कूर्मपुराण के अध्याय 18, श्लोक 6 से 9 में कहा गया है-‘दृष्ट और अदृष्ट फल देने वाले प्रातःकालीन शुभस्नान की सभी प्रशंसा करते हैं। नित्य प्रातः काल स्नान करने से ही ऋषियों का ऋषित्व है। सोये हुए व्यक्ति के मुख से निरंतर लार बहती रहती है, अतः सर्वप्रथम स्नान किए बिना कोई कर्म नहीं करना चाहिए। प्रातः स्नान से अलक्ष्मी, कालकर्णी, दुःस्वप्न, बुरे विचार और अन्य पाप दूर हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं। बिना स्नान के मनुष्यों को पवित्र करने वाला कोई कर्म नहीं बतलाया गया है। अतः होम तथा जप के समय विशेष रूप से स्नान करना चाहिए।

puja se pahle snan kyu karna chahiye
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इसमें कोई संदेह नहीं कि पवित्रता, शुद्धता, स्वच्छता मानव जीवन को ऊंचा उठाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण है। शरीर को स्वस्थ, मन को प्रसन्न और आत्मा को शांत रखने में पवित्रीकरण का बड़ा योगदान है। शरीर और मन दोनों की पवित्रता से स्नान का वास्तविक अर्थ पूरा होता है। अतः पूजा-पाठ, योग-साधना की प्रारंभिक योग्यता प्राप्त करने के लिए सबसे पहले शरीर और उसके पश्चात् मन का स्वच्छ, पवित्र होना जरूरी है।

पवित्रता बाहरी और भीतरी दो प्रकार की होती है। जल, मिट्टी, साबुन के द्वारा शरीर और वस्त्र की शुद्धि तथा न्याय से उपार्जित सात्विक आहार से बाहरी पवित्रता आती है, जबकि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ममता, राग, द्वेष, ईर्ष्या, छल, कपट आदि विकारों को नष्ट करने, त्यागने से भीतरी यानी अंतःकरण की पवित्रता आती है।

श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि भगवान् के भक्त में पवित्रता की पराकाष्ठा होती है। इसके मन, बुद्धि, इंद्रिय, आचरण और शरीर आदि इतने पवित्र हो जाते हैं कि उसके साथ वार्ता, दर्शन और स्पर्श मात्र से ही दूसरे लोग पवित्र हो जाते हैं। ऐसा भक्त जहां निवास करता है, वहां का स्थान, वायुमंडल, जल आदि सब पवित्र हो जाते हैं।

नित्य स्नान की महिमा बताते हुए धर्म शास्त्रकार यक्ष कहते हैं ‘नौ द्वारों वाला यह शरीर अत्यंत मलिन है। नवों द्वारों से प्रति दिन मल निकलता रहता है, जिससे शरीर दूषित हो जाता है। यह मल प्रायः स्नान से दूर हो जाता है और शरीर भी निर्मल हो जाता है। बिना स्नान आदि से पवित्र हुए जप, होम, देवपूजन आदि कोई भी कर्म नहीं करना चाहिए।

स्नान से लाभों के संबंध में कहा गया है-

गुणा दश स्नानकृतो हि पुंसो रूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।
आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं दुःस्वप्ननाशं च तपश्च मेधा ॥
– विश्वामित्र स्मृति 1/86
अर्थात् विधि पूर्वक नित्य प्रातः काल स्नान करने वाले को रूप, तेज, बल, पवित्रता, आयु, आरोग्य, निलोभता, तप और मेधा प्राप्त होते हैं तथा उसके दुःस्वप्नों का नाश होता है।

स्नान की महत्ता भविष्यपुराण में इस तरह से बताई गई है-

नैर्मल्यं भावशुद्धिश्च विना स्नानं न युज्यते।
तस्मात् कायविशुद्धयर्थं स्नानमादौ विधीयते ॥
अनुद्धतैरुद्धतैर्वा जलैः स्नानं समाचरेत् ।
– भविष्यपुराण, उत्तरा. 123/1-8
अर्थात् स्नान के बिना चित्त की निर्मलता और भावशुद्धि नहीं आती। अतएव शरीर की शुद्धि के लिए सर्वप्रथम स्नान का ही विधान है। नदी आदि में जल में प्रवेश कर और कूष आदि पर जल को बाहर निकाल कर स्नान करना चाहिए।

देवी भागवत में स्नान की महत्ता के संबंध में कहा गया है-

अस्नातस्त क्रियाः सर्वा भवन्ति बिफला यतः ।
तस्मात्प्रातश्चरेत्स्नानं नित्यमेव दिने दिने ॥
– देवी भागवत रुद्राक्ष माहात्म्य/7
अर्थात् प्रातः स्नान के न करने से दिन भर के सभी कर्म फलहीन हो जाते हैं, इसलिए प्रातः स्नान प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए।

स्कंदपुराण में स्नान के संबंध में कहा गया है-

न जलाप्लुतदेहस्य स्नानमित्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नातः शुचिः शुद्धनोमलः ॥
– काशीखंड अध्याय 6
अर्थात् जल में शरीर को डुबो लेना ही स्नान नहीं कहलाता। जिसने दमरूपी तीर्थ में स्नान किया है-मन, इंद्रियों को वश में कर रखा है, उसी ने वास्तव में स्नान किया है। जिसने मन का मैल धो डाला है, वही शुद्ध है।

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