आदि काल से हमारे समाज ने गुरु की महत्ता को एक स्वर से स्वीकारा है। ‘गुरु बिन ज्ञान न होहि’ का सत्य भारतीय समाज का मूलमंत्र रहा है। शिक्षा हो, जीवनदर्शन हो या धर्म संस्कार की बात हो, इनका ज्ञान बिना गुरु के नहीं मिलता। हमारे प्राचीन शास्त्रों में गुरु महिमा का वर्णन इस प्रकार मिलता है-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रहा तस्मै श्री गुरुवे नमः॥
– गुरुगीता, पृष्ठ 43
अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश का स्वरूप है। गुरु ही साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर है। ऐसे गुरु को बारंबार नमस्कार है।

तुलसीदासजी ने लिखा है-

गुरु विनु भवनिधि तरइ न कोई।
जो विरंचि संकर सम होई ॥
– रामचरितमानस/उत्तरकांड 92/3
अर्थात् संसार रूपी सागर को कोई अपने आप तर नहीं सकता। चाहे ब्रह्माजी जैसे सृष्टिकर्ता हों या शिवजी जैसे संहारकर्ता हों, फिर भी अपने मन की चाल से, अपनी मान्यताओं के जंगल से निकलने के लिए पगडंडी दिखाने वाले सद्‌गुरु अवश्य चाहिए।

आपस्तम्बगृह्यसूत्र में लिखा है-

स हि विद्यातः तं जनयति तदस्य श्रेष्ठं जन्म।
मातापितरौ तु शरीरमेव जनयतः॥
अर्थात् माता-पिता शरीर को जन्म अवश्य देते हैं, किंतु सत्य जन्म गुरु से होता है, जिसे शास्त्रकारों ने श्रेष्ठ जन्म कहा है।

गुरु और गुरु-तत्त्व की कितनी महत्ता है, इसके बारे में भगवान् शिव-पार्वती से कहते हैं-

गुरु-भक्ति-विहीनस्य तपो विद्या व्रतं कुलम् ।
निष्फलं हि महेशनि ! केवलं लोक रंजनं ॥
गुरु भक्तारंव्य दहनं दग्ध दुर्गतिकल्मषः ।
श्वपचोऽपि पेरेः पूज्यो न विद्वानपि नास्तिकः ॥
धर्मार्थ कामैः किल्वस्य मोक्षस्तस्य करे स्थितिः ।
सर्वार्थश्री गुरौ देवि! यस्य भक्तिः स्थिरा सदा ॥
अर्थात् शिव पार्वती से कहते हैं कि हे देवी, कोई मनुष्य बड़ा तपस्वी, विद्वान्, कुलीन, सब कुछ हो, किंतु यदि गुरु और गुरु भक्ति से रहित हो, तो उसका विद्वान् आदि होना निरर्थक है। अतः उसकी विद्या, उसकी कुलीनता, उसका तप लोकरंजन अवश्य कर सकता है, किंतु फल उसका कुछ नहीं। गुरु भक्ति रूपी अग्नि से जिसने अपने पाप रूपी काष्ठों को भस्म कर दिया है, वह चांडाल भी संसार में आदरणीय है, परंतु विद्वान् होते हुए भी गुरु देवता को न मानने वाला नास्तिक मनुष्य आदरणीय नहीं होता।

वाल्मीकि रामायण में कहा गया है –
स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च।
गुरुवृत्त्यनुरोधेन न किंचिदपि दुर्लभम् ॥
– अयोध्याकांड 30/36

अर्थात् गुरुजनों की सेवा करने से स्वर्ग, धन-धान्य, विद्या, पुत्र, सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं।

महाभारत में लिखा है –

न विना गुरुसम्बन्ध ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः।
– महाभारत वनपर्व 326/22
अर्थात् बिना गुरु की सेवा में गए ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।

श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता 17/14
अर्थात् देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा-ये शरीर संबंधी तप कहलाते हैं। जो मनुष्य ज्ञान दे और ब्रह्म की ओर ले जाए उसे गुरु कहते हैं। गुरु उसी को जानिए जो ज्ञान भी समझा सके और उसका प्रमाण भी दे सके।

श्रीराम जी को पाकर वसिष्ठ, अष्टावक्र को पाकर जनक जी, गोविंदपादाचार्य को पाकर शंकराचार्य जी, गुरु सांदीपनि जी को पाकर श्रीकृष्ण-बलराम ने अपने को बड़भागी माना। सच ही गुरु की महिमा अपरंपार है। गुरु की महत्ता को बनाए रखने के लिए ही गुरुपूर्णिमा का विशेष पर्व मनाया जाता है।

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