पूजा-पाठ, साधना, तपस्या आदि कर्मकांड के लिए उपयुक्त आसन पर बैठने का विशेष महत्त्व होता है। ब्रह्मांडपुराण तंत्रसार में कहा गया है कि इन कर्मकांडों हेतु भूमि पर बैठने से दुख, पत्थर पर बैठने से रोग, पत्तों पर बैठने से चित्तभ्रम, लकड़ी पर बैठने से दुर्भाग्य, घास-फूस पर बैठने से अपयश, कपड़े पर बैठने से तपस्या में हानि और बांस पर बैठने से दखिता आती है।

उल्लेखनीय है कि विना आसन बिछाए धार्मिक कर्मकांड करने के लिए बैठने से उसमें सिद्धि अर्थात् पूर्ण सफलता नहीं मिलती, ऐसे संकेत हमारे धर्मशास्त्र में दिए गए हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि काले हिरण के चर्म, कुशासन, गोवर का चौका, चीता या बाघ के चर्म, लाल कंबल आदि का आसन उपयोग में लेते थे। इसके पीछे मान्यता यह थी कि काले हिरण के चर्म से निर्मित आसन का प्रयोग करने से ज्ञान की सिद्धि होती है। कुश के आसन पर बैठकर जाप करने से सभी प्रकार के मंत्र सिद्ध होते हैं। गोबर के चौके पर बैठने से पवित्रता मिलती है। चीता या वाघ के चर्म से निर्मित आसन पर बैठने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। लाल कंबल से बने आसन पर बैठने से किसी इच्छा से किए जाने वाले कर्मों में सफलता मिलती है।
आपने देखा होगा कि साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि जो नियमित रूप से पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठान करते रहते हैं। एक विशेष प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति का संचय होने के कारण उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली बन जाता है। चेहरे पर तेज और विशेष प्रकार की चमक देखने को मिलती है। ये लोग कर्मकांड करते समय विद्युत के कुचालक आसन बिछाकर बैठते हैं, क्योंकि इससे उनकी संचित की गई शक्ति व्यर्थ नहीं जाती। अन्यथा सुचालक आसन के माध्यम से शक्ति लीक होकर पृथ्वी में चली जाने से व्यर्थ हो जाएगी और साधना का इच्छित लाभ नहीं मिलेगा। यही आसन बिछाने का वैज्ञानिक कारण है।
Also Read This:
