एक दिन महाराज कृष्णदेव राय अपने दरबार में बैठे-बैठे ज्ञान-मीमांसा के लिए यह चर्चा छेड़ बैठे कि मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य और सबसे बड़ा दुर्भाग्य क्या है।
महाराज कृष्णदेव राय को उनके दरबारी बहुत दिनों के बाद अपनी स्वाभाविक मुद्रा में देख रहे थे। पड़ोसी राज्य ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के साथ युद्ध होने के बाद से दरबार में किसी ने महाराज कृष्णदेव राय को मुस्कुराते नहीं देखा था। इसलिए जब महाराज ने यह चर्चा छेड़ी तो दरबारी इस चर्चा में उत्साहपूर्वक भाग लेने लगे।
एक दरबारी ने कहा, “महाराज! मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति सबसे बड़ा सौभाग्य है और प्रयासों के बाद भी कामनाओं की पूर्ति नहीं हो पाना सबसे बड़ा दुर्भाग्य!”
एक अन्य दरबारी ने कहा, “महाराज! अपनी भूलों को समझकर अपने आचरण में सुधार करना सौभाग्य है और अपनी भूलों को समझे बिना गतिशील रहना दुर्भाग्य है।”
महाराज कृष्णदेव राय बहुत देर तक इसी तरह की बातों में लगे रहे। उनके दरबार में विद्वानों की कमी तो थी नहीं इसलिए सौभाग्य और दुर्भाग्य पर अनेक विचार प्रकट हुए। महाराज अपने सभासदों की वाक्पटुता और विचारों से कई बार प्रभावित और पुलकित हुए। उन्हें लगा कि इस चर्चा के क्रम में ऐसी वाणी भी प्रकट हो रही है जिसका उपयोग भविष्य में भी किया जा सकता है। उन्होंने महामंत्री से कहा, “आप वक्ताओं के कथनों के सार एक स्थान पर लिपिबद्ध करते रहें। मैं एकान्त में पुनः इस चर्चा पर विचार करना चाहूँगा।”
महाराज के निर्देश पर महामंत्री सभासदों के विचार लिपिबद्ध करने में लग गए। उस समय महाराज कृष्णदेव राय का एक ऐसा दरबारी अपने विचार व्यक्त कर रहा था जो एक प्रखर वक्ता था। इस सभासद का नाम था-सुबाहु।
सुबाहु के विचारों में स्पष्टता थी और वाणी में संयम। वह गम्भीर था और प्रभावशाली भी। उसने कहा, “महाराज! भूलों को समझने की आवश्यकता सौभाग्य और दुर्भाग्य की चर्चा के बीच एक विद्वान मित्र ने की है। मेरी समझ से क्रिया, बस, क्रिया होती है। क्षण विशेष में उसका घटित होना मानो अनिवार्यता है। जैसे सूरज निकलता है। हवा चलती है। सूरज ढलता है। वायु प्रवाह मुक्त होती है। ये क्रियाएँ क्षण विशेष की महत्ता हैं। फिर भूल क्या और सुधार क्या? मनुष्य तो आरम्भ से ही भूल करने का आदी है। जब से इस पृथ्वी पर मनुष्य अनुभव अर्जित कर बौद्धिक प्राणी बना हैं तब से ही सम्भवतः यह स्थिति है कि वह अपने लिए धरती तो सुरक्षित चाहता है किन्तु उसकी दृष्टि टँगी रहती है स्वर्ग पर! वह अपनी हर क्रिया को स्वर्ग-प्राप्ति का साधन बना लेना चाहुता है। मनुष्य की यह प्रवृत्ति सौभाग्य भी है और दुर्भाग्य भी। सौभाग्य इसलिए कि स्वर्ग की कामना उसे किसी से भी ऐसा व्यवहार करने से रोकती है जो लोक-दृष्टि में अनुचित है और दुर्भाग्य इसलिए कि स्वर्ग की कामना में वह अपनी इच्छित क्रियाओं पर विवेक से अंकुश भी लगाता रहता है। इस तरह उसकी क्रियाएँ स्वस्फूर्त और आत्मप्रेरित नहीं रहपातीं। लोक-प्रचलन के आचार-व्यवहार और विचार के अंकुश नहीं होते तब जो क्रियाएँ होतीं उससे मनुष्य जो सन्तुष्टि प्राप्त करता वह सामाजिक वर्जनाओं से घिरकर की गई क्रियाओं से भिन्न होती।”
