हिंदू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी सेवा माना गया है। शास्त्र मातृ देवो भव, पित्र देवो भव आदि सम्मानित वचनों से माता-पिता को देवताओं के समान पूजनीय मानते हैं। माता का स्थान तो पिता से अधिक माना गया है-जननी और जन्म-भूमि को तो स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कहो गया है।
प्रत्यक्ष में माता और पिता के द्वारा ही संतान के शरीर का निर्माण होता है। अतः शरीर देने वाले सबसे पहले देवता माता-पिता ही हैं। माता संतान का पालन-पोषण करने के लिए नौ-दस मास तक कष्ट सहती है और अपने विचारों से संस्कार-संपन्न संतान को जन्म देती है, इसलिए माता-पिता संसार में सर्वाधिक पूजनीय हैं।

माता-पिता की इस सेवा के लिए ही हिंदू धर्म में पितृ ऋण की व्यवस्था है। इस ऋण को चुकाए बिना अथवा माता की अनुमति के बिना पुत्र को गृहस्थ जीवन से विमुख होने की आज्ञा नहीं है। संन्यास ग्रहण करने के लिए भी इस ऋण से मुक्त होना आवश्यक है।
ज्ञान पाने की दृष्टि से यद्यपि गुरु का बड़ा महत्त्व है, लेकिन माता को बच्चे की पहली गुरु कहकर सम्मानित किया गया है।
मनुस्मृति में स्पष्ट व्यवस्था दी गई है कि-
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥
– मनुस्मृति-2/145
अर्थात् उपाध्यायों से दस गुना श्रेष्ठ आचार्य, आचार्य से सौ गुना श्रेष्ठ पिता और पिता से हजार गुना श्रेष्ठ माता गौरव से युक्त होती है।
इस श्रेष्ठता का कारण स्पष्ट करते हुए मनु लिखते हैं-
यं मातापितरी क्लेशं सहेते संभवे नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥
– मनुस्मृति-2/227
अर्थात् प्राणियों की उत्पत्ति में माता-पिता को जो क्लेश सहन करना पड़ता है, उस क्लेश से वे (प्राणी) सौ वर्षों में भी निस्तार नहीं पा सकते। इसलिए मनु ने माता-पिता और गुरु इन तीन को सदा सेवा से प्रसन्न रखने के निर्देश दिए हैं। यह व्यवस्था जीवन के सत्य और लक्ष्य को पाने के लिए भी आवश्यक है-
इमं लोकं मातृभक्तया, पितृभक्तया तु मध्यमम् ।
गुरुशुश्रूषया त्वेवं ब्रह्मलोकं समश्नुते ॥
– मनुस्मृति-2/233
अर्थात् माता में भक्ति से इस लोक का, पिता में भक्ति से मध्य लोक का और गुरु में भक्ति से ब्रह्म लोक का सुख प्राप्त होता है। जिन पर इन तीनों की कृपा होती है, उनको सभी धर्मों का सम्मान मिलता है और जिन पर माता-पिता तथा गुरु की कृपा नहीं होती, उन्हें किसी धर्म के पालन से सम्मान नहीं मिलता। उनके सभी कर्म निष्फल होते हैं। अतः जब तक माता-पिता और गुरु जीवित रहें, तब तक उनकी सेवा ही करें और किसी अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। यही कर्तव्य है, यही साक्षात् धर्म है।
माता-पिता की महत्ता का उल्लेख शिवपुराण में यूं मिलता है-
पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति च। तस्य वै पृथिवीजन्यफलं भवति निश्चितम् ॥
अपहाय गृहे यो वै पितरोंतार्थमाव्रजेत्। तस्य पापं तथा प्रोक्तं हनने च तयोर्यथा ॥
पुत्रस्य च महत्तीर्थ पित्रोश्चरणकंजम्। अन्यतीर्थ तु दूरे वै गत्वा सम्प्राप्यते पुनः ॥
इदं संन्निहितं तीर्थ सुलभं धर्मसाधनम्। पुत्रस्य च स्त्रियाश्चैव तीर्थ गेहे सुशोभनम् ॥
– शिवपुराण, रुद्रसं.कु.खं. 19/39-42
अर्थात् जो पुत्र माता-पिता की पूजा करके उनकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पृथ्वी परिक्रमाजनित फल सुलभ हो जाता है। जो माता-पिता को घर पर छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए जाता है, वह माता-पिता की हत्या से मिलने वाले पाप का भागी होता है, क्योंकि पुत्र के लिए माता-पिता के चरण-सरोज ही महान तीर्थ हैं। अन्य तीर्थ तो दूर जाने पर प्राप्त होते हैं, परंतु धर्म का साधन भूत यह तीर्थ तो पास में ही सुलभ है। पुत्र के लिए (माता-पिता) और स्त्री के लिए (पति) सुंदर तीर्थ घर में ही वर्तमान है।
शास्त्रों की इस प्रकार की आज्ञा पालन करने वाले पुत्र के रूप में श्रवण कुमार का नाम अमर है। भगवान् श्रीराम माता और पिता की आज्ञा मानकर ही एक आदर्श पुत्र के रूप में चौदह वर्ष तक वनवास में रहे। अतः शास्त्र और महापुरुषों के चरित्र से प्रेरणा लेकर संतान को सदैव माता-पिता की सेवा को ही सबसे ऊंचा स्थान देना चाहिए।
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