मत्स्यपुराण में यज्ञ के संबंध में कहा गया है कि जिस कर्म विशेष में देवता, हवनीय द्रव्य, वेद मंत्र, ऋत्विक् एवं दक्षिणा-इन पांच उपादानों का संयोग हो, उसे यज्ञ कहा जाता है। परमार्थ प्रयोजनों के लिए किया गया सत्कर्म ही यज्ञ है। हमारे ऋषि-मुनियों ने यज् धातु से निष्पन्न यज्ञ शब्द के तीन अर्थ-देवपूजन, संगतिकरण और दान बताए हैं। देवपूजन यानी देवी-देवताओं के सद्‌गुणों का अनुगमन कर परिष्कृत व्यक्तित्व बनाना। संगतिकरण यानी एक विचारधारा के लोगों का सोद्देश्य मिलन संघबद्धता, सहकारिता और एकता। दान यानी उदार सहृदयता, समाज परायणता और विश्व कौटुंबिकता। इस प्रकार इन तीनों सत्प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व यज्ञ के माध्यम से होता है।

havan karte samay swaha kyon bola jata hai
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यज्ञ के जरिए शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शांति, आत्म शुद्धि, आत्मबल वृद्धि, आध्यात्मिक उन्नति और आरोग्य की रक्षा होती है। यज्ञाग्नि की पांच विशेषताओं को पंचशील कहा गया है, जो इस प्रकार हैं-सदा गरम अर्थात् सक्रिय रहना, ज्योतित अर्थात् अनुकरणीय बनकर रहना, संपर्क में आने वालों को अपना बना लेना, उपलब्धियों का संग्रह न कर वितरित करते रहना, लौ ऊंची रखना अर्थात् चिंतन, चरित्र और स्वाभिमान को नीचे न गिरने देना।

कालिकापुराण में यज्ञ के संबंध में कहा गया है-

यज्ञेषु देवास्तुष्यन्ति यज्ञे सर्व प्रतिष्ठितम् । यज्ञेन थ्रियते पृथ्वी यज्ञस्तारयति प्रजाः ॥
अन्नेन भूता जीवन्ति यज्ञे सर्व प्रतिष्ठितम् । पर्जन्यो जायते यज्ञात् सर्व यज्ञमयंततः ॥
– कालिकापुराण 23-7-8
अर्थात् यज्ञों से देवता संतुष्ट होते हैं, यज्ञ ही समस्त चराचर जगत का प्रतिष्ठापक है। यज्ञ पृथ्वी को धारण किए हुए हैं, यज्ञ ही प्रजा को पापों से बचाता है। अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं, वह अन्न बादलों द्वारा उत्पन्न होता है और बादल की उत्पत्ति यज्ञ से होती है। अतः यह संपूर्ण जगत यज्ञमय है।

शास्त्रकारों ने कहा है-

श्रीकामः शांतिकामो वा ग्रहयज्ञं समारभेत् ।
वृष्टि आयुः पुष्टिकामो वा तथैवाभिचरन पुनः ॥
अर्थात् धन की कामना करने वाले, शांति के अभिलाषी, दीर्घायु और सुख प्राप्ति के इच्छुक, वर्षा की कामना करने वाले तथा शरीर की बलवृद्धि की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को यज्ञ अवश्य करना चाहिए।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता 3/15
अर्थात् सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित हैं।

महानारायणीयोपनिषद् में कहा गया है-

यज्ञेन हि देवा दिवंगताः यज्ञेनासुरानपानुदन्तः ।
यज्ञेन द्विषन्तो मित्रा भवन्ति यज्ञेन सर्व प्रतिष्टितम् तस्माद्यज्ञं परमं वदन्ति ।
यज्ञ से देवताओं ने स्वर्ग को प्राप्त किया और असुरों को परास्त किया। यज्ञ से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। यज्ञ में सब प्रकार के गुण हैं। अतः श्रेष्ठजन यज्ञ को श्रेष्ठ कर्म कहते हैं।

अग्निपुराण 380/1 में कहा गया है-यज्ञैश्चदेवानाप्नोति । अर्थात् यज्ञ से देवताओं का अनुदान प्राप्त होता है।

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड 3/124 में कहा गया है कि यज्ञ में प्रसन्न हुए देवता मनुष्यों पर कल्याण की वर्षा करते हैं।

मनुस्मृति 3/76 में कहा गया है कि अग्नि में विधि-विधानपूर्वक दी हुई आहुति सूर्यदेव को प्राप्त होती है।

सामदेव 879 में कहा जाता है कि जो मनुष्य अग्नि में भली प्रकार होम करते हैं, उन्हें उत्तम संतान, सद्बुद्धि, धन और धान्य की प्राप्ति होती है।

जब ब्रह्माजी ने मनुष्य को उत्पन्न किया, तो उसने अपना सारा जीवन दुख, कष्ट और अभावों से घिरा देखा। उसने विधाता से शिकायत की ‘भगवन्! इस संसार में असहाय छोड़े गए हम मनुष्यों की रक्षा और पोषण कौन करेगा ?

पितामह ब्रह्मा बोले- ‘तात! यज्ञ द्वारा देवताओं को आहुतियां प्रदान करना, इससे संतुष्ट हुए देवता तुम्हें धन, संपत्ति, बल और ऐश्वर्य से भर देंगे।’

यज्ञ की अग्नि में आहुति डालते समय देवताओं के आह्वान मंत्रोच्चारण करते समय अंत में स्वाहा कहा जाता है। चूंकि अग्नि की पत्नी का नाम स्वाहा है, इसलिए हविष्य अग्नि को भेंट करते समय स्वाहा बोलकर उनके माध्यम से भेंट करने का विधान है। स्वाहा का अर्थ सु-आह ‘अच्छा बोलना’ भी है।

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