विजयनगर में अमन-चैन था। महाराज कृष्णदेव राय की लोकप्रियता आकाश छू रही थी। उन्हें प्रजापालक, न्यायप्रिय और धैर्यवान शासक माना जा रहा था। अपने राज्य में ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्यों में भी उन्हें कृपालु और उदार शासक कहा जाने लगा था। उनकी लोकप्रियता के पीछे तेनाली राम की बुद्धि की बड़ी भूमिका थी। तेनाली राम उनके कार्यों को कुछ ऐसा रूप दे देता था कि लोगों को महाराज की स्वार्थसिद्धि में भी उदारता और न्यायप्रियता की झलक मिलने लगती थी।
कुछ दिन पहले ही, जब महाराज अपने राज्य के विकास की रूपरेखा तय करने के लिए भ्रमण कर रहे थे तब तेनाली राम की बुद्धि के कारण उनके काफिले ने बिना कुछ दिए प्रजा से भोजन भी प्राप्त किया और गुणगान भी, मानो महाराज और उनका काफिला प्रजाजनों से भोजन प्राप्त कर उन पर उपकार कर रहे हों। राज्य भ्रमण के समय में महाराज जहाँ कहीं भी गए वहाँ प्रजाजनों ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। यह सब तेनाली राम की कुशाग्र बुद्धि का ही परिणाम था।
लेकिन तेनाली राम ने राज्य भ्रमण के बाद से महाराज में कुछ विचित्र से परिवर्तन देखे। पहले तो उसे लगा कि यह उसका भ्रम है किन्तु महाराज की भंगिमाओं में हो रहे बदलावों पर अनायास ही उसकी दृष्टि पड़ती और उसे लगता कि महाराज में दर्प का समावेश हो रहा है। वे कुछ बोलते तो तेनाली राम को लगता कि यह महाराज नहीं, महाराज का अभिमान बोल रहा है। इसके बाद अपने स्वभाव के अनुरूप तेनाली राम महाराज की प्रत्येक चेष्टा और अभिव्यक्ति पर गौर करने लगा। बहुत सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर महाराज के बारे में उसकी स्पष्ट धारणा बनी कि अभी हाल के दिनों में महाराज जब राज्य भ्रमण के लिए निकले थे तो जगह-जगह उन्हें जो अतिशय सम्मान मिला इससे उनके गरिमा-बोध का विस्तार हो गया। अनायास सम्मान से मनुष्य में गर्व का भाव आता ही है। महाराज में यह गर्व बोध बढ़कर घमंड में परिणत हो गया है। तेनाली राम को चिन्ता हुई कि महाराज का घमंड यदि और बढ़ा तो राज्य में उनकी प्रजापालक वाली छवि को क्षति पहुँचेगी। मगर महाराज के बहुत निकट होते हुए भी उसके और महाराज के बीच मर्यादा की एक क्षीण-सी रेखा भी थी। वह उस रेखा का उल्लंघन करना नहीं चाहता था। इसलिए, महाराज को वह सीधे यह नहीं कह सकता था कि ‘महाराज, आप घमंडी हो गए हैं। प्रजा के बीच लोकप्रिय बने रहने के लिए आपका मृदु व्यवहार आवश्यक है।’
स्वाभाविक रूप से तेनाली राम दिन-रात इसी उधेड़बुन में लगा रहता था कि कोई उपाय सूझे तो वह महाराज को उनके बदल रहे स्वभाव के प्रति सचेत कर दे।
