धर्म का विषय बड़ा गहन है। धर्म शब्द धू+मन् से बनता है। धृ का अर्थ जो है, जो विद्यमान है, जो स्थापित है, जो सुरक्षित है, जो नित्य सहायक है, जो आप धारण किया हुआ है और मन् का अर्थ है याद करना, मानना, मूल्यवान समझना, बड़ा मानना, प्रत्यक्ष करना और पूजा करना। हमारे वेद-पुराणों तथा धार्मिक ग्रंथों में धर्म की परिभाषा कई तरह से की गई है-

धर्मेण घार्यते लोकः ।
– चाणक्य सूत्र/234
अर्थात् धर्म ही संसार को धारण किए हुए है।

यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
-वैशेषिक शास्त्र 1/1/2
अर्थात् जिन नियमों के आचरण एवं अनुष्ठान करने से इस लोक (जीवन) और परलोक दोनों में अभीष्ट सिद्धियां प्राप्त हों, उस आचरण को धारण करना धर्म है।

सुगां ऋतस्य पंया।
– ऋग्वेद 8/3/13
अर्थात् धर्म का मार्ग मानव को सुख देता है, दुख से मुक्त करता है।

धर्मनित्यास्तु ये केचिन्न ते सीदन्ति कर्हिचित्।
महाभारत/वनपर्व 263/44
अर्थात् जो धर्म परायण है, वे कभी संकट को नहीं प्राप्त होते हैं।

सुखस्य मूलं धर्मः ।
– चाणक्य सूत्र
अर्थात् सुख का मूल धर्म है।

धर्मो माता पिता चैव धर्मो बन्धुः सुहृत्तया।
धर्मः स्वर्गस्य धर्मात्स्वर्गमषाप्यते ॥
अर्थात् धर्म माता है, धर्म पिता है, धर्म ही बंधु है और धर्म ही सच्चा मित्र है। धर्म ही स्वर्ग की सीढ़ी है, धर्म से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

धारयते जनैरिति धर्म।
अर्थात् मनुष्यों द्वारा जिसे धारण किया जाता है, अपने आचरण में लाया जाता है, वही धर्म कहलाता है।

जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मावर्जितम्।
यतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी व संशयः ॥
चाणक्य नीति 13/9
अर्थात् धर्म रहित मनुष्य मरे हुए मनुष्य के समान है। धार्मिक मनुष्य मरने के बाद भी जीवित रहता है, इसमें कोई शक नहीं, क्योंकि उसकी कीर्ति अमर रहती है। ऐसा धार्मिक मनुष्य दीर्घजीवी होता है।

महाभारत शांतिपर्व में कहा गया है- ‘धर्म मनुष्यों का मूल है, धर्म ही स्वर्ग में देवताओं को अमर बनाने वाला अमृत है, धर्म का अनुष्ठान करने से मनुष्य मरने के अनन्तर नित्य सुख भोगते हैं।’

आगे महाभारत में यह भी लिखा है-

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥
महाभारत स्वर्गारोहण 5/63
अर्थात् मनुष्य को किसी भी समय काम से, भय से, लोभ से या जीवन रक्षा के लिए भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्म नित्य है और सुख दुःख अनित्य है तथा जीव नित्य है और जीवन का हेतु अनित्य है।

मनु महाराज ने धर्म के जो दस लक्षण बताए हैं, वे इस प्रकार हैं-

वृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
मनुस्मृति 6/92
अर्थात् धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना (न्यायपूर्ण जीवन) शरीर के अंदर बाहर की पवित्रता, इंद्रियों पर नियंत्रण, विवेक बुद्धि (सद्बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध ये दस लक्षण धर्म के हैं। इनका पालन करने से जहां व्यक्ति स्वयं स्वस्थ और सुखी रहेगा, वहीं पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर भी सब सुखी रहेंगे।

वाल्मीकि रामायण में कहा गया है-

धर्मादर्थ प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मेण लभते सर्व धर्मसारमिदं जगत् ॥
– अरण्यकांड 9/30
अर्थात् धर्म से अर्थ प्राप्त होता है, धर्म से सुख का उदय होता है, धर्म से सब कुछ मिलता है। संसार में धर्म ही सार है।

धर्म के संबंध में महाभारत, अनुशासन पर्व में एक दृष्टांत का वर्णन मिलता है। एक बार हिमालय पर्वत पर शिवजी तपस्या कर रहे थे। उस समय माता पार्वती ने उनके पास जाकर पूछा- ‘भगवन! धर्म का क्या स्वरूप है? जो धर्म नहीं जानते ऐसे मनुष्य उसका किस प्रकार आचरण कर सकते हैं?’

इस पर शिवजी ने कहा- ‘देवी! किसी भी जीव की हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियों पर दया करना, मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना- यह गृहस्थ आश्रम का उत्तम धर्म है। गृहस्थ धर्म का पालन करना, पराई स्त्री के संसर्ग से दूर रहना, धरोहर और स्त्री की रक्षा करना, बिना दिए किसी दूसरे की वस्तु को न लेना, