महाराज कृष्णदेव राय वृद्ध हो चले थे। उनका वंश उन दिनों बहुत प्रतापी समझा जाता था। स्वयं कृष्णदेव राय की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। विजयनगर की प्रजा अपने महाराज के प्रति अगाध श्रद्धा रखती थी। महाराज कृष्णदेव राय ने भी जीवनपर्यन्त अपनी प्रजा की भलाई के लिए कार्य किया था। जगह-जगह प्याऊ बनवाए, कुएँ खुदवाए, नहरें खुदवाईं। तीज-त्योहार के अवसरों पर प्रजा के बीच आवश्यक वस्तुएँ बँटवाईं। ऐसा प्रजापालक उस काल में कोई दूसरा राजा नहीं था। लेकिन इतनी ख्याति और सम्मान अर्जित करने के बाद भी महाराज कृष्णदेव राय दुखी थे। स्थिति ऐसी थी कि वे अपना दुख किसी से व्यक्त भी नहीं कर पाते थे। महाराज का दुख अपने जामाता (दामाद) के कारण था। उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह बहुत धूमधाम से किया था। विवाह से पूर्व उन्होंने अपने जामाता के विषय में पूरी जानकारी खुफिया विभाग से कराई थी। उनका जामाता बहुत शिक्षित था। शास्त्रों का अध्ययन किया था उसने और अल्पवय में ही शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर ली थी। अत्रा-शस्त्रा संचालन की कला में वह माहिर था। घुड़सवारी में वैसे ही पारंगत। शरीर से बलवान। सच्चरित्रा। इतने गुणों के बाद भी उनके किसी भी सम्बन्धी को उनका जामाता प्रिय नहीं लगा। विवाह के कुछ दिनों के बाद ही उनकी पुत्री दुखी रहने लगी। अपनी पुत्री के दुखी रहने के बारे में जब महाराज को जानकारी मिली तो वे बेचैन हो उठे और विजयनगर में एक राजसी महोत्सव आयोजित कर अपनी पुत्री और जामाता को इस अवसर पर विजयनगर आने का आमंत्रण दिया।
नियत तिथि को महाराज कृष्णदेव राय के आमंत्रण पर उनके बेटी दामाद विजयनगर पहुँचे। महोत्सव तो उन्हें बुलाने का बहाना था। महाराज ने बेटी-दामाद के आगमन के बाद महोत्सव को स्मरणीय बनाने के लिए राज्य भर के कलाकारों को जुटाया। आनन्द की मानो हर ओर वृष्टि हो रही थी। महाराज ने बहुत गम्भीरता से अपने दामाद के कार्य-कलापों का अध्ययन भी किया। उन्हें अपने दामाद में कोई कमी दिखाई नहीं दी। महोत्सव के समापन के बाद उन्होंने अपनी पुत्री से पीडित रहने का कारण जानना चाहा तब पुत्री ने बताया कि वह अपने पति के कटु वचनों से आहत होती है। ऐसे तो उसके प्रति उसके पति का व्यवहार ठीक है मगर वह कड़वा सच बोलने का अभ्यासी है। उसके इस अभ्यास के कारण उससे सभी घबराते हैं।
महाराज को पुत्री की पीड़ा का कारण समझ में आ गया।
दूसरे दिन महाराज ने अपने दामाद को स्नेहपूर्वक बुलाकर अपने पास बिठाया और कहा, “पुत्रा! अब मैं वृद्ध हो चला हैं। राज-काज सँभालते हुए वर्षों बीत चुके हैं। मैं चाहता है। कि तुम इसी तरह महीने-दो महीने के लिए आ जाया करो ताकि इस राज्य के बारे में भी तुम्हें आवश्यक ज्ञान हो जाए।”
महाराज की बात सुनकर उनके दामाद ने बहुत ही निद्रूवन्द्र भाव से कहा, “श्वसुर जी! वृद्ध तो सभी होते हैं। जो जन्मा है वह हमेशा शिशु तो नहीं रहेगा… बड़ा होगा और अपना दायित्व सँभालेगा और एक दिन वृद्ध भी होगा और मरेगा भी। इसमें ऐसी कोई बात नहीं है कि आप अपने दायित्व के निर्वाह के लिए मुझसे सहयोग की अपेक्षा रखें। मेरी अपनी दिनचर्या और अपने दायित्व हैं।”