एक दिन महाराज घोड़े पर सवार होकर राजभवन से बाहर निकले तथा एक पगडंडी पर सरपट घोड़ा दौड़ाते हुए आगे बढ़े। यह पगडंडी आगे तेनाली राम के आवास की ओर जाती थी। तेनाली राम उसी पगडंडी से राजभवन की ओर जा रहा था। महाराज को उस पगडंडी से आते देखकर तेनाली राम चैंक पड़ा। इतनी सुबह, महाराज राजमार्ग छोड़कर इस पगडंडी से भला कहाँ जा रहे हैं? यह प्रश्न अपने मस्तिष्क में लिये तेनाली राम पगडंडी के किनारे के खेत में खड़ा होकर महाराज की प्रतीक्षा करने लगा। उसके मन में शंका उठ रही थी कि पास में ही गरीबों की बस्ती है और इन गरीबों ने महाराज को कभी देखा होगा, यह आवश्यक नहीं है। इस बस्ती के लोग दिन भर दूर-दराज में परिश्रम करते हैं और रात गए अपने घर लौटते हैं तो नशे में होते हैं। सस्ती मंदिरा और मांस इनकी कमजोरी है। इनकी दिनचर्या और रहन-सहन दोनों ही इस बात की सम्भावना पैदा नहीं होने देते कि ये महाराज को जानें। परिश्रम ही इनका महाराज है। ये अपने परिश्रम के द्वारा अपने दुखों से पार पाते हैं इसलिए इन्हें किसी की परवाह भी नहीं होती कि वह कोई फकीर है या राजा! अपने काम से मतलब रखनेवाले इन लोगों की बातों में अजीब-सी तल्खी है। ये बिना लाग-लपेट के बातें करते हैं। और करें भी क्यों नहीं? काम मिला तो किया। पैसा कमाया तो खाया, पीया और मौज किया। काम नहीं मिला तो भूखे ही सो गए। न किसी से लिया, न दिया। ऐसी जीवन-शैली में औपचारिकताओं का स्थान ही कहाँ है? तेनाली राम अभी यह सोच ही रहा था कि एक महिला बस्ती की राह से एक बच्चे की ऊँगली थामे आई और उसीं पगडंडी पर चलने लगी जिस पर महाराज घोड़ा दौड़ाते हुए आ रहे थे। महिला के निकट आने पर उन्होंने कर्कश स्वर में कहा, “अरे! हट्ट ! रास्ता छोड़।” उनके मुँह से यह पंक्ति खत्म भी नहीं हो पाई थी कि महाराज का घोड़ा महिला और बच्चे के इतने निकट से गुजरा कि घोड़े के पाश्र्व भाग से महिला को धक्का लगा और वह झटके से बच्चे समेत गिर पड़ी। महाराज ने पीछे घूमकर देखा और घोड़ा धीमा कर बोले, “तू बहरी है क्या? मैं चीखकर तुम्हें राह से हटने के लिए कह रहा था…. तू बहरी ही नहीं, अन्धी भी है… तुम्हें दिखा नहीं कि मैं आ रहा है। बीच राह पर चलने में तुझे मजा आ रहा था?”
महाराज के तेवर देखकर तेनाली राम अपने स्थान से दौड़ा हुआ आया और उसने महिला को उठाया। महिला और उसके बच्चे, दोनों को चोट लगी थी। महिला की नाक से खून टपक रहा था और बच्चे का घुटना छिल गया था। उनकी स्थिति देखने के बाद भी महाराज न तो घोड़े से उतरे और न ही उस महिला को डाँटना बन्द किया। तेनाली राम को देखकर थोड़े संयत जरूर हुए और सामान्य स्वर में तेनाली राम से कहा, “तेनाली राम! यह महिला असभ्य है, इसे राह में चलना भी नहीं आता। बीच सड़क पर बच्चे का हाथ पकड़कर टहलती हुई जा रही थी…।”
तेनाली राम कुछ कहता इससे पहले महिला ने महाराज को टोका, “अरे काहे झूठ बोलता है… तू तो घोड़े को उस डाकू की तरह भगाता आ रहा था, जैसे उसके पीछे सिपाहियों का दल पड़ा हुआ हो!”
महाराज के लिए यह टिप्पणी असह्य थी। अपने पूरे जीवन में उन्होंने ऐसा संवाद नहीं सुना था। वे आग-बबूला बूला हो उठे और चीखे, “तू अन्धी और बहरी दोनों है। तुझे घोड़े की टाप नहीं सुनाई दी? तुझे नहीं दिखा कि मैं आ रहा हैं….?” “अरे, तू क्या भगवान है? तुझसे तेज फूटती है कि उसकी चैंध से मैं जानती कि भगवान आ रहे हैं या कि मेरी पीठ में आँख है कि मैं देखती कि एक अन्धा घोड़े पर सवार भागा आ रहा है और मैं राह छोड़ देती?”