सुबाहु के विचार स्पष्ट तो थे किन्तु दर्शन बोझिल भी। महाराज कुछ समय तक विचार-मग्न मुद्रा में बैठे रहे, फिर उन्होंने तेनाली राम की ओर देखा। वह सभासदों की बातें रुचिपूर्वक सुन रहा था। मगर अब तक कुछ बोला नहीं था और न ही उसमें इस सन्दर्भ में कुछ बोलने की उत्सुकता ही थी।
महाराज कृष्णदेव राय ने तेनाली राम को मौन देखकर कहा, “क्यों तेनाली राम! तुम कुछ नहीं बोल रहे हो? तुम भी तो कुछ कहो !”
तेनाली राम के होंठों पर एक हलकी सी स्मित की रेखा प्रकट हुई फिर तेनाली राम ने कहा, “महाराज! हमारे मित्रों ने जो विद्वतापूर्ण बातें कही हैं, उनसे मैं सहमत हूँ। इसलिए बीच में कुछ भी बोलना मैंने उचित नहीं समझा- यही है मेरे मौन का कारण। जहाँ तक मूल प्रश्न की बात है तो मैं भी कहूँगा कि मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य अथवा सबसे बड़ा दुर्भाग्य एक ही बात में है। वह बात यह है कि मनुष्य को प्रकृति के अन्य जीवों की तरह कोई सुनिश्चित स्वभाव नहीं मिला है। मनुष्य को छोड़कर प्रायः प्रत्येक जीव-जन्तु, कीट-पतंग, पंछी-पौधे, सभी एक निश्चित स्वभाव के साथ जन्म लेते हैं। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणी, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, एक निश्चित स्वभाव के वशीभूत जीवन-यापन करते हैं। इस तरह उनके स्वभाव को ठोस कहा जा सकता है मगर मनुष्य का कोई निश्चित स्वभाव नहीं है इसलिए मनुष्य का स्वभाव ठोस नहीं, तरल है। वह जब चाहे पात्रता के अनुरूप बदल सकता है। परिस्थितियों से प्रभावित होकर बदल सकता है या कहें कि वह कैसा भी हो सकता है। उसे जैसा चाहें वैसा ढाला जा सकता है।
“मनुष्य के स्वभाव का सरल होना सौभाग्य है, क्योंकि इसमें परिवर्तन- शीलता है। कुछ भी हो जाने की स्वतंत्रता है। किन्तु यह दुर्भाग्य भी है क्योंकि मनुष्य को स्वयं के निर्माण में अनेक भूलों से साबका पड़ता है। भूलें करना उसकी नियति होती है।”
सभा में इस तरह की चर्चाएँ चल ही रही थीं कि इसी बीच महाराज कृष्णदेव राय को सूचना मिली कि दिल्ली के सम्राट बादशाह बाबर का दूत महाराज से मिलने की इच्छा रखता है। महाराज ने उस दूत को अपने दरबार में आदरपूर्वक लाए जाने और उचित आसन पर बैठाए जाने का निर्देश दे दिया। उन्हें सभास्थल पर हो रही चर्चाओं में कई तर्क संगत और मन को भा जानेवाली बातें सुनने को मिली थीं इसलिए वे तेनाली राम की तर्कसंगत बातें रुचि से सुनने में लगे रहे।
दूत को दरबार में लाकर उचित स्थान पर बैठा दिया गया।
तेनाली राम की चर्चा जारी रही। वह अपनी रौ में बोल रहा था, “महाराज! मान्यता है कि अनुभव प्राप्त करना श्रेष्ठ कर्म है किन्तु महाराज, जीवन का अनुभव ही तो जीवन की सहज इच्छाओं पर सीमा रेखाएँ खींचने लगता है कि ऐसा जीवन ठीक है और वैसा जीवन ठीक नहीं है। वास्तविकता यह है है कि अनुभव से परिपक्व व्यक्ति वृद्ध हो चुका होता है और बहुत सारी स्वाभाविक क्रियाओं के लिए उसके पास शक्ति नहीं बची रहती। इसलिए बल क्षीण मानक दूसरों के लिए निषेध और वर्जनाएँ और आरोपित करने लगता है कि ऐसा करना उचित है अथवा वैसा करना अनुचित है जबकि मेरी दृष्टि में जीवन की स्वाभाविक वृत्तियों के लिए निषेध-रेखा खींचने जैसी हिंसक क्रिया कोई दूसरी नहीं हो सकती।…. महाराज, इस हिंसा से पूरा समाज, पूरा देश, सम्पूर्ण मानव समुदाय लिप्त है। मनुष्य जीवन जीने की कामना में प्रयासरत रह नहीं पाता है और जीवन भोगने की कामना में हिंसक होता जाता है। जंगल में शेर, बाघ, तेंदुआ, चीता आदि हिंस्र जन्तु कहे जाते हैं हैं मगर ये वस्तुतः हिंसा नहीं करते। भोजन के लिए वे प्राकृतिक रूप से जो प्रयास कर सकते हैं वही करते हैं इसलिए उनके भोजन करने की प्राकृतिक क्रिया को हिंसा नहीं कह सकते किन्तु सत्ता के मद में जब कोई शासक किसी दूसरे राज्य पर आक्रमण करता है तब यह हिंसक घटना हो जाती है। आम तौर पर ऐसी घटनाओं में ऐसे लोग या ऐसे राष्ट्र संलग्न होते हैं जिनके पास साधनों की अधिकता होती है। ऐसे ही मनुष्य राष्ट्र जीवन जीने की क्रियाओं को छोड़कर जीवन भोगने की लिप्सा की और प्रेरित होते हैं। जैसे-अभी कुछ दिन पहले ही हमारे पड़ोसी राज्य ‘सप्तद्वीप नवखंड’ ने हम पर आक्रमण कर दिया था किन्तु सबल सेना और प्रचुर साधन होते हुए भी ‘सप्तद्वीप नवखंड’ के राजा को पराजित होना पड़ा। उसके राजा को हमने बन्दी बनाया। कारण क्या था? क्या हम अतिमानव हैं? बहुत बलशाली हैं? नहीं! ऐसा मानने का हमारे पास कोई कारण नहीं है। महाराज! सच्ची बात यह है कि विजयनगर के लोग अनवरत जीवन जीने के लिए प्रयासरत रहते हैं। विजयनगर के राजा को भी इसके लिए अपनी प्रजा की तरह ही प्रयास करना पड़ता है। हमारे पास थोड़ा है और थोड़ा चाहिए वाली स्थिति बनी रहती है। इसलिए विजयनगर की प्रजा में जिजीविषा है। हमारे सशस्त्रा बल के जवान भी हमारी प्रजा की सन्तानें हैं इसलिए उनमें भी जिजीविषा है। यही उत्कट जिजीविषा अन्ततः हमारी जीत का कारण बनी। हममें युयुत्सा नहीं थी। युद्ध की इच्छा नहीं थी फिर भी हम जीते। किन्तु सप्तद्वीप नवखंड के राजा युयुत्सु थे। युद्ध की इच्छा उनमें थी। उनकी सेना युद्ध के लिए तत्पर और आक्रामक थी फिर भी वे हार गए। महाराज, हमारी जीत और उनकी हार में भी मेरी हिंसा की व्याख्या ही काम कर रही है। सप्तद्वीप नवखंड के राजा ने और वहाँ की सेना ने इतना वैभव एकत्रित कर लिया है कि उन्हें जीवन जीने की जगह जीवन भोगने की प्रवृत्ति प्रेरित करने लगी है। इसी प्रवृत्ति के कारण वे हिंसा के लिए प्रेरित हुए। हम जीवन जीने की प्रवृत्ति के अधीन हैं लिए ऐसा इसलिए हिंसा से प्रेरित नहीं हैं। जीवन को भोगने की चाह जिस दिन पनपेगी, हम भी वैसे हो जा सकते हैं।”