अपने दामाद की बात सुनकर महाराज अचरज में पड़ गए। उन्हें विश्वास हो गया कि उनकी पुत्री ठीक ही कह रही थी। मन-ही-मन चिन्तित रहते हुए उन्होंने दामाद से थोड़ी देर तक सामान्य औपचारिकता की बातें कीं और फिर उससे विश्राम करने को कहकर स्वयं अपने कक्ष में चले गए। उनकी व्याकुलता बढ़ चली थी। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपनी पुत्री की समस्या का समाधान करें तो कैसे करें। वे अपनी पुत्री को बहुत प्यार करते थे इसलिए उसकी परेशानी से और भी परेशान हो उठे थे। महाराज का मन कहीं भी नहीं लग रहा था। दरबार में भी उनका वही हाल रहा। मन में अवसाद हो तो कहीं भी, कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।
तेनाली राम महाराज की मनः स्थिति का अनुमान लगा चुका था। महाराज किस प्रकार की चिन्ता में हो सकते हैं इस बात का अनुमान वह नहीं लगा पाया था। दरबार सम्पन्न होने के बाद जब सारे सभासद लौट गए तब तेनाली राम ने महाराज के पास जाकर उनसे उनकी बेचैनी का कारण पूछा।
अब तक तेनाली राम महाराज का अन्तरंग हो चुका था। दरबार में उसकी हैसियत भले ही विदूषक की थी किन्तु अब वह महाराज का अनन्य सलाहकार भी बन चुका था। महाराज ने तेनाली राम को अपनी पुत्री की व्यथा-कथा और दामाद की कटु वाणी के बारे में पूरी बातें बता दीं। इससे महाराज का मन हलका हुआ। उन्हें विश्वास था कि समस्या उचित व्यक्ति तक पहुँच गई है और अब उसका समाधान भी सहजता से हो जाएगा।
तेनाली राम ने महाराज को दिलासा दिया कि जल्दी ही सब कुछ ठीक हो जाएगा, और महाराज से विदा लेकर अपने घर लौट आया।
महाराज दरबार में बैठे थे। दरबार की कार्रवाई सम्पन्न हो चुकी थी। सभी सभासद जा चुके थे। प्रह्रीगण इस बात की प्रतीक्षा में थे कि महाराज विश्राम के लिए भवन जाएँ तब वे भी दरबार का द्वार बन्द कर अपने घरों की ओर प्रस्थान करें।
महाराज अपने सिंहासन पर बैठे विचार कर रहे थे। तीन दिन हो गए तेनाली राम से पुत्री और जामाता के सन्दर्भ में बातें किए। मगर अब तक तेनाली राम ने कुछ किया नहीं। महाराज विचारमग्न भी थे और उदास भी क्योंकि उन्हें कोई दूसरा उपाय भी समझ में नहीं आ रहा था। आज सुबह ही हुई एक घटना से महाराज की चिन्ता बढ़ गई थी। सुबह कोई काम करते समय उनकी पुत्री की हथेली में काँटा चुभ गया जिसकी पीड़ा से वह चीख पड़ी। चीख इतनी तेज थी कि महाराज अपने कक्ष से बाहर निकल आए किन्तु पुत्री के पास ही एक आसन पर विराजमान उनका दामाद अपने स्थान से हिला भी नहीं और आसन पर बैठे-बैठे ही बोला, “चीखने से काँटा नहीं निकलेगा। असावधान रहकर कुछ भी करोगी तो ऐसे ही परिणाम सामने आएँगे। भविष्य में सावधान रहना सीखो। सुना नहीं है-सतर्कता गई, दुर्घटना हुई।”
उनकी पुत्री ने अपनी हथेली से काँटा निकालने का प्रयास करते हुए कहा, “कितने संवेदनहीन हो तुम!”
“मैंने कुछ भी अन्यथा नहीं कहा। तुम असावधान थीं इसलिए काँटा चुभा। इसमें संवेदनहीनता कहाँ से आ गई! दर्द तुम्हें हो रहा है। उसके परिणामस्वरूप तुम्हें किसी की शान्ति भंग करने का अधिकार तो नहीं मिल गया। भविष्य में कुछ भी करो तो सावधान होकर।” महाराज के दामाद ने कहा।
महाराज ने देखा, उनकी पुत्री सिसकते हुए अपनी हथेली से काँटा निकालने का प्रयास कर रही है और उनका दामाद अपने स्थान पर बैठा एक पुस्तक पढ़ रहा है। उन्होंने उन दोनों के बीच हुए संवादों को भी सुना था। उनकी चिन्ता का कारण भी यही था। महाराज को समझ में नहीं आ रहा था कि अपने दामाद को लोक-व्यवहार का ज्ञान कैसे दें। बातें उसने ठीक कही थीं। उसकी नसीहत भी समयानुकूल थी। मगर उसका व्यवहार स्थिति विशेष के अनुरूप नहीं था।
अपने सिंहासन पर बैठे महाराज के मन में ऊहापोह के बादल मंडरा रहे थे। महाराज अपनी पुत्री से बहुत प्यार करते थे इसलिए वे चाहते थे कि उसके पति को सीधे कुछ कहे बिना हीं लोक-व्यवहार की शिक्षा दी जाए। मगर कैसे? यही बात महाराज की समझ में नहीं आ रही थी। महाराज को बार-बार तेनाली राम का स्मरण हो रहा था। मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठ रही थीं। एक शंका यह भी थी कि कहीं तेनाली राम उनकी समस्या ही न विस्मृत कर बैठा हो। जब मन में शंका उठती है तो श्रद्धा के पात्र के प्रति भी अश्रद्धा का भाव उत्पन्न हो जाता है। महाराज के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने तत्काल प्रहरियों को बुलाकर निर्देश दिया कि तेनाली राम जहाँ कहीं भी हों, उन्हें अविलम्ब महल में मेरे समक्ष उपस्थित होने की सूचना दो।
रात्रि के प्रथम प्रहर में तेनाली राम महाराज के निर्देशानुसार उनके महल में उपस्थित था। वह अपने साथ एक थैला भी लेकर आया था। महाराज ने जब तेनाली राम को देखा तो उनके हृदय की शंका का स्वतः निवारण हो गया। उन्होंने तेनाली राम को अपने पास बैठाया और सुबह की घटना उसे सुना दी।
सब कुछ सुनने के बाद तेनाली राम ने महाराज से कहा, “महाराज! जो हो गया, उसके लिए पश्चात्ताप नहीं। असल में आपके जामाता पुस्तकों में ही रमे रहे हैं। उन्हें बाह्य जगत की व्यावहारिकता का बोध नहीं है जिसके कारण वे वैसी बातें भी कह देते हैं जो लोक-व्यवहार के अनुकूल नहीं। लेकिन विश्वास करें, यह समस्या अब एक-दो दिन की मेहमान है। अब तक मैं इसी समस्या के समाधान के लिए अपने ढंग से प्रयास करता रहा है। कल शाम को आप जामाता के साथ हुमारे घर पधारें। अभी तो थोड़ी देर के लिए उन्हें बुलवाएँ ताकि मैं स्वयं उन्हें आमंत्राण दे दूँ।”
महाराज को तेनाली राम पर विश्वास था। इसलिए स्वयं जाकर वे अपने दामाद को लेकर अपने कक्ष में आए, जहाँ तेनाली राम उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
महाराज ने अपने दामाद का परिचय तेनाली राम से कराया।
तेनाली राम ने महाराज के दामाद को अपने गले से लगाया। फिर अपने झोले में हाथ डालकर एक छोटा-सा फल निकाला बोला, “हम लोगों के यहाँ की परम्परा है कि जब हम दामाद से पहली बार मिलते हैं तो उसे अपने हाथों से फल खिलाते हैं।”
उसके अनुरोध पर महाराज के दामाद ने मुँह खोला और तेनाली राम ने वह फल उसके मुँह में डाल दिया। फल कड़वा था। महाराज का दामाद उसे थूकना चाह रहा था मगर तेनाली राम ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। अन्ततः दामाद को वह फल निगलना पड़ा। फल निगलने पर कड़वेपन के कारण उसका मुँह विकृत सा हो उठा जिसे देखकर तेनाली राम ने कहा, “अरे! तुम अपने इस सुन्दर मुँह को विकृत क्यों कर रहे हो… देखो, सामने आईने में कैसा लग रहा है तुम्हारा चेहरा!”
