गंगा प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अत्यंत पूज्य रही है। इसका धार्मिक महत्त्व जितना है, विश्व में शायद ही किसी नदी का होगा। यह विश्व की एकमात्र नदी है, जिसे श्रद्धा से माता कहकर पुकारा जाता है।

महाभारत में कहा गया है-

यद्यकार्यशतम् कृत्वाकृतम् गंगाभिषेचनम् । सर्व तत् तस्य गंगाभ्भो दहत्यग्निरिवेन्धनम् ॥
सर्व कृतयुगे पुण्यम त्रेतायां पुष्करं स्मृतम्। द्वापरेऽपि कुरुक्षेत्रं गंगा कलियुगे स्मृता ॥
पुनाति कर्तिता पापं दृष्य भद्रं प्रयच्छति । अवगाढा च पीता च पुनात्यासप्तमं कुलम ॥
-महाभारत वनपर्व 85/89-90-93

ganga nadi ko sabse pavitra kyon mana jata hai
ganga nadi ko sabse pavitra kyon mana jata hai

अर्थात् जैसे अग्नि ईंधन को जला देती है, उसी प्रकार सैकड़ों निषिद्ध कर्म करके भी यदि गंगा स्नान किया जाए, तो उसका जल उन सब पापों को भस्म कर देता है। सत्ययुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते थे। त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा की सबसे अधिक महिमा बताई गई है। नाम लेने मात्र से गंगा पापी को पवित्र कर देती है, देखने से सौभाग्य तथा स्नान या जल ग्रहण करने से सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है।

गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने ‘स्रोतसामस्मि जाह्नवी’ अर्थात् जल स्रोतों में जाहनवी (गंगा) मैं ही हूं, कहकर गंगा को अपना स्वरूप बताया है।

शास्त्रकारों का कहना है- औषधि जाह्नवी तोयं वैद्यो नारायणः हरिः ।
अर्थात् आध्यात्मिक रोगों की दवा गंगाजल है और उन रोगों के रोगियों के चिकित्सक परमात्मा नारायण हरि हैं।

गंगा का आध्यात्मिक महत्त्व शास्त्रों में विस्तार से बताया गया है-
पद्मपुराण में कहा गया है कि गंगा के प्रभाव से मनुष्य के अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं और अनंत पुण्य प्राप्त होते हैं। स्वर्गलोक में निवास मिल जाता है।

अग्निपुराण में कहा गया है कि गंगा सद्गति देने वाली है। जो नित्य गंगाजल सेवन करते हैं, वे अपने वंश सहित तर जाते हैं। गंगा स्नान, गंगाजल के पान तथा गंगा नाम का जप करने से असंख्य मनुष्य पवित्र और पुण्यवान हुए हैं। गंगा के समान कोई जलतीर्थ नहीं है।

स्कंदपुराण में कहा गया है कि जैसे बिना इच्छा के भी स्पर्श करने पर आग जला ही देती है, उसी प्रकार अनिच्छा से भी गंगा-स्नान करने पर गंगा मनुष्य के पापों को धो देती है।

अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहनो हि यथा दहेत्।
अनिच्छयापिसंस्नाता गंगा पापं तथा दहेत् ॥
– स्कंदपुराण, काशी प. 27/49

गंगा जल पर किए शोध कार्यों से स्पष्ट है कि यह वर्षों तक रखने पर भी खराब नहीं होता। स्वास्थ्यवर्धक तत्त्वों का बाहुल्य होने के कारण गंगा का जल अमृत के तुल्य, सर्व रोगनाशक, पाचक, मीठा, उत्तम, हृदय के लिए हितकर, पथ्य, आयु बढ़ाने वाला तथा त्रिदोष नाशक होता है। इसका जल अधिक संतृप्त माना गया है। इसमें पर्याप्त लवण जैसे कैलशियम, पोटेशियम, सोडियम आदि पाए जाते हैं और 45 प्रतिशत क्लोरीन होता है, जो जल में कीटाणुओं को पनपने से रोकता है। इसी की उपस्थिति के कारण पानी सड़ता नहीं और न ही उसमें कीटाणु पैदा होते हैं। इसकी अम्लीयता एवं क्षारीयता लगभग समान होती है। गंगाजल में अत्यधिक शक्तिशाली कीटाणु-निरोधक तत्त्व क्लोराइड पाया जाता है। डॉ. कोहिमान के मत में जब किसी व्यक्ति की जीवनी शक्ति जवाब देने लगे, उस समय यदि उसे गंगाजल पिला दिया जाए, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी जीवनी शक्ति बढ़ती है और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनंद का स्रोत फूट रहा है। शास्त्रों के अनुसार इसी वजह से अंतिम समय में मृत्यु के निकट आए व्यक्ति के मुंह में गंगा जल डाला जाता है।

गंगा स्नान से पुण्य प्राप्ति के लिए श्रद्धा आवश्यक है। इस संबंध में एक कथा है-एक बार पार्वती ने शंकर भगवान् से पूछा- ‘गंगा में स्नान करने वाले प्राणी पापों से छूट जाते हैं?’ इस पर शंकर भगवान् बोले- ‘जो भावनापूर्वक स्नान करता है, उसी को सद्गति मिलती है, अधिकांश लोग तो मेला देखने जाते हैं। पार्वती को इस जवाब से संतोष नहीं मिला। शंकर जी ने कहा- ‘चलो तुम्हें इसका प्रत्यक्ष दर्शन कराते हैं।’ गंगा के निकट शंकर जी कोढ़ी का रूप धारण कर रास्ते में बैठ गए और साथ में पार्वतीजी सुंदर स्त्री का रूप धारण कर बैठ गईं। मेले के कारण भीड़ थी। जो भी पुरुष कोढ़ी के साथ सुंदर स्त्री को देखता, वह सुंदर स्त्री की ओर ही आकर्षित होता। कुछ ने तो उस स्त्री को अपने साथ चलने का भी प्रस्ताव दिया। अंत में एक ऐसा व्यक्ति भी आया, जिसने स्त्री के पातिव्रत्य धर्म की सराहना की और कोढ़ी को गंगा स्नान कराने में मदद दी। शंकर भगवान् प्रकट हुए और बोले ‘प्रिये! यही श्रद्धालु सद्गति का सच्चा अधिकारी है।’

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