तेनाली राम ने बीच में हुस्तक्षेप किया, “जाने दे माँ! अब जो होना था, हुआ।” और महाराज की ओर मुँह करते हुए तेनाली राम ने महाराज से कहा, “आप भी अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करें महाराज! मैं जरा इस बच्चे को वैद्य जी से दिखलाकर, इन्हें घर पहुँचा आउँ।” इसके बाद तेनाली राम ने बच्चे को गोद में ले लिया और बिना महाराज की ओर देखे उस महिला से कहा, “आओ माँ! जरा वैद्य जी के पास चलो।”
महिला महाराज को मन-ही-मन कोसती हुई तेनाली राम के साथ चलने लगी। महाराज तेनाली राम की ओर विस्मय से देखते रह गए। बिना किसी अभिवादन के तेनाली राम वहाँ से महिला और बच्चे के साथ चला गया।
उस दिन पगडंडी से गुजरकर महाराज राजमार्ग पर आए और राजमार्ग से ही राजभवन पहुँचे। उनका मन क्षोभ से भरा हुआ था। एक तो जीवन में ऐसी बातें उन्होंने कभी नहीं सुनी थीं जैसी बातें उन्हें एक महिला सुना गई थी जिसके शरीर पर ढंग के वस्त्रा भी नहीं थे। दूसरी यह कि तेनाली राम जैसा सभासद जो वर्षों से उनकी सेवा में है, उस महिला का दुव्यवहार देखने के बाद भी उसी महिला के साथ जा खड़ा हुआ! उनके मन में क्रोध का ज्वार उठ रहा था… यह तेनाली राम जो मेरे कारण पूरे राज्य में सम्मानित है, दूसरे राज्यों में भी जिसकी विद्वत्ता की चर्चा होती है, वह भूल गया कि मैं उसका अन्नदाता हूँ। मेरे कारण ही उसे सम्मान अर्जित करने का अवसर मिला। मैंने उसे अपने राज्य का विदूषक नहीं बनाया होता तो… तो… तो वह कहीं भाड़ झोंक रहा होता और वह महिला… चांडालिन! मैं उसकी धृष्ठता का ऐसा दंड दूँगा कि उसे तो क्या, उसके खानदान के किसी भी सदस्य को कहीं पनाह नहीं मिलेगी। महाराज का आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था।
सच भी है कि जब सत्तामद चढ़ता है तब मनुष्य उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रख पाता। उसका स्वत्व महत्त्वपूर्ण हो जाता है और सर्वोपरि हो जाती है उसकी इच्छा।
मानव-मन की गति तेनाली राम अच्छी तरह समझता था इसलिए महाराज कृष्णदेव राय में आए परिवर्तनों को भी वह जान-समझ रहा था। उसे बस इतनी चिन्ता सता रही थी कि महाराज की भूलों का अहसास वह उन्हें कैसे कराए। आज जब वह उस महिला को सहारा देने के लिए उद्यत हुआ उस समय भी उसकी इच्छा महाराज को अपनी भूलों के प्रति सचेत करना था। मगर ऐसा नहीं हुआ। महाराज तेजी से घोड़ा दौड़ाते हुए वहाँ से चले गए।
तेनाली राम ने समझ लिया कि महाराज वहाँ से आवेश में गए हैं और उसे मालूम था कि महाराज का आवेश जल्दी जाता नहीं है। तेनाली राम ने उस महिला और बच्चे को वैद्य से दिखलाकर उन्हें विदा किया और राजभवन जाने की बजाय अपने घर लौट आया। बहुत देर तक चिन्तन-मनन करने के बाद वह एक निष्कर्ष पर पहुँचा और अपने निष्कर्ष के अनुरूप कुछ करने के लिए सक्रिय हुआ। उसने एक योजना का प्रारूप भोजपत्र पर तैयार किया। प्रारूप तैयार हो जाने के बाद उसने उसे फिर से देखा, मनन किया। इसके बाद उसने कपड़े बदले। घोड़ा निकाला और विजयनगर से बाहर निकलकर सुन्दर घाटी पहुँचा।
सुन्दर घाटी एक ऐसा राज्य था जहाँ के कलाकारों को दूर-दूर तक प्रसिद्धि प्राप्त थी। तेनाली राम ने वहाँ एक प्रसिद्ध नाट्य संस्था के संचालक से भेंट की तथा उसे अपनी योजना समझाई फिर उसे कुछ मुद्राएँ भेंट करते हुए कहा कि कार्यक्रम के बाद आपके सभी कलाकारों को मेरी ओर से विशेष पुरस्कार भी मिलेगा और यह पुरस्कार यादगार भी होगा और पारिश्रमिक भी।
