धार्मिक शास्त्रों के अनुसार ललाट पर तिलक या टीका धारण करना एक आवश्यक कार्य है, क्योंकि यह हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। कोई भी धार्मिक आयोजन या संस्कार बिना तिलक के पूर्ण नहीं माना जाता। जन्म से लेकर मृत्यु शय्या तक इसका प्रयोग किया जाता है। यों तो देवी-देवताओं, योगियों, संतों-महात्माओं के मस्तक पर हमेशा तिलक लगा मिलता है, लेकिन आम लोगों में धार्मिक आयोजनों, पूजा-पाठ, संस्कारों के अवसरों पर तिलक लगाने का प्रचलन आम है।

भारतीय परंपरा के अनुसार तिलक लगाना सम्मान का सूचक भी माना जाता है। अतिथियों को तिलक लगाकर विदा करते हैं, शुभ यात्रा पर जाते समय शुभकामनाएं प्रकट करने के लिए तिलक लगाने की प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही है। ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मपर्व 26 में कहा गया है-
स्नानं दानं तपो होमो देवतापितृकर्म्म च ।
तत्सर्वं निष्फलं याति ललाटे तिलकं विना ।
ब्राह्मणास्तिलकं कृत्वा, कुर्यात्संध्यान्यतर्पणम् ॥
अर्थात् स्नान, होम, देव और पितृकर्म करते समय यदि तिलक न लगा हो, तो यह सब कार्य निष्फल हो जाते हैं। ब्राह्मण को चाहिए कि वह तिलक धारण करने के बाद ही संध्या, तर्पण आदि संपन्न करे।
Tilak Lagane Ka Tarika
स्कंदपुराण में बताया गया है कि कौन-सी अंगुली से तिलक धारण करने से क्या-क्या फल मिलते हैं यथा-
अनामिक शांतिदा प्रोक्ता मध्यमायुष्करी भवेत् ।
अंगुष्ठः पुष्टिदः प्रोक्ता तर्जनी मोक्षदायिनी ॥
अर्थात् अनामिका से तिलक करने से शाति, मध्यमा से आयु, अंगूठे से स्वास्थ्य और तर्जनी से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इसके अलावा ब्राह्मण भोजन हेतु किया गया तिलक तीन अंगुली से पूरे ललाट पर, विष्णु की उपासना में ऊर्ध्व तिलक दो पतली रेखा में, शक्ति के उपासक (शिवशक्ति) स्वरूप दो बिंदी और महादेव के भक्त त्रिपुंड तीन रेखाओं का आड़ा तिलक लगाते हैं। शास्त्रों के मतानुसार श्राद्ध, यज्ञ, जप, देवपूजन में त्रिपुंड धारण करने वाले व्यक्ति मृत्यु पर विजय प्राप्त करते हैं।
उल्लेखनीय है कि हमारे मस्तिष्क (ललाट) से ही तिलक, टीका, बिंदिया का संबंध इसलिए जोड़ा गया है कि सारे शरीर का संचालन कार्य वही करता है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने शिवनेत्र की जगह को ही पूजनीय माना है। पवित्र विचारों का उदय मस्तिष्क पर तिलक लगाने से होता है। ललाट के मध्य मानव शरीर का वह बिंदु हैं, जिससे निरंतर चेतन अथवा अचेतन दोनों अवस्थाओं में विचारों का झरना प्रवाहित होता रहता है। इसी को आज्ञाचक्र भी कहते हैं। प्रमस्तिष्क, मस्तिष्क का वह ऊपरी भाग है, जो मनुष्य को देवता अथवा राक्षस, प्रकांड विद्वान् अथवा मूर्ख बनाने की शक्ति रखता है। हमारी दोनों भौंहों के बीच सुषुम्ना, इड़ा और पिंगला नाड़ियों के ज्ञान तंतुओं का केंद्र मस्तिष्क ही है, जो दिव्य नेत्र या तृतीय नेत्र के समान माना जाता है। इस पर तिलक लगाने से आज्ञा चक्र जाग्रत होकर व्यक्ति की शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाता है, जिससे उसका ओज और तेज बढ़ता है। शरीरशास्त्र की दृष्टि से यह स्थान पीयूष ग्रंथि (पीनियल ग्लैंड) का है, जहां अमृत का वास होता है। इसका स्राव सोमरस के तुल्य माना गया है। ललाट पर नियमित रूप से तिलक लगाते रहने से शीतलता, तरावट एवं शांति का अनुभव होता है। मस्तिष्क के रसायनों सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन का स्राव संतुलित रहने से मनोभावों में सुधार आकर उदासी दूर होती है। सिर दर्द की पीड़ा नहीं सताती और मेधाशक्ति तेज होती है। मन निर्मल होकर हमें सपथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित करता है। विवेकशीलता बनी रहती है और आत्म-विश्वास बढ़ता है।
आमतौर पर चंदन, कुंकुम, मृत्तिका, भस्म का तिलक लगाया जाता है। चंदन के तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञान तंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं, मस्तिष्क को शीतलता और शांति मिलती है। कुंकुम में हलदी का संयोजन होने से त्वचा को शुद्ध रखने में सहायता मिलती है और मस्तिष्क के स्नायुओं का संयोजन प्राकृतिक रूप में हो जाता है। संक्रामक कीटाणुओं को नष्ट करने में शुद्ध मृत्तिका का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। यज्ञ की भस्म का तिलक करने से सौभाग्य की वृद्धि होती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है। तंत्रशास्त्र में वशीकरण आदि के लिए भी तिलक लगाया जाता है।
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