दामाद ने कहा, “इतना कड़वा फल खिलाया आपने तो उसका प्रभाव चेहरे पर पड़ेगा ही।”
तेनाली राम ने कहा, “अरे पुत्रा! कड़वा-मीठा का सम्बन्ध तो जीभ से है। उसका चेहरे पर भला असर क्यों होगा? खैर, जाने दो। अब यह फल खाओ।” इस बार तेनाली राम ने एक दूसरा रसदार छोटा फल दामाद के मुँह में डाल दिया।
दामाद का चेहरा फल मुँह में रखते ही खिल गया।
तेनाली राम ने कहा, “यह फल कैसा है?”
“अच्छा!” दामाद ने उत्तर दिया।
इसके बाद तेनाली राम ने महाराज और उनके दामाद को अपने घर आने का आमंत्राण दिया।
दूसरे दिन तेनाली राम अपने आवास पर इन लोगों की आवभगत में लगा हुआ था, उसी समय उसके दरवाजे पर एक वृद्ध महिला अपने पौत्र के साथ आकर खड़ी हो गई। उसके पौत्र ने ऊची आवाज में पुकारा, “अरे! इस घर में कौन रहता है… बाहर आओ।”
पौत्र की आवाज बहुत कर्कश थी। तभी सभी ने सुना, बुढिया अपने पौत्रा को समझा रही थी ‘इस तरह किसी को आवाज दोगे तो उसकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही होगी और तुम्हें भी जवाब मिलेगा-बाहर निकलो। ठहरो! देखो! अब मैं बुलाती हैं- कोई है बेटा… जरा बाहर आना… इस विवश बुढिया की बात तो सुनते जाना…।’
तत्काल तेनाली राम बाहुर निकला। उसने बुढिया की बात सुनी फिर दोनों को कक्ष में लाकर बैठाया तथा उनके लिए सुस्वादु भोजन मँगवाकर परोस दिया।
बुढिया और उसके पौत्रा ने भोजन किया। तृप्त हुए। तब तेनाली राम ने बुढिया से कहा, “माँ! तेरा पोता बहुत कर्कश स्वर में कड़वी बातें बोलता है।”
“हाँ, बेटा! मगर समझ जाएगा। अभी इसने दुनिया नहीं देखी है। वहीं दिखाने ले जा रही हूँ। मैंने आज इसे यही समझाया है कि कड़वे और मीठे का बोध सीधे जीभ को होता है। कड़वे का स्वाद विरक्त करता है जबकि मीठे से तृप्ति मिलती है। ऐसी ही स्थिति वाणी की है। वाणी का सम्बन्ध भी जिह्ना से है। मुँह से निकली बोली स्वयं पर नहीं, दूसरों पर असर करती है। मीठा बोलोगे तो मीठी प्रतिक्रिया होगी और कड़वा बोलोगे तो कड़वी।” वृद्धा ने कहा।
तेनाली राम ने वृद्धा को विदा किया। महाराज समझ चुके थे कि यह एक सोद्देश्य प्रायोजित दृश्य था जिसका प्रयोजन उनके दामाद को प्रबोध देना था। फिर भोजन आदि करने के बाद जब महाराज तेनाली राम के आवास से विदा हुए तब तेनाली राम ने उनके जामाता को ढेरों उपहार देकर विदा किया।
रास्ते भर महाराज मौन रहे। वे देखना चाहते थे कि तेनाली राम के प्रयास का क्या असर हुआ है। महल पहुँचकर उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ जब उनके दामाद ने विनम्रतापूर्वक पूछा, “मेरे लिए क्या निर्देश है?”
फूले न समाते हुए महाराज ने उसे विश्राम करने जाने की आज्ञा दे दी।
दूसरे दिन उनकी पुत्री ने आकर महाराज से बताया कि उसका पति इस तरह बदल चुका है कि अब कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कभी वह अव्यावहारिक भी रहा होगा। उसने विह्नल होकर पूछा, “मगर पिताश्री, यह चमत्कार हुआ कैसे?”
महाराज ने मुस्कुराते हुए कहा, “एक कड़वे फल से!”
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