तेनाली राम की बातों से सभाकक्ष में बैठा बाबर का दूत बहुत प्रभावित हुआ। उसने सभाकक्ष में खड़े होकर तालियाँ बजाई।
महाराज कृष्णदेव राय का ध्यान अचानक दूत की ओर गया। उनकी तन्द्रा भंग हुई और कर्तव्य-बोध के वशीभूत होकर उन्होंने दूत से विजयनगर आने का कारण पूछा।
दूत ने बादशाह बाबर का एक सन्देश पढ़कर महाराज कृष्णदेव राय को सुनाया। इस पत्र का आशय था कि बादशाह बाबर ने विजयनगर को अपने मित्र राज्य में सम्मिलित होने का आमंत्रण भेजा है तथा उन्हें विश्वास है कि उनका यह आमंत्रण स्वीकार किया जाएगा।
महाराज कृष्णदेव राय ने दूत को एक स्मृतिचिद्द भेंट कर अपने दरबार में सम्मानित किया तथा उसे अतिथिशाला में विश्राम करने के लिए लिए भेज दिया। सभा विसर्जित करने के बाद महामंत्री और तेनाली राम को साथ लेकर मंत्रणा कक्ष में चले गए। तीनों के बीच विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि कल दूत को इस सन्देश के साथ विदा कर दिया जाए कि ‘हम इस आमंत्रण के लिए आभारी हैं- शीघ्र ही हम अपने दूत के माध्यम से अपने निर्णय से अवगत कराएँगे।’
दूसरे दिन दूत विजयनगर से दिल्ली के लिए रवाना हो गया। इसके बाद फिर महाराज कृष्णदेव राय अपने महामंत्री के साथ मंत्रणा करने बैठ गए। इस चर्चा में तय हुआ कि बादशाह बाबर का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करने का कोई कारण नहीं है। विजयनगर का इतिहास साक्षी है कि सुदूर अतीत से यह एक ऐसा राज्य रहा है जो ‘न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर’ की नीति पर अमल करता रहा है। मित्रता सन्देश तो औपचारिकता है। इस सन्देश का एक अर्थ तो यह है कि भविष्य में न हम आपकी राह में आएँगे और न आप हमारा कहीं विरोध करेंगे। एक-दूसरे के प्रति परस्पर सहयोग की भावना ही तो इस आमंत्रण में निहित है इसलिए इसे स्वीकार कर लेना उचित है।
इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद महाराज कृष्णदेव राय ने महामंत्री को विदा किया और प्रहरी को भेजकर तेनाली राम को अविलम्ब राजमहल आकर उनसे मिलने को कहलवाया।
जिस समय तेनाली राम ने राजमहल में प्रवेश किया उस समय शाम ढल चुकी थी। आसमान पर अँधेरे का सुरमई चादर बिछ चुका था जिन पर सितारे टिमटिमाने लगे थे। राजमहल के प्रहरियों को सम्भवतः महाराज कृष्णदेव राय ने पहले से ही निर्देश दे रखा था कि जब तेनाली राम आए, उसे अविलम्ब उनके कक्ष तक पहुँचा दिया जाए। कक्ष में महाराज विचारमग्न्न मुद्रा में टहल रहे थे।
