मृत्यु के उपरांत प्राणी को स्वर्ग या नरक प्राप्त होता है, इस बात को संसार के समस्त धर्म एक स्वर से स्वीकार करते हैं। इस प्रकार मनुष्य को मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच में स्वर्ग-नरक भोगना पड़ता है। इस संबंध में गरुड्पुराण में बताया गया है कि यमलोक में ‘चित्रगुप्त’ नामक देवता हर एक जीव के पाप-पुण्य का ब्यौरा लिखते रहते हैं। जब मनुष्य मर कर यमलोक में जाता है, तो उसी लेखे के आधार पर शुभ कर्मों के लिए स्वर्ग और दुष्कर्मों के लिए नरक में भेजा जाता है।

कहा जाता है कि स्वर्ग देवताओं की नगरी है, जहां सभी प्राणी सुख भोग करते हैं। इस नगरी का स्वामी इंद्र है। स्वर्ग का सुख इंद्रियों का सुख नहीं, वरन् अंतःकरण यानी मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का आनंद है, जो इंद्रिय सुख की अपेक्षा काफी ऊंचे दर्जे का माना गया है।

धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि-

सब प्राणियों पर दया करने वाले, पराये धन में आसक्ति न रखने वाले, दानवीर, मृदुभाषी, प्राणियों के प्रति प्रेम भाव रखने वाले, पराई स्त्रियों में सदा माता, बहन, पुत्री की छवि देखने वाले तथा जो अन्याय से धन नहीं कमाते, चोरी नहीं करते, अपने धन में संतुष्ट रहते हैं, असत्य भाषण नहीं करते, किसी से बैर नहीं करते, किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाते, चित्त में मित्रता का भाव रखते हैं और जो इंद्रियजित हैं, उन सभी को स्वर्ग का सुख मिलता है। सच तो यह है कि ऐसे प्राणियों के लिए धरती पर ही स्वर्ग है।

इस संबंध में एक दृष्टांत लोक प्रचलित है-

एक बार विधाता ने घोषणा कर दी कि एक सप्ताह के लिए कर्मों का प्रतिबंध हटा दिया गया है, जो भी चाहे स्वर्ग आ सकता है। स्वर्ग के इच्छुक लोगों की लंबी कतार स्वर्गलोक के द्वार पर लगनी शुरू हो गई। एक व्यक्ति सर पर लकड़ियां लिए हुए घर की ओर जा रहा था तो विधाता ने विमान रोककर उससे पूछा- ‘क्यों भाई तुम्हें स्वर्ग जाने का समाचार नहीं मिला क्या?’ ‘सुना तो है, महाराज! पर मुझे तो अपने हंसते हुए बच्चों की किलकारियों, प्यार देती पतिव्रता पत्नी, मिलकर काम करने वाले भाइयों और परस्पर सहयोग व मैत्री का व्यवहार करने वाले पड़ोसियों में ही स्वर्ग दिखाई देता है। फिर भला मैं इस स्वर्ग को छोड़कर कहां आकाश में मारा-मारा फिरूं।’ वृद्ध ने संतोष की सांस लेते हुए कहा।

नरक में प्राणी को तरह-तरह के कष्ट मिलते हैं, इसलिए नरक जाने वालों को दुखों की अनुभूति होती है। यमलोक के पास ही सात नरक बताए गए हैं। इनके रूपों को बहुत ही भयंकर बताया गया है। धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि कामी, पाखंडी, कृतघ्न, ब्राह्मणों के धन को हरने वाले, पराई स्त्री से संबंध बनाने वाले, पराए धन को हजम करने वाले, हिंसा करने वाले, अनाथ, दीन, रोगी और वृद्ध पर दया न करने वाले तथा छल-कपट करने वाले नरक का दुख भुगतते हैं। गीता में नरक के तीन द्वार-काम, क्रोध, लोभ बताए गए हैं।

देव, मानव स्वर्ग के अधिकारी होने पर भी परपीड़ा निवारण हेतु नरक स्वीकारते हैं। युधिष्ठिर को एक दिन का नरक मिला और 100 वर्षों का स्वर्ग। पहले क्या भुगतना है, पूछे जाने पर उन्होंने नरक पसंद किया। नरक में उनके शरीर से शीतल गंध आने लगी और नरकवासियों को राहत मिली। वे कहने लगे कि आप यहीं रहें। युधिष्ठिर ने अपना पुण्य नरकवासियों को दे स्वर्ग पहुंचा दिया। स्वयं उनका पाप ओढ़कर नरक में रहने लगे। नरक का वातावरण युधिष्ठिर के रहने से स्वर्ग जैसा बन गया।

swarg-narak ki kalpana ka aadhar kya hai

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