हिंदू धर्म में पिंडदान की परंपरा वेदकाल से ही प्रचलित है। मरणोपरांत पिंडदान किया जाता है। दस दिन तक दिए गए पिंडों से शरीर बनता है। क्षुधा का जन्म होते ही ग्यारहवें व बारहवें दिन सूक्ष्म जीव श्राद्ध का भोजन करता है। ऐसा माना जाता है कि तेरहवें दिन यमदूतों के इशारे पर नाचता हुआ यमलोक चला जाता है। पितरों के मोक्ष के लिए यह एक अनिवार्य परंपरा है और इसका बहुत अधिक धार्मिक महत्त्व है।

योगवासिष्ठ में बताया गया है-

आदौ मृता वयमिति बुध्यन्ते तदनुक्रमात् ।
बंधु पिण्डादिदानेन प्रोत्पन्ना इवा वेदिनः ॥
– योगवासिष्ठ 3/55/27

अर्थात् प्रेत अपनी स्थिति को इस प्रकार अनुभव करते हैं कि हम मर गए हैं और अब बंधुओं के पिंडदान से हमारा नया शरीर बना है। चूंकि यह अनुभूति भावनात्मक ही होती है, इसलिए पिंडदान का महत्त्व उससे जुड़ी भावनाओं की बदौलत ही होता है। ये भावनाएं प्रेतों-पितरों को स्पर्श करती हैं।

Pind Daan Gaya Mein Kyon Kiya Jata Hai
Pind Daan Gaya Mein Kyon Kiya Jata Hai

पिंडदानादि पाकर पितृगण प्रसन्न होकर सुख, समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं और पितृलोक को लौट जाते हैं। जो पुत्र इसे नहीं करते, उनके पितर उन्हें शाप भी देते हैं।

कहा जाता है कि सर्वप्रथम सत्युग में ब्रह्माजी ने गया में पिंडदान किया था, तभी से यहां परंपरा जारी है। पितृपक्ष में पिंडदान का विशेष महत्त्व है। पिंडदान के लिए जी या गेहूं के आटे में तिल या चावल का आटा मिलाकर इसे दूध में पकाते हैं और शहद तथा घी मिलाकर लगभग 100 ग्राम के 7 पिंड बनाते हैं। एक पिंड मृतात्मा के लिए और छह जिन्हें तर्पण किए जाते हैं, उनके लिए समर्पित करने का विधान है।

प्राचीन काल में पिंडदान का कार्य वर्षभर चलता था। यात्री 360 वेदियों पर गेहूं, जौ के आटे में खोया मिलाकर तथा अलग से बालू के पिंड बनाकर दान करते थे। अब विष्णु मंदिर, अक्षय, वट, फल्गू और पुनपुन नदी, रामकुंड, सीता कुंड, ब्रह्म मंगलगौरी, कागवलि, वैतरणी तथा पंचाय तीर्थों सहित 48 वेदियां शेष हैं, जहां पिंडदान किया जाता है।

वायुपुराण में दी गई गया माहात्म्य कथानुसार ब्रह्मा ने सृष्टि रचते समय गयासुर नामक एक दैत्य को उत्पन्न किया। उसने कोलाहल पर्वत पर घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर विष्णु ने वर मांगने को कहा। इस पर गयासुर ने वर मांगा, ‘मेरे स्पर्श से सुर, असुर, कीट, पतंग, पापी, ऋषि-मुनि, प्रेत आदि पवित्र होकर मुक्ति प्राप्त करें।’ उसी दिन से गयासुर के दर्शन और स्पर्श से सभी जीव मुक्ति प्राप्त कर बैकुंठ जाने लगे।

कूर्मपुराण में कहा गया है-

गयातीर्थ परं गुह्यं पितृणां चातिवल्लभम् ।
कृत्वा पिण्डप्रदानं तु न भूयो जायते नरः ॥
सकृद् गयाभिगमनं कृत्वा पिण्डं ददाति यः।
तारिताः पितरस्तेन यास्यन्ति परमांगतिम् ॥
– कूर्मपुराण 34/7-8

अर्थात् गया नामक परम तीर्थ पितरों को अत्यंत प्रिय है। यहां पिंडदान करके मनुष्य का पुनः जन्म नहीं होता। जो एक बार भी गया जाकर पिंडदान करता है, उसके द्वारा तारे गए पितर परम गति को प्राप्त करते हैं और नरक आदि कष्टप्रद लोकों से मुक्त हो जाते हैं।

कूर्मपुराण में आगे यह भी लिखा है कि वे मनुष्य धन्य हैं, जो गया में पिंडदान करते हैं, वे माता-पिता दोनों के कुल की सात पीढ़ियों का उद्धार कर स्वयं भी परम गति को प्राप्त करते हैं।
पिंडदान का अधिकार पुत्र के या वंश के किसी अन्य पुरुष को ही होता है। किंतु 1985 में मिथिला के पंडितों द्वारा स्त्रियों को भी पिंडदान का अधिकार दे दिया गया है। इस संबंध में सीताजी द्वारा दशरथ को किए गए पिंडदान का आख्यान प्रसिद्ध है।

सीता द्वारा पिंडदान: कहा जाता है कि राम, लक्ष्मण और सीता जब पिता दशरथ का पिंडदान करने गया में फल्गू नदी के तट पर पहुंचे, तो वे सीता को छोड़कर पिंड सामग्री जुटाने चले गए। इस बीच आकाशवाणी होने से पता चला कि शुभ मुहूर्त निकला जा रहा है, अतः सीता ही पिंडदान कर दें। स्थिति को देखते हुए सीता ने गायों, फल्गू नदी, केतकी पुष्पों और अग्नि को साक्षी मानकर श्वसुर दशरथ को बालू के पिंड बनाकर दान कर दिए। जब राम और लक्ष्मण लौटे तो सीता ने इस घटना को बताया, लेकिन उन्हें विश्वास नहीं हुआ। तब सीता ने सभी साक्षियों को इसकी पुष्टि करने को कहा तो वटवृक्ष के अलावा किसी ने साक्षी न दी। इससे क्रोधित होकर सीता ने गायों को अपवित्र वस्तुएं खाने, फल्गू नदी को ऊपर से सूखी किंतु धरातल के नीचे बहने, केतकी पुष्प को शुभकार्य से वंचित रहने और अग्नि को संपर्क में आने वाली सभी वस्तुओं को नष्ट करने का शाप दे दिया तथा वटवृक्ष को हर ऋतु में हरा-भरा रहने का वरदान दे दिया।

Also Read This:

मृतक का तर्पण क्यों किया जाता है? Mritak Ka Tarpan Kyon Kiya Jata Hai?

फूल (अस्थियों) का गंगा आदि पवित्र नदियों में विसर्जन क्यों करते हैं?

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *