वर्ण व्यवस्था कर्म प्रधान होती है, जबकि जाति-पाति का संबंध जन्म वंश या कुल से होता है। वर्ण शब्द की उत्पत्ति ‘वृ’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ वरण या चुनाव करना है। जो व्यक्ति अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार व्यवसाय का चुनाव करता है, वह उसी वर्ण का कहलाता है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैंने ही गुण और कर्म के आधार पर चारों वर्णों की रचना की है। इस प्रकार देखें तो व्यक्तियों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए समाज के कार्यों को सुव्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिए इसे चार वर्णों ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित किया गया है।

शांतिपर्व, मोक्ष धर्म. 188/11 से 15 में कहा गया है कि वर्षों में कोई शारीरिक विभिन्नता नहीं है। सब मनुष्यों के शरीर एक से हैं। सबमें स्वेद, मूत्र, श्लेष्मा, पित्त और रक्त प्रवाहित हो रहा है। समस्त जगत् को ब्रह्मा ने पहले ब्राह्मणमय ही बनाया था। सब अच्छे और पवित्र कर्म करते थे, लेकिन बाद में अच्छे-बुरे कर्मानुसार विभिन्न वर्गों को प्राप्त हुए। जो ब्राह्मण काम-भोग प्रिय, तीक्ष्ण स्वभाव के कारण क्रोधी, साहसप्रिय और स्वधर्म का त्याग करके राजसिक एवं लोहित वर्ण के हो गए, उन्हें क्षत्रिय कहा गया। गो रक्षण वृत्ति ग्रहण करके जो कृषिजीवी हुए वे स्वधर्मत्यागी, पीले रंग वाले वैश्य हुए। जो ब्राह्मण हिंसा प्रिय, अमृत प्रिय, लोभी और सर्वकर्मोपजीवी हो गए, वे सफाई का काम करने वाले अंग की तरह काले रंग के व्यक्ति शूद्र कहलाए। इस प्रकार गुण, कर्म और स्वभाव की विभिन्नता के कारण अलग-अलग ब्राह्मण लोग ही वर्षांतर को प्राप्त हुए। अतः उनके लिए शुभ क्रिया और धर्म नित्य विहित है, निषिद्ध नहीं। इन चारों वर्णों को ज्ञान में समान अधिकार है। महाभारत शांतिपर्व 188/10 के अनुसार वर्ण में कोई ऊंच-नीच नहीं, सभी ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं।

म. महापुराण ब्रा. अ. 42 के अनुसार यदि एक पिता के चार पुत्र हों, तो उन पुत्रों की एक जाति होनी चाहिए। इसी प्रकार एक ही परमेश्वर सबका पिता है। अतः मनुष्य समाज में जातिभेद बिल्कुल नहीं होना चाहिए।

मनुस्मृति में लिखा है-

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्येते ।
वेदाभ्यासी भवेद्विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ॥
अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं। संस्कारों की वजह से द्विज कहलाता है। यदि वह वेदाध्ययन करने वाला है, तो विप्र कहलाएगा और जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण कहलाता है।

ऋग्वेद 5/60/5 में कहा गया है कि मनुष्यों में जन्मजात कोई भेदभाव नहीं। उसमें कोई छोटा बड़ा नहीं। सब आपस में बराबर हैं। सभी मिल-जुलकर लक्ष्य की प्राप्ति करें। जाति-पांति के नाम पर वर्तमान ऊंच-नीच अकारण है। इसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। अतः अस्पृश्यता कलंक है। परस्पर घृणा और द्वेष का प्रचार इसी के बल पर किया जाता है। भगवान् वान् जाति-पांति को नहीं, कर्म को देखते हैं।

भक्त रैदास ने कहा है-
हरि को भजै सो हरि का होई। जाति-पांति पूछे नहीं कोई ॥

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