एक महान संत थे जो बहुत बड़े तपस्वी थे। उन्हें कई शास्त्रों का ज्ञान था। कई श्लोक मुँह जबानी याद थे। उनकी बुद्धिमानी के चर्चे मीलों तक थे। संत दिन रात प्रत्येक पल भगवान् की भक्ति में लगे रहते थे। कठिन से कठिन तपस्या करते थे, लेकिन उन्हें सेवा में रूचि नहीं थी। उन्हें लगता था सेवा से ज्ञान नहीं मिलता। केवल ईश्वर के ध्यान से ही जीवन सार्थक होता है। इसलिए वे दिन रात ईश्वर भक्ति में तल्लीन रहते थे। ना उन्हें किसी अन्य से लेना था, ना देना। ना किसी का भला करते थे और ना ही बुरा। ऐसे व्यक्ति से समाज को कोई खतरा नहीं होता। उन्हें लोग अच्छा ही मानते हैं। इसी कारण इनकी प्रसिद्धी सभी जगह थी।

एक दिन, संत अपनी साधना के लिए वट वृक्ष के नीचे बैठे। अचानक ही वही बैठे -बैठे उनके प्राण निकल गये। मृत्यु के बाद जब उनके सामने चित्रगुप्त आये तो उन्होंने संत से कहा, “हे तपस्वी ! तुम्हारी तपस्या और ईश्वर भक्ति को देख कर, तुम्हे एक कुलीन, प्रतिष्ठित परिवार में अगला जन्म दिया जायेगा।” यह सुनकर संत दुखी स्वर में बोले, “हे चित्रगुप्त! मैंने वर्षो तपस्या की, उसमे कोई कमी नहीं रखी। किसी प्राणी को दुःख नहीं दिया। फिर भी मुझे मोक्ष की प्राप्ति क्यूँ नहीं हो रही ?”

इस पर चित्रगुप्त ने संत को धर्मराज के सामने पैश किया।

संत ने अपनी सारी व्यथा धर्मराज से कही। अपने सारे धार्मिक कर्म कांड के बारे में विस्तार से कहा।

यह सब सुनकर धर्मराज मुस्कराये और उन्होंने कहा, “हे वत्स! वास्तव में तुम मानव धर्म को जान ही नहीं पाये। मुझे पता है, तुमने कठिन से कठिन तप किया। किसी को कष्ट नहीं दिया, लेकिन तुमने परोपकार भी नहीं किया। अपने अर्जित ज्ञान से किसी अज्ञानी की मदद नहीं की। किसी रोगी का उपचार नहीं किया। किसी भटके राही को सही मार्ग नहीं दिखाया। वास्तव में तुम जानते ही नहीं हो कि परोपकार ही असल मायने में मानव धर्म है। सेवा भाव ही मानव जीवन का आधार होना चाहिये।” इस तरह संत को अपनी भूल का ज्ञान हुआ, और उन्होंने अपने अगले जन्म में तप के साथ सेवा भाव को भी जीवन का लक्ष्य बनाया, और फिर उन्हें वर्षो बाद मोक्ष की प्राप्ति हुई।

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया।

1. केवल ज्ञान से मोक्ष नहीं मिलता
सिर्फ शास्त्रों का ज्ञान होना, या कठिन तप करना ही मोक्ष की गारंटी नहीं है। ज्ञान तब तक अधूरा है जब तक वह सेवा में उपयोग न हो।

2. सेवा भाव ही सच्चा धर्म है
मानव जीवन का असली उद्देश्य परोपकार है। यदि किसी ज़रूरतमंद की सहायता नहीं की, किसी को दिशा नहीं दी, किसी पीड़ित को सहारा नहीं दिया — तो तपस्या अधूरी है।

3. निष्क्रिय भक्ति अधूरी भक्ति है
केवल ध्यान, पूजा और भक्ति में लीन रहना, जबकि समाज को कुछ न देना, स्वार्थ की भक्ति कहलाती है। भक्ति तभी संपूर्ण होती है जब उसमें करुणा और सेवा जुड़ी हो।

4. ज्ञान का मूल्य तभी है जब वो बाँटा जाए
अपने अर्जित ज्ञान को केवल संग्रह करके बैठ जाना आत्म-मोह है। सच्चा ज्ञानी वही है जो अपने ज्ञान से अज्ञानी को प्रकाश दे।

5. मानव धर्म = भक्ति + परोपकार
धर्म का असली स्वरूप तप, साधना और भक्ति के साथ मानवता की सेवा में निहित है। तभी जीवन सार्थक होता है और मोक्ष संभव होता है।

निष्कर्ष: “जो केवल अपने लिए जिए, वह साधक नहीं; जो सबके लिए जिए, वही सच्चा भक्त है।”

 

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