दो दिनों के बाद ही विजयनगर में नववर्ष महोत्सव होना था। महाराज ने हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी स्वयं अपनी देखरेख में सारी तैयारियाँ करवाई थीं। उन्हें कई स्थलों पर तेनाली राम की आवश्यकता महसूस हुई। तेनाली राम उस दिन से ही लापता था जिस दिन महाराज के घोड़े की चपेट में आकर एक महिला और उसका बच्चा चोटिल हो गया था। पहले तो महाराज को तेनाली राम के इस तरह गायब होने से बहुत क्रोध आया लेकिन जब उसके गायब हुए दो दिन हो गए तब उन्हें भी अपनी भूलों का अहसास होने लगा। उन्होंने मन-ही-मन स्वीकार किया कि उस दिन उनका आचरण न तो भद्रजन जैसा था और न ही शासकोचित। उस महिला के साथ उन्होंने जो व्यवहार किया, वह अहंकारजनित आचरण ही कहा जाएगा। ऐसा विचार कर महाराज ने तेनाली राम को बुलाने के लिए सेवक को भेजा।
सेवक ने लौटकर सूचना दी कि तेनाली राम दो दिन पहले घोड़े से कहीं गए हैं तथा अभी तक नहीं लौटे हैं। उनके घर में उनके इस तरह बिना किसी सूचना के कहीं चले जाने को लेकर परिजन चिन्तित हैं।
यह सूचना मिलने पर महाराज और चिन्तित हो गए।
उसी दिन महाराज के पास दो कलाकार आए। उन्होंने महाराज से बताया कि वे सुन्दर घाटी से आए हैं। हरियाली से भरे अपने राज्य के कलाकारों का एक कार्यक्रम विजयनगर के नववर्ष महोत्सव के खुले मंच पर करना चाहते हैं। महाराज को उन कलाकारों ने बताया कि उनका कार्यक्रम पीडित मानवता की सेवा का सन्देश देगा।
महाराज ने उन्हें स्वीकृति प्रदान कर दी क्योंकि यह खुला मंच था ही राज्य के बाहर से आए अपने-अपने क्षेत्र के महान कलाकारों के लिए या ऐसे कलाकारों के लिए जो अपनी कला के माध्यम से समाज को कोई सन्देश देने का संकल्प लेते हों।
अन्ततः विजयनगर का नववर्ष महोत्सव प्रारम्भ हो गया। ऐसा सम्भवतः वर्षों बाद हुआ जब महोत्सव में तेनाली राम शामिल नहीं हुआ। ऐसे सभासद, जो तेनाली राम की विद्वत्ता से ईष्या करते थे, वे भी उसकी अनुपस्थिति का कारण जानने को उत्सुक थे तथा जो उसके प्रशंसक थे, वे भी। महाराज की विवशता थी कि वे तेनाली राम के सन्दर्भ में कुछ कर नहीं सकते थे… बस, उन्होंने अपने खुफिया तंत्र को उसके बारे में पता करने का निर्देश दे दिया था।
महोत्सव स्थल पर खुला मंच का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। जब सुन्दर घाटी के कलाकारों का कार्यक्रम आरम्भ हुआ तब उसके संचालक ने एक पंक्ति की घोषणा की, ‘किसी को पतित या कमजोर समझकर उसकी उपेक्षा मत करो क्योंकि ये वैसे लोग हैं जो अभी उठे नहीं हैं।’
रंगमंच से पर्दा हटने पर सबके सामने हरियालियों से सजा एक दृश्य आया। ‘सुन्दर घाटी का यह सौन्दर्य इसकी हरियाली और सुन्दर फूल-पत्तियों के कारण है।’ दृश्य के साथ यह पाश्र्व ध्वनि सुनाई पड़ी। पाश्र्व ध्वनि में आगे सुना गया, ‘सुन्दर घाटी में बसने वाले कलाकार सम्पूर्ण धरा को हरियाली से आच्छादित करना चाहते हैं… उनकी चाहत की पवित्राता का परिणाम ही है कि वहाँ लौह दंड के सहारे तपस्या करने वाले ऋषि को अपनी तपस्या की पूर्णता का भान तब होता है जब उसके तप के प्रभाव से उसके लौह दंड पर भी फूल-पत्ते उग आते हैं। सुन्दर घाटी के कलाकारों का हृदय इतना कोमल और निष्पाप है कि उसके प्रभाव से वहाँ पवित्राता का ढोंग निष्प्रभावी हो जाता है।’