प्रहरियों ने तेनाली राम को आदरपूर्वक महाराज के कक्ष तक पहुँचा दिया। तेनाली राम को देखकर महाराज ने कहा, “आओ तेनाली राम! आज तुम्हें मैं एक महत्त्वपूर्ण काम सौंप रहा हूँ। यह एक ऐसा काम है जिसके लिए अतिविश्वसनीय व्यक्ति की आवश्यकता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरे लिए तुम कितने विश्वसनीय हो।”
तेनाली राम के होंठों पर उस समय मन्द-हास उभर आया था। उसने महाराज से कहा, “महाराज! आप आज्ञा दें! आपके विश्वास को मैं जीते-जी ठेस नहीं पहुँचने दूँगा।…”
महाराज कृष्णदेव राय ने स्वर्ण मुद्राओं की एक थैली तेनाली राम को सौंपते हुए कहा, “तेनाली राम! कल सुबह तुम विजयनगर के दूत बनकर बादशाह बाबर को हमारी ओर से मित्र राज्य बनने की स्वीकृति का सन्देश देने दिल्ली प्रस्थान करो। घुड़साल से अपनी पसन्द का घोड़ा लेकर तुम प्रस्थान करो और यथाशीघ्र दिल्ली पहुँचकर बादशाह बाबर को हमारा सन्देश दो। उन्हें तुम ही हमारी बात सही ढंग से समझा सकते हो इसलिए तुम्हें यह कार्य सौंप रहा हूँ।”
“जो आज्ञा महाराज!” तेनाली राम ने कहा और महाराज से आज्ञा लेकर अपने घर लौटा।
दूसरे दिन सुबह दिल्ली के लिए उसकी यात्रा आरम्भ हो गई। यह उन दिनों की बात है जब विजयनगर से दिल्ली की यात्रा बहुत आसान नहीं थी। सड़कें आज की तरह न तो आबाद थीं और न ही दिल्ली की राह में कहीं विश्राम करने की कोई सार्वजनिक व्यवस्था थी। यात्रियों को अपने व्यवहार-कौशल और बुद्धि-चातुर्य से ही आश्रय प्राप्त करना होता था। तेनाली राम कुशाग्र बुद्धि तो था ही इसलिए उसे मार्ग में किसी तरह के संकट का सामना करना नहीं पड़ा। दिल्ली पहुँचकर वह सीधे बाबर के दरबार में उपस्थित हुआ।
बाबर को जब सूचना मिली कि विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय का एक दूत दिल्ली-दरबार में बादशाह के सम्मुख उपस्थित होने का आदेश चाहता है तो बाबर ने तेनाली राम को यथाशीघ्र दरबार में उनके समक्ष उपस्थित किए जाने का निर्देश दिया।
तेनाली राम को बाबर के सम्मुख उपस्थित किया गया। बाबर ने तेनाली राम को पारखी दृष्टि से देखा। विजयनगर से लौटकर बाबर के दूत ने तेनाली राम की तर्कसंगत बातों का विवरण दिया था। बाबर ने तेनाली राम को ऊपर से नीचे तक गम्भीर दृष्टि से देखा और कहा, “दूत! आज तुम विश्राम करो। दक्षिण से उत्तर की दूरी तय करने में तुम थक गए होगे। कल सुबह दरबार में उपस्थित होकर अपना ‘सन्देश’ देना।”
बाबर के संकेत पर बारशाह के दो प्रहरी तेनाली राम को अतिथिशाला की ओर ले गए।
तेनाली राम के विदा होते ही बाबर ने उस दरबारी को बुलाया जिसे दूत बनाकर विजयनगर भेजा गया था। बाबर ने उस दरबारी से पूछा, “शराफत अली, बताओ, इस शख्स को पहचानते हो जो विजयनगर के महाराज का दूत बनकर आया है?”
दरबारी शराफत अली ने बादशाह के सामने अदब से झुकते हुए कहा, “जहाँपनाह! यह शख्स तेनाली राम है। विजयनगर के राजदरबार में यह है तो विदूषक किन्तु इसके बुद्धि-बल का लोहा सभी मानते हैं। मैंने इस शख्स की तकरीर के बारे में आपको जानकारी दी थी। मैंने किसी राजदरबारी के मुँह से कभी, कहीं भी इतनी तर्कसंगत बातें नहीं सुनी थीं। बहुत बुद्धिमान है यह शख्स!”
“हूँ!” बाबर ने एक लम्बी हुंकार भरी फिर कहा, “कल हो जाएगी इसके बुद्धि-बल की परीक्षा भी। कल दरबार में मैं इससे इसके महाराज का सन्देश सुनूँगा। मुझे विश्वास है कि मित्रता-प्रस्ताव की सूचना ही विजयनगर से आई है। इसके बाद मैं इस विदूषक से कुछ चुटकुले सुनाने के लिए कहूँगा। हाँ, तुम ऐसा करो कि आज ही सभी दरबारियों को कह दो कि कल जब तेनाली राम दरबार में चुटकुले सुनाए तो कोई न तो ताली बजाए और न ही हँसे; या कोई तर्कपूर्ण बात कहे तब भी कोई नहीं हँसे या न वाह-वाह करे!”
बादशाह का आदेश था। दरबारियों में आनन-फानन में प्रसारित हो गया।
दूसरे दिन दिल्ली दरबार में उपस्थित होकर तेनाली राम ने महाराज कृष्णदेव राय का सन्देश बादशाह बाबर को दिया कि दिल्ली दरबार के मित्रा राज्यों में शामिल होने से हमें गर्व की अनुभूति हो रही है।
बादशाह बाबर ने स्वयं ताली बजाकर इस सन्देश का स्वागत किया। बादशाह को ताली बजाता देखकर दरबारियों ने भी तालियाँ बजाईं। फिर बादशाह बाबर ने तेनाली राम को अपने पास ही एक आसन देकर बैठाया और अपना परिचय दिल्ली दरबार के दरबारियों को देने के लिए कहा।
तेनाली राम ने बादशाह बाबर के निर्देश पर अपने परिचय में दरबारियों को बताया, “अभी तो मैं विजयनगर के दूत की हैसियत से दिल्ली दरबार में उपस्थित हुआ हूँ, वैसे विजयनगर के महाराज के दरबार में मैं विदूषक हूँ और मेरा नाम तेनाली राम है।” अपना नाम बताने के बाद तेनाली राम ने कहा, “बन्धुओं, मैं अपने महाराज कृष्णदेव राय का यह सन्देश लेकर आया हूँ कि अब विजयनगर दिल्ली दरबार का मित्र राज्य है। इसलिए हमें मिल-जुलकर एक-दूसरे के सुख-दुख में हाथ बैटाना चाहिए और इसके लिए हमें तत्पर रहना चाहिए कि यदि हममें से एक कष्ट मैं हो तो दूसरा उसका कष्ट कम करने के प्रयास में स्वतः जुट जाए। परस्पर सहयोग की भावना से ही तो विकास का पथ प्रशस्त होता है।”
दिल्ली दरबार के किसी भी दरबारी ने तेनाली राम के इस कथन पर कोई ताली नहीं बजाई। बादशाह बाबर ने जान-बूझकर ऐसी मुद्रा बना ली मानो उसने तेनाली राम की बातें सुनी ही नहीं हो। एक दरबारी ने चुटकी लीं, “आपने अच्छी शिक्षा दी है, तेनाली राम जी!”
तेनाली राम के लिए यह व्यंग्य-बुझी पंक्ति अप्रत्याशित थी। बिना उत्तेजित हुए तेनाली राम ने कहा, “मैंने तो सिर्फ अपने महाराज के मन्तव्य की सूचना दी है! सूचना देने का काम शिक्षा नहीं है। शिक्षा से तो ज्ञान मिलता है। सूचना और ज्ञान में बहुत अन्तर है। सूचना हमेशा बाहर से मिलती है और ज्ञान हमेशा हमारे अन्दर से आता है।”
बादशाहु बाबर ने मन-ही-मन तेनाली राम की प्रशंसा की किन्तु वह मौन साधे रहादृयह सोचकर कि देखें अब यह तेनाली राम और क्या कहता है। मगर तेनाली राम ने दरबार का रुख समझते हुए मौन साध लिया।
दूसरे दिन जब वह दिल्ली दरबार में आया तब उससे चुटकुले सुनाने की माँग की गई। तेनाली राम ने कुछ चुटकुले सुनाए मगर दरबार का कोई भी आदमी उसके चुटकुलों पर नहीं हँसा। तेनाली राम दो-चार चुटकुले सुनाकर बादशाह बाबर की आज्ञा लेकर अतिथिशाला में लौट आया। उसके मस्तिष्क में कुछ चल रहा था। इस घटना के बाद तेनाली राम दो दिनों तक दिल्ली दरबार नहीं गया। उसने दिल्ली भ्रमण के बहाने बाबर की दिनचर्या का अध्ययन किया। इस अध्ययन में तेनाली राम ने पाया कि बादशाह बाबर प्रतिदिन शाम को दरबार से निकलने के बाद यमुना नदी के किनारे टहलने के लिए जाते हैं तथा राह में मिलनेवाले गगरीब-लाचार लोगों को एक-दो स्वर्ण-मुद्रा भेंट करते जाते हैं। इसके बाद तेनाली राम ने एक योजना बना ली और दिल्ली बाजार से कुछ सामग्री खरीदकर अतिथिशाला लौट आया।
शाम का समय था। अपने दरबार से निकलकर बादशाह बाबर अपने एक खास मंत्री के साथ बातें करते हुए यमुना तट की ओर जा रहा था। राजमार्ग के किनारे एक वयोवृद्ध व्यक्ति को उसने जमीन खोदकर कोई बीज गाड़ते देखा। बाबर के लिए यह दृश्य अचरजकारी था। एक तो मार्ग का किनारा जिससे इस वृद्ध का कोई लेना-देना नहीं फिर भला क्यों वह यहाँ पर कोई बीज लगाएगा? उत्सुकतावश बाबर उस वृद्ध के पास पहुँच गया। उसके साथ उसका मंत्री भी था।
वृद्ध के पास पहुँचकर बाबर ने पूछा, “बाबा! तुम यहाँ क्या कर रहे हो?”
अपने काम में मग्न वह वृद्ध बोला, “जहाँपनाह! मैं यहाँ फलदार वृक्षों के बीज लगा रहा हुँ कटहल, आम आदि के बीज! कुछ ही वर्षों में यह स्थान पेड़ों के झुरमुटों से आच्छादित हो जाएगा जिससे राह चलते लोगों को छाया मिल जाएगी। ये पेड़ वर्ष में एक बार फलों से भी लद जाएँगे जिससे राहगीरों की क्षुधापूर्ति होगी।”
वृद्ध के उत्तर से बाबर चैंक पड़ा। बाबर ने वृद्ध से पूछा, “मगर बाबा! इससे तुमको क्या हासिल होगा? जब तक इन बीजों से पौधे निकलकर फलदार वृक्ष में तब्दील होंगे तब तक क्या तुम जीवित रहोगे? इन पेड़ों का एक फल भी क्या तुम्हें नसीब होगा?”
