शास्त्रों एवं पुराणों में असाध्य रोगों से मुक्ति एवं अकाल मृत्यु से बचने के लिए महामृत्युंजय जप करने का विशेष उल्लेख मिलता है। महामृत्युंजय भगवान् शिव को प्रसन्न करने का मंत्र है। इसके प्रभाव से व्यक्ति मौत के मुंह में जाते-जाते बच जाते हैं, मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की अद्भुत कृपा से जीवन पा लेते हैं।

भावी बीमारी, दुर्घटना, अनिष्ट ग्रहों के दुष्प्रभावों को दूर करने, मृत्यु को टालने, आयुवर्धन के लिए सवा लाख महामृत्युंजय मंत्र जाप करने का विधान है। जब व्यक्ति स्वयं जप न कर सके, तो मंत्र जाप किसी योग्य पंडित द्वारा भी कराया जा सकता है।

सागर मंथन के बहुप्रचलित आख्यान में देवासुर संग्राम के समय शुक्राचार्य ने अपनी यज्ञशाला में इसी महामृत्युंजय के अनुष्ठानों का प्रयोग करके देवताओं द्वारा मारे गए दैत्यों को जीवित किया था। अतः इसे ‘मृतसंजीवनी’ के नाम से भी जाना जाता है।

mahamrityunjay mantra ka mahatva kyon hai
mahamrityunjay mantra ka mahatva kyon hai

ऋग्वेद (VII, 5912) में महामृत्युंजय मंत्र इस प्रकार है-

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ॥

जिसे सम्पुट युक्त मंत्र बनाने के लिए इस प्रकार पढ़ा जाता है-

ॐ हाँ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्द्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ॐ भूर्भुवः स्व सः जूं हीं ॐ ॥

अर्थात् हम त्र्यम्बकं यानी तीन नेत्रों वाले शिव भगवान् की पूजा करते हैं। मैं पुष्टिवर्धक खरबूजे की भाति मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाऊं, अमृत से नहीं।

पद्मपुराण में महर्षि मार्कण्डेय कृत महामृत्युंजय मंत्र व स्तोत्र का वर्णन मिलता है। जिसके अनुसार महामुनि मृकण्डु के कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने पत्नी सहित कठोर तप करके भगवान् शंकर को प्रसन्न किया। भगवान् शंकर ने प्रकट होकर कहा- ‘तुमको पुत्र प्राप्ति होगी पर यदि गुणवान, सर्वज्ञ, यशस्वी, परम धार्मिक और समुद्र की तरह ज्ञानी पुत्र चाहते हो, तो उसकी आयु केवल 16 वर्ष की होगी और उत्तम गुणों से हीन, अयोग्य पुत्र चाहते हो, तो उसकी आयु 100 वर्ष होगी।’

इस पर मुनि मृकण्डु ने कहा ‘मैं गुण संपन्न पुत्र ही चाहता हूं, भले ही उसकी आयु छोटी क्यों न हो। मुझे गुष्णहीन पुत्र नहीं चाहिए।’

‘तथास्तु’ कहकर भगवान् शंकर अंतर्धान हो गए।

मुनि ने बेटे का नाम मार्कण्डेय रखा। वह बचपन से ही भगवान् शिव का परम भक्त था। उसने अनेक श्लोकों की रचना अपने बाल्यकाल में ही कर ली, जिसमें संस्कृत में महामृत्युंजय मंत्र व स्तोत्र की रचना प्रमुख थी। जब वह 16वें वर्ष में प्रवेश हुआ, तो मृकण्डु चिंतित हुए और उन्होंने अपनी चिंता को मार्कण्डेय को बताया। मार्कण्डेय ने कहा कि में भगवान् शंकर की उपासना करके उनको प्रसन्न करूंगा और अमर हो जाऊंगा। 16वें वर्ष के अंतिम दिन जब यमराज प्रकट हुए तो मार्कण्डेय ने उन्हें भगवान् शंकर के महामृत्युंजय के स्तोत्र का पाठ पूरा होने तक रुकने को कहा। यमराज ने गर्जना के साथ हठपूर्वक मार्कण्डेय को ग्रसना शुरू किया ही था कि मंत्र की पुकार पर भगवान् शंकर शिवलिंग में से प्रकट हो गए। उन्होंने कोध से यमराज की ओर देखा, तब यमराज ने डरकर बालक मार्कण्डेय की न केवल बंधन मुक्त कर दिया, बल्कि अमर होने का वरदान भी दिया और भगवान् शिव को प्रणाम करके चले गए। जाते समय यह भी कहा कि जो भी प्राणी इस मंत्र का जाप करेगा उसे अकाल मृत्यु और मृत्यु तुल्य कष्टों से छुटकारा मिलेगा। इस पौराणिक कथा का उल्लेख करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि स्वयं भगवान् शंकर द्वारा बताई गई मृत्यु भी, उन्हीं के भक्त द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र के कारण टल गई और मार्कण्डेय अमर हो गए।

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