर लगे सैनिकों की संख्या कम होनी चाहिए। इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही महाराज विचित्र भानु ने सैनिकों को सीमा से बुलाकर उन्हें विविध उद्योग-धन्धों लगाना आरम्भ कर दिया। महाराज विचित्र भानु में आए इस परिवर्तन से प्रजा खुश थी। कुछ ही समय में मिश्रित संस्कृतियोंवाला यह राज्य फिर से खुशहाल हो गया।
दूसरी ओर सप्तद्वीप खंड के साथ हुए युद्ध का प्रतिकूल प्रभाव विजयनगर के राजा महाराज कृष्णदेव राय पर हुआ। वे इस बात से उद्वेलित थे कि विजयनगर को युद्ध का सहारा लेना पड़ा। अतीत में उनके पूर्वजों द्वारा जो नहीं किया गया, वह उन्होंने किया। उफ! यह अनर्थ भी तो राज्य-लिप्सा के कारण ही करना पड़ा! महाराज कृष्णदेव राय का मन अवसन्न हो गया। एक विचित्रा सी विरक्ति के वशीभूत होकर वे कुछ अनमने से रहने लगे। कभी दरबार में जाते, कभी नहीं जाते, कभी बोलते, कभी मौन हो जाते।
तेनाली राम महाराज कृष्णदेव राय में आए परिवर्तन का भान मिलते ही महाराज की दिनचर्या में रुचि लेने लगा। उसने दो-तीन दिनों में ही जान लिया कि महाराज कृष्णदेव राय रातों को भी अपने शयनकक्ष में बेचैनी से टहलते रहते हैं और दिन में भी उनींदे-से किसी विचार में लिप्त महाराज कृष्णदेव राय की भंगिमा ऐसी थी कि कोई इन्हें कुछ कह नहीं पाता था। तेनाली राम भी उचित अवसर की प्रतीक्षा में मौन था।
समय बीत रहा था। महाराज कृष्णदेव राय की अनियमितता और शिथिलता बढ़ती जा रही थी।
एक रात अचानक अपने शयनकक्ष में चहल-कदमी करते हुए महाराज कृष्णदेव राय एक निष्कर्ष पर पहुँचे और फिर उन्होंने एक लम्बी साँस ली। साँस छोड़ते समय उनका सारा तनाव जाता रहा। उस रात महाराज कृष्णदेव राय गहरी नींद में सोए। सुबह बिस्तर छोड़ने के बाद उन्होंने महामंत्री को बुलवाया। महामंत्री के उपस्थित होने पर वे महामंत्री के साथ मंत्रणा कक्ष में चले गए। उन्होंने महामंत्री से कहा, “महामंत्री जी! अपने राज्य पर पड़ोसी राज्य सप्तद्वीप नवखंड ने मात्रा इसलिए आक्रमण करने का साहस किया कि वह हमें कमजोर समझ रहा था। सच्चाई यह है कि हमारी सामरिक सामर्थय अपने किसी भी पड़ोसी राज्य से लोहा लेने के योग्य है। कोई भी राज्य हुमारा सामना नहीं कर सकता। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि विजयनगर की खुशहाली से पड़ोसी राज्यों में ईष्या का भाव जन्म ले रहा है। इसी ईष्या के कारण सप्तद्वीप नवखंड की सेना ने हम पर आक्रमण किया। भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए हमें अपने ऐश्वर्य और सैन्य बल का प्रदर्शन करने की आवश्यकता है। हम युयुत्सु नहीं हैं किन्तु पड़ोसी राज्य कोई युद्धक विचार से प्रेरित होकर हमारे राज्य की ओर न देखें, इसकी व्यवस्था करना अनिवार्य है।”
महामंत्री महाराज कृष्णदेव राय की भंगिमा देखकर कुछ बोलने का साहस नहीं कर पाए। उस दिन ही विजयनगर के राजभवन के सामने के सार्वजनिक मैदान में अत्याधुनिक सुविधाओं वाले विलास-तालाब का निर्माण कार्य आरम्भ हो गया। उस दिन ही राजभवन के पाश्र्व के खुले स्थान पर मनोरम क्रीड़ा-स्थल का निर्माण कार्य आरम्भ हुआ और उस दिन ही राजभवन के दूसरे पाश्र्व में रंगशाला का निर्माण कार्य आरम्भ कराया गया। इस तरह के आभिजात्य निर्माणों की अन्य कई योजनाएँ राजधानी में आरम्भ हो चुकी थीं। विजयनगर की प्रजा को भूलकर महाराज कृष्णदेव राय स्वयं इन निर्माण-कार्यों को देखने में रुचि लेने लगे। उनकी व्यस्तता इस तरह बढ़ गई कि वे अपनी प्रजा की ओर देखने का अवकाश निकाल पाने में पूरी तरह असमर्थ हो गए। तेनाली राम महाराज की गतिविधियों से बेचैन हो उठा मगर चाहकर भी वह महाराज से मिल नहीं पाया। महाराज की दिनचर्या उनकी स्वेच्छाचारिता की सनद बन गई थी।
तेनाली राम समझ रहा था कि महाराज की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा तो विजयनगर की प्रजा में अराजकता फैलते देर नहीं लगेगी। उसकी चिन्ता थी कि क्या होगा उस राज्य का जिसके राजा के पास प्रजा की देखभाल के लिए अवकाश नहीं हो? महाराज कृष्णदेव राय की इस अतिरिक्त व्यस्तता के समय महामंत्री राज-काज का संचालन कर रहे थे इसलिए दरबार में तेनाली राम की भूमिका सीमित रह गई थी।
महाराज कृष्णदेव राय की इस अतिरिक्त व्यस्तता के समय विजयनगर में विजयादशमी का त्योहार मनाया जाना था। प्रत्येक वर्ष विजयादशमी पर विजयनगर में ‘विजयोत्सव’ मनाने की परम्परा थी। इस विजयोत्सव में राज्य के कोने-कोने से कलाकार आते थे और अपनी कला का प्रदर्शन करके महाराज कृष्णदेव राय से पुरस्कार प्राप्त करते थे। इन कलाकारों को पुरस्कारस्वरूप महाराज से इतना धन अवश्य प्राप्त हो जाता था जिससे वे साल भर अपना गुजर-बसर कर सकें। इस विजयोत्सव में भाग लेने के लिए कलाकार वर्ष भर अपनी कला का अभ्यास करते। किसी मौलिक कला की प्रस्तुति के लिए यत्नपूर्वक अपनी साधना में जुटे रहते। विजयोत्सव की प्रतीक्षा विजयनगर के प्रजाजनों को भी रहता था जो दूर-दूर से यह विजयोत्सव देखने के लिए वर्ष में एक बार राजधानी अवश्य आया करते थे। विजयोत्सव के समय विजयनगर की राजधानी की सड़कें जन सैलाब में डूब सी जाती थीं। नवरात्रि के प्रथम दिन से आरम्भ होनेवाला यह विजयोत्सव दशहरा की रात को आरम्भ पुरस्कार वितरण समारोह के साथ सम्पन्न होता था।
विजयनगर की प्रजा विजयोत्सव की प्रतीक्षा में थी कि इसी बीच विजयनगर के गाँवों में महाराज के आदेश पर डुग्गी पिटवाई गई और यह सन्देश प्रसारित किया गया कि इस बार विजयोत्सव पर राजधानी में नवनिर्मित रंगशाला में विजयनगर की सेना के जवानों का शौर्य प्रदर्शन होगा। विजयनगर का प्रत्येक निवासी अपने सुरक्षा-प्रहरियों के शौर्य प्रदर्शन का आनन्द उठाने के लिए अवश्य आए।
तेनाली राम को भी इस सन्देश-प्रसारण की सूचना मिली। इस सूचना के बाद तेनाली राम ने कई बार महाराज कृष्णदेव राय से मिलने का प्रयास किया मगर उसे प्रयास में सफलता नहीं मिली। अन्ततः उसने साधु का रूप धारण कर लिया और गेरुवा वस्त्रा पहनकर राजभवन के सामने एक वृक्ष के नीचे कम्बल बिछाकर ध्यान की मुद्रा में बैठ गया। राजमार्ग से गुजरनेवाले लोग श्रद्धा से कुछ चढ़ावा प्रदान करते जिससे तेनाली राम की क्षुधा-तृप्ति हो जाती। इस तरह कई दिन बीत गए। एक दिन महाराज कृष्णदेव राय अपने घोड़े पर सवार होकर निकले ही थे कि राजभवन के मुख्य द्वार पर हीं उन्हें एक गम्भीर आवाज सुनाई पड़ी, “रुक जाओ राजन!”
महाराज कृष्णदेव राय ने घोड़े की लगाम खींच ली। सामने देखा तो वृक्ष के तने के पास बैठा साधु उन्हें इशारे से अपनी ओर आने के लिए प्रेरित कर रहा था। महाराज घोड़े से उतर गए और साधु के पास पहुँचकर विनम्रता से हाथ जोड़कर पूछा, “क्या आज्ञा है महाराज?”
“मैं तुच्छ प्राणी आज्ञा देने का विश्वासी नहीं। मैं तो तुम्हें सचेत करना चाहता हूँ कि तुम अपनी प्रजा की खुशहाली की आशा में जिस मार्ग पर जा रहे हो, वह तुम्हें अन्तहीन भटकन की ओर ले जानेवाला है। राज्य के वैभव का प्रदर्शन तुम्हारे खजाने को रीता छोड़ा देगा और तुम्हें अपनी प्रजा के असन्तोष का प्रकोप झेलना पड़ेगा। तुम जिस गति से स्वेच्छाचारिता के मार्ग पर बढ़ रहे हो, उसी गति और तीव्रता के साथ विनाश अपना विकराल मुँह खोले तुम्हारी ओर बढ़ रहा है मगर तम्हारी आँखों पर आत्मप्रदर्शन की लिप्सा की पट्टी पड़ी हुई है जो तुम्हें…”
अभी साधुवेशी तेनाली राम की बातें पूरी भी नहीं हो पाई थीं कि महाराज कृष्णदेव राय ने घबराकर पूछा, “महाराज! आप यह क्या बोल रहे हैं? मैं तो अपनी प्रजा की सुरक्षा और सुविधा के निमित्त ही अनवरत प्रयास कर रहा हूँ। मेरा प्रत्येक पल अपनी प्रजा की भलाई के चिन्तन में ही व्यतीत हो रहा है!”
“महाराज…” बीच में ही साधु बने तेनाली राम ने हाथ उठाकर महाराज कृष्णदेव राय को चुप रहने का संकेत दिया और गम्भीर स्वरों में कहा, “तुम जो कुछ भी कह रहे हो राजन! वह आत्मश्लाघा है। वास्तविकता यह है कि तुम्हें अपनी प्रजा की सही अवस्था का ज्ञान नहीं है। तुमने कैसे समझ लिया कि राजप्रासाद के चतुर्दिक् वैभव का प्रदर्शन करके तुम अपनी प्रजा की भलाई कर रहे हो? क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे राज्य में ऐसे लोग भी हैं। जो पेड़ों के पत्ते खाकर अपनी क्षुधा-तृप्ति करते हैं? उन साधनहीन बल-क्षीण लोगों की वेदना का ज्ञान कभी तुम्हें हुआ है?”
महाराज कृष्णदेव राय असमंजस-भरी दृष्टि से इस साधु को देख रहे थे। थे। उनसे कहुते नहीं बना। साधुवेशी तेनाली राम ने कहा, “मेरी बातें मिथ्या नहीं हैं राजन! चाहो तो मुझे अपने घोड़े पर बैठा लो और मेरे संग चलो। मैं तुम्हें दिखलाऊँगा कि तुम्हारे राज्य की सम्पदा का उपयोग कहाँ होना चाहिए, कैसे होना चाहिए!”