वृद्ध ने हँसकर जवाब दिया, “जहाँपनाह! अब तक तो मैं अपने पूर्वजों के लगाए पेड़ों से फल खाता रहा हूँ। मैं जो बीज लगा रहा हूँ उसके फलों का आनन्द आनेवाली पीढ़ी लेगी। मैं सन्तुष्ट हूँ कि मैं अपनी पिछली पीढ़ी का ऋण उतार रहा हूँ।”
बाबर इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए और स्वर्णमुद्राओं की एक थैली उस वृद्ध को भेंट कर दी।
बादशाह से स्वर्णमुद्राओं की थैली भेंट में मिलने से वृद्ध आनन्दित होकर बोल उठा, “जहाँपनाह! आप सचमुच महान हैं। लोगों को तो वृक्ष बड़े होकर ही फल प्रदान करते हैं किन्तु आपने तो बीज उगने से पहले ही मुझे फल प्रदान कर दिया!”
वृद्ध को आनन्दित देखकर बाबर प्रसन्न हुआ और वहाँ से आगे बढ़ गया।
दूसरे दिन दिल्ली दरबार में वही वृद्ध बाबर के समक्ष उपस्थित हुआ। बाबर ने उससे पूछा, “क्यों, क्या बात है बाबा? यहाँ क्यों आए हो?”
“अपने सिर से यह बोझ उतारने आया हूँ- जहाँपनाह, आपके दरबार में!” यह कहते हुए वृद्ध ने अपने सिर से बाल और गाल पर चढ़ी दाढ़ी उतारकर कन्धे से लटके झोले में डाल ली और हाथ में रखी थैली बाबर की ओर बढ़ाते हुए कहा, “जहाँपनाह! अब वह वृद्ध ही नहीं है- जो इस इनाम का हकदार था!”
बाबर ने अपने सामने दो पल में बदले वृद्ध के चेहरे को देखकर पहचाना, “अरे! यह तो तेनाली राम है!” बाबर ने ताली बजाते हुए कहा, “मान गए तेनाली राम… तुमने मुझे आनेवाली पीढ़ी के लिए कुछ कर जाने की नसीहत दी है। इस थैली के तुम ही हकदार हो। इसे अपने पास रखो।”
इसके बाद बाबर ने अपने दरबारियों को बीती शाम की घटना सुनाकर तेनाली राम के फन की तारीफ की। दिल्ली दरबार एकबारगी तालियों की गड़गड़ाहॅट से गूंज उठा।
थोड़ी देर के बाद बादशाह बाबर ने तेनाली राम से कहा, “मैंने तुम्हारी विद्वता की चर्चा सुनी है- मेरे दरबारियों को कोई पैगाम दो कि ये तुम्हें याद रखें।”
तेनाली राम ने अपने स्थान से बिना हिले कहा, “यह व्यवस्था ‘हाँ’, कहने के सिवा कुछ और कहने की इजाजत नहीं देती। परम्परागत रूप से व्यवस्था ‘हाँ’ कहना सिखलाने का ही काम करती है। मैं भी ‘हाँ’ कह रहा हूँ और आपकी आज्ञा मानकर बोल रहा हूँ।… पुरानी सारी व्यवस्थाएँ भी हाँ कहना ही सिखलाती रही हैं। इन ‘हाँ’ कहनेवालों के कारण ही समाज की व्यवस्थाएँ चलती रहीं बिना किसी परिवर्तन के।… लेकिन यह ‘हाँ’ कहना यथास्थिति बनाए रखना ही है। समाज का विकास या व्यवस्था में सुधार हाँ कहनेवाले की जरूरत होती है। दुनिया में कहीं भी यथास्थिति में परिवर्तन ‘न’ कहने वालों के कारण हुआ है। जिसने आत्मा के गहरे तक से नकार का स्वर उभारा है वही विकास का कारण बने है। इसलिए मेरे मित्रो, सहज स्वीकार की जड़ता से निकलकर विकास की दहलीज पर कदम रखना सीखो और अनुचित को नकारकर उचित अवसरों पर तालियाँ भी बजा लिया करो…”
बाबर के दरबार में एक बार फिर तालियों की गूँज उभरी। बाबर ने तेनाली राम को अनेक तरह के उपहार देकर दिल्ली से विदा किया।
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