शास्त्रकार ने कहा है- तारयितुं समर्थः इति तीर्थः। अर्थात् जो तार देने, पार कर देने में समर्थ होता है, वह तीर्थ कहलाता है। तरना सद्विचारों, सत्कर्मों एवं संतों के सत्संग से ही हो सकता है। जिन स्थानों में देवी-देवताओं की शक्तियों का प्रभाव, प्राकृतिक सौंदर्य, विशेष तेजोमय जल, संतों, महात्माओं का सत्संग आदि प्राप्त होते हैं, उन्हें ही तीर्थस्थान कहा जाता है। तीर्थयात्रा के पुण्यफल का उल्लेख धर्मशास्त्रों में अनेक बार हुआ है। शिवपुराण, पद्मपुराण व स्कंदपुराण का बहुत बड़ा भाग तीर्थ माहात्म्य से ही भरा पड़ा है। महाभारत, वेदों, पुराणों, उपपुराणों में तीर्थ करने से पापों से निवृत्ति, पुण्य संचय, मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति, देवताओं की अनुकंपा, आत्मशांति, मनोकामनाओं की पूर्ति जैसे लाभ गिनाए गए हैं, जिन्हें पढ़कर धर्म प्रेमी सहज ही श्रद्धापूर्वक तीर्थयात्राएं करते हैं। महाभारत, वन पर्व में कहा गया है कि जो पुण्य अग्निष्टोम जैसे विशाल यज्ञों से उपलब्ध नहीं हो सकता, वह तीर्थ यात्रा से, तीर्थ सेवन से सहज सुलभहो जाता है। अश्रद्धा युक्त मात्र पर्यटन और मनोरंजन के लिए इधर-उधर परिभ्रमण करने वाले संशयात्मा व्यक्ति इस पुण्य-फल को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकते। तीर्थ यात्रा का उद्देश्य है- अंतःकरण की शुद्धि और आत्म कल्याण। अतः आत्म कल्याण के इच्छुक को तीर्थयात्रा का पुण्य लाभ लेना चाहिए।
पुलस्त्य ऋषि ने कहा है-
पुष्करे तु कुरुक्षेत्रे गंगायां मगधेषु च।
स्नात्वा तारयते जन्तुः सप्त सप्तावरांस्तथा ॥
– महाभारत/वनपर्व 85/92
अर्थात् पुष्कर, कुरुक्षेत्र, गंगा और मगध देशीय तीर्थों में स्नान करने वाला मनुष्य अपनी सात पीछे की और सात आगे की पीढ़ियों का उद्धार कर देता है।
देवी भागवत में कहा गया है कि जिस प्रकार कृषि का फल अन्न उत्पादन है, उसी प्रकार निष्पाप बनना ही तीर्थयात्रा का प्रतिफल है।
अथर्ववेद 18/4/7 में कहा गया है कि तीर्थयात्रा करने वाले तीर्थयात्री तीर्थादि द्वारा बड़े-बड़े पापों और आपत्तियों से मुक्त होकर पुण्यलोक की प्राप्ति करते हैं।
शास्त्रकारों ने कहा है कि तीर्थ में जिसकी जैसी और जितनी श्रद्धा होती है, उसे वैसा ही फल मिलता है। ‘जो यथोक्त विधि से तीर्थ यात्रा करते हैं, संपूर्ण द्वंद्वों को सहन करने वाले हैं, वे धीर पुरुष स्वर्ग में जाते हैं’, ऐसा नारदपुराण में लिखा है-
कामं क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थमाविशेत् ।
न तेन किंचिदप्राप्तं तीर्थाभिगमनाद् भवेत् ॥
– नारदपुराण
जो काम, क्रोध और लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थयात्रा से सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
स्कंदपुराण में तीर्थ फल के संबंध में लिखा है-
यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम् ।
निर्विकाराः क्रियाः सर्वा स तीर्थफलमश्नुते ॥
– स्कंदपुराण मा. कुमा. 2/6
अर्थात् जिसके हाथ, पैर और मन भली-भांति संयम में हों तथा जिसकी सभी क्रियाएं निर्विकार भाव से संपन्न होती हों, वही तीर्थ का पूरा फल प्राप्त करता है।
स्कंदपुराण में तीर्थ के संबंध में कहा गया है कि सत्य तीर्थ है। क्षमा करना तीर्थ के समान फलदायक है। इंद्रियों पर नियंत्रण करना तीर्थ के समान उपकारी है। सब प्राणियों पर दया करना तीर्थ के समान पुण्य देने वाला है और सरल जीवन भी तीर्थ ही समझना चाहिए। तीर्थों में सबसे श्रेष्ठ है अंतःकरण की अत्यंत विशुद्धि ।
यस्य हस्तौ च पादौ च वाङ्मनस्तु सुसंयते।
विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्रुते॥
अश्रद्दधानः पापात्मा नास्तिकोऽच्छिसंशयः।
हेतुनिष्ठाश्च पंचैते न तीर्थफलभागिनः॥
– भविष्यपुराण, उत्तरा. 122/7-8
अर्थात् जिसके हाथ, पैर, मन और वाणी सुसंयत हैं तथा जिसकी विद्या, कीर्ति और तपस्या पूरी है, उसे ही तीर्थ का फल मिलता है। श्रद्धारहित, पापी, संशयग्रस्त, नास्तिक और तार्किक इन पांच प्रकार के लोगों को तीर्थ का फल नहीं मिलता ।
पद्मपुराण में कहा गया है कि तीर्थों में ब्रह्मपरायण, साधु-सज्जन मिलते हैं। उनका दर्शन मनुष्यों की पाप राशि को जला डालने के लिए अग्नि के समान है।
तीर्थ के संबंध में शास्त्रकारों का यह भी कहना है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद ये सब मन के मैल हैं। मन का निर्मल रहना परम तीर्थ है।
महाभारत समाप्त होने के उपरांत धर्मराज युधिष्ठिर ने तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया। साथ में चारों भाई अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और द्रोपदी भी थी। प्रस्थान करने के पूर्व वे भगवान् श्रीकृष्ण के पास गए, तो उन्होंने अपना कमंडलु देते हुए कहा- ‘जहां-जहां तीर्थ स्थानों, नदियों और सरोवरों में आपको स्नान करने का अवसर मिले, वहां-वहां इसे भी डुबो देना।’
काफी दिनों बाद जब वे लौटे, तो उन्होंने कमंडलु लौटाते हुए श्रीकृष्ण को बताया कि उसे सभी स्नान के स्थानों पर डुबोया गया है। इस पर कृष्ण ने उसे जमीन पर पटक कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया और प्रसाद के रूप में उपस्थित लोगों में वितरित कर दिया। जिसने भी प्रसाद चखा, मुंह कड़वा हो गया। लोगों को थूकते और मुंह बनाते देख श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से पूछा- ‘यह इतने तीर्थों में घूमकर आ रहा है और स्नान भी कर आया है फिर भी इसका कड़वापन दूर क्यों नहीं हुआ ?’
धर्मराज ने कहा- ‘आप भी कैसी बात करते हैं, कहीं धोने मात्र से कमंडलु का कड़वापन निकल सकता है ?’
भगवान् कृष्ण ने समाधान करते हुए कहा- ‘यदि ऐसा है तो तीर्थ स्नान का बाह्योपचार करने मात्र से अंतः का परिष्कार, धुलाई, मार्जन कैसे हो सकता है?’ धर्मराज ने अपनी गलती सुधारी और आत्मशोधन की गरिमा को जाना।
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