महाराज कृष्णदेव राय संस्कारवश साधुवेशी तेनाली राम की बातों में आ गए और उन्होंने साधु समझकर उसे अपने घोड़े पर बैठा लिया।
राजधानी से बाहर निकलने के मार्ग पर घोड़ा सरपट दौड़ने लगा। कुछ घंटों के बाद वे दोनों राजधानी के बाहर एक ऐसे स्थान पर थे जहाँ से वनों का सिलसिला आरम्भ होता था। हरियाली से आच्छादित इस स्थान पर ऊँची-नीची पहाडियों की तलहटी में कुछ पर्ण कुटीर बने हुए थे जिनमें अधनंगे लोग रहते थे। साधुवेशी तेनाली राम ने उन पूर्ण कुटीरों की ओर इंगित कर महाराज कृष्णदेव राय से कहा, “राजन! यह देखो, तुम्हारे वैभवशाली राज्य की प्रजा का ऐसा हाल भी है।… अब यह भी विचार करो कि अभी तुम जिस मार्ग पर सरपट भाग रहे हो उससे तुम्हारी इस प्रजा की क्या भलाई होगी!”
महाराज कृष्णदेव राय के लिए यह दृश्य अपरिचित था। वे वहाँ के लोगों को देखकर विस्मय में पड़ गए थे। साधुवेशी तेनाली राम ने उनसे फिर कहा, “चलो राजन! तुम्हें तुम्हारे राज्य की एक और वास्तविकता दिखला दूँ।”
महाराज कृष्णदेव राय पसीने से तरबतर थे। यह पसीना उनके शरीर से इस अप्रत्याशित दृश्य के कारण निकल रहा था। यह श्रमजनित स्वेद नहीं था। किंकर्तव्यविमूढ़ से महाराज ने घोड़े को एड़ लगाई। घोड़ा सरपट भागने लगा।
एक स्थान विशेष पर साधुवेशी तेनाली राम ने महाराज कृष्णदेव राय को रुकने का संकेत किया। महाराज ने घोड़े की लगाम खींच ली और घोड़े से उतर गए। साधुवेशी तेनाली राम भी घोड़े से उतर आया और महाराज से कहा, “राजन! घोड़े को यहाँ विश्राम करने के लिए छोड़ दो और मेरे साथ आओ। अब कुछ दूर हमें पैदल चलना होगा,” यह कहते हुए साधुवेशी तेनाली राम एक दिशा में चल पड़ा।
विवश थे महाराज कृष्णदेव राय! साधु के साथ चलने के सिवा कोई चारा उनके पास उन्हें कहाँ ले जा रहा है नहीं था मगर वे आशंकित थे कि न जानें यह साधु उन्हें कहाँ रहा है क्योंकि जिस दिशा में वह साधुवेशी तेनाली राम बढ़ रहा था उस दिशा में कहीं कोई सड़क नहीं थी, न कोई ऐसी पगडंडी कि जिससे पता चले कि यहाँ से किसी मानव-बस्ती की ओर जाया जा सकता है!
थोड़ी दूरी दोनों ने मौन रहकर पूरी की। फिर पेड़ों की झुरमुटों में कुछ झोंपडियाँ दिखने लगीं। महाराज कृष्णदेव राय आश्वस्त हो गए कि वे किसी मानव-बस्ती के के ही निकट हैं।
एक झोंपड़ी के निकट पहुँचकर साधुवेशी तेनाली राम ने आवाज दी, “माँ!”
झोंपड़ी के भीतर से एक क्लान्त महिला का स्वर उभरा, “आती हूँ… बेटा!… कौन है तू… द्वार पर… किसे पुकार रहा है? यहाँ तो कोई आता नहीं कभी भी… आवाज देने!”
कुछ ही देर में झोंपड़ी के द्वार पर एक वृद्ध महिला आकर खड़ी हो गई और कहा, “बोल… क्या कहना है? कौन हो तुम? क्या चाहिए तुम्हें?”
साधुवेशी तेनाली राम ने अपने कंधे से लटके कमंडल से कुछ फल निकालकर उस वृद्धा को दिया और कहा, “यही देने आया था, “माँ!”
वृद्धा चकित दृष्टि से साधुवेशी तेनाली राम और उसके साथ राजसी परिधान में खड़े महाराज कृष्णदेव राय को देख रही थी और साधुवेशी तेनाली राम महाराज कृष्णदेव राय से मन्द स्वर में कह रहा था, “देखो राजन! यह वृद्धा भी तुम्हारे वैभवशाली विजयनगर की प्रजा है। इसके प्रति भी तुम्हारा कुछ कर्तव्य है।… अब चलो! मैंने वृथा ही तुम्हें कष्ट नहीं दिया। अब सूरज ढलने से पहले तुम्हें तुम्हारे राजभवन के द्वार तक पहुँचाना मेरा कर्तव्य है। यहाँ के मार्ग तुम्हारे लिए अपरिचित से हैं… कहीं भटक न जाओ…”
महाराज कृष्णदेव राय के लिए वह वृद्धा और वहाँ का सम्पूर्ण परिवेश पूरी तरह अपरिचित था। उनकी कल्पना में भी कभी यह बात नहीं आई थी कि उनके राज्य में भी ऐसी वृद्धा रहती है। ऐसी विवश और अकल्पनीय स्थिति में भी लोग साँसें ले सकते हैं, यह अब तक उनके अनुभव क्षेत्रा में नहीं आया था।
साधुवेशी तेनाली राम ने महाराज कृष्णदेव राय के साथ चलते हुए अपनी बातें जारी रखीं। उसने महाराज से कहा, “राजन! यह वृद्धा कुष्ठ रोगी है और अपने परिजनों द्वारा बहिष्कृत है। गाँववालों ने इस वृद्धा के ग्राम प्रवेश को वर्जित कर दिया है कि कहीं इस वृद्धा के सम्पर्क में आने से कोई अन्य इस गलित रोग का शिकार हो जाए। ऐसी ऐसी अनेक वास्तविक्ताओं से परिचित होने के बाद ही तुम अपने राज्य की सम्पदा का सही उपयोग करने के योग्य बन सकोगे !”
बातें करते हुए दोनों घोड़े के पास आ चुके थे। तभी साधुवेशी तेनाली राम ने पूछा, “क्यों राजन! अपने राज्य की इन वास्तविकताओं से परिचित होने के बाद तुम्हें कैसा लग रहा है? क्या तुम समझ पा रहे हो कि राज्य की सम्पदा का उपयोग कैसे और कहाँ होना चाहिए?”
महाराज कृष्णदेव राय से रहा नहीं गया। वे अपने वैभव-प्रदर्शन के निर्णय के कारण लज्जित थे और अपने राज्य के पीडित जनों को देखकर द्रवित हो उठे थे। पश्चात्ताप-भरे स्वरों में उन्होंने कहा, “महाराज! आपने मुझे प्रजाजनों को देखने की नवीन दृष्टि दी है। मैं आपका ऋणी हूँ।” ऐसा कहकर वे विनीत भाव से साधुवेशी तेनाली राम के पैरों पर गिर पड़े, “मुझे क्षमा करें महाराज! मैं अहंकार के वशीभूत होकर दर्प भरा निर्णय ले बैठा।”
साधुवेशी तेनाली राम ने महाराज को कन्धा पकड़कर उठाया और अपने वास्तवकि स्वर में बोल पड़ा, “अरे… अरे महाराज ! ऐसा न करें! मैं तो आपका सेवक तेनाली राम हूँ।” ऐसा कहते हुए तेनाली राम ने अपने जटाजूट और दाढ़ी-मूँछ उतारकर अपना वास्तविक चेहरा महाराज कृष्णदेव राय को दिखा दिया।
महाराज ने उसे गले लगाते हुए कहा, “तुमने मेरी आँखें खोल दीं, तेनाली राम!”
फिर, दोनों घोड़े पर सवार होकर राजधानी लौट आए।
विजयनगर के राजप्रासाद में दूसरे दिन से सब कुछ सामान्य हो गया। महाराज कृष्णदेव राय नियमित दरबार लगाने लगे। उस वर्ष विजयनगर में पहले से भी अधिक उमंग में विजयोत्सव मनाया गया। विजयोत्सव में सैनिकों की शौर्यकलाओं के प्रदर्शन का कार्यक्रम रद्द कर दिया गया और पहले की भाँति ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रही।
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