पाश्र्व ध्वनि के साथ ही मंच पर एक ऋषि को लौह दंड के सहारे तपस्या करते दिखाया गया और ध्वनि प्रभाव से यह दर्शाया गया कि बहुत वर्ष गुजर गए और ऋषि के लौह दंड में पुष्प खिल गए, हरी-भरी पत्तियाँ आ गईं। तभी वहाँ एक राजा हाथ में लौह दंड लिये आया और संकल्प लिया’ जिस तरह ये महर्षि कठोर तप करके अपना जीवन सार्थक कर रहे हैं, उसी तरह मैं भी कठोर तप करके अपना जीवन सार्थक करूंगा।’ और वह राजा उसी महर्षि के पास लौह दंड गाड़कर तपस्या करने लगा। इसके बाद मंच पर तूफान और घनघोर वर्षा का दृश्य पैदा हुआ। राजा और ऋषि इस प्राकृतिक आपदा से बेखबर, तपस्या में लीन रहे। उसके बाद मंच पर अचानक एक दीन-हीन व्यक्ति काँपता हुआ आया। वह वर्षा से भीगा हुआ, कमजोर और बीमार था। वह ऋषि के पास जाकर गिड़गिड़ाया कि वे उसे कहीं सिर छुपाने की जगह बता दें। ऋषि अपनी तपस्या में लीन रहा और जब वह व्यक्ति ऋषि को झकझोरकर उससे सिर छुपाने की जगह बताने के लिए गिड़गिड़ाया तो महर्षि ने उसे धक्का देकर परे ठेल दिया और फिर अपनी तपस्या में लीन हो गया। फिर वह व्यक्ति तपस्या में लीन राजा के पास गया और राजा के पास जाकर गिड़गिड़ाया। राजा ने अपनी आँखें खोल दीं और उस व्यक्ति की दीन-हीन दशा देखकर तपस्या से उठ खड़ा हुआ। राजा ने उस व्यक्ति को गोद में उठाया और बारिश में भीगते हुए उसे पास की एक कुटिया में ले गया। वहाँ उसने कुछ औषधीय पौधों के पत्ते तोड़े और उसका अर्क निकालकर उस व्यक्ति को पिलाया जिससे वह व्यक्ति स्वस्थ हो गया। इसके बाद राजा अपने तप स्थल पर आया और पद्मासन की मुद्रा में आ गया। दर्शकों ने यह देखकर तालियाँ बजाईं कि राजा के लौह दंड में हरे पत्ते और गुलाबी फूल खिलने लगे तथा ऋषि के लौह दंड के फूल-पत्ते मुरझा गए। फिर पाश्र्व ध्वनि गूँजी, ‘राजा प्रजा-पालक होता है। जो राजा अपनी गरीब प्रजा की सहायता को तत्पर रहता है, उसे उसका पुण्य तपस्या के फल के समान ही मिलता है।”
सन्देशों से भरी इस छोटी-सी नाटिका को महाराज कृष्णदेव राय ने भी देखा तथा उसमें निहित सन्देश से प्रभावित हुए। उन्हांने उस मंच के अन्य कार्यक्रमों को भी देखा लेकिन सुन्दर घाटी के कलाकारों के दल के द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम को भूल नहीं पाए।
निर्णायक-मंडल ने जब सुन्दर घाटी के कार्यक्रम में निहित सन्देश को श्रेष्ठ माना और सुन्दर घाटी के दल को विजेता घोषित किया तब महाराज ने भी तालियाँ बजाईं।
पुरस्कार वितरण के दौरान महाराज ने जो संक्षिप्त वक्तव्य दिया उसमें उन्होंने तेनाली राम को याद करते हुए कहा “सुन्दर घाटी के कलाकारों की तरह ही तेनाली राम पीडित मानवता की सेवा करने की आवश्यकता समझते रहे।” फिर महाराज ने कहा, “तेनाली राम हमारे दरबार के विदूषक ही नहीं, मेरे अनन्य मित्र हैं। आज वे यहाँ होते तो इस लघु नाटिका को देखकर उन्हें प्रसन्नता होती… मगर मेरी ही एक भूल….”
महाराज की पंक्ति पूरी नहीं हो पाई थी कि कलाकारों के दल के बीच से एक व्यक्ति, ऋषि की दाढ़ी अपने चेहरे से उतारता हुआ रंगमंच पर पहुँच एच गया, “बस, महाराज, आगे की पंक्ति मुझे कहने दें!” कहता वह व्यक्ति जब महाराज के पास पहुँच गया तब महाराज के मुँह से हर्ष ध्वनि निकली, “तेनाली राम! कहाँ चले गए थे?” उन्होंने तेनाली राम को अपनी भुजाओं में ले लिया।
…और तेनाली राम ने पंक्ति पूरी की, “हाँ, एक भूल ने मुझमें छुपे कलाकार को मंच पर आने का अवसर दिया।”
महाराज ने गद्दूद होकर अपने गले से मोतियों की माला उतारी और तेनाली राम के गले में डाल दी।
इसके बाद विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय अपनी प्रजा के प्रति और उदार हो गए। गरीबों के उत्थान के लिए उनके राज्य में कई कार्यक्रम आरम्भ हुए जिससे विजयनगर का यशोगान दूसरे राज्यों तक भी पहुँचा।
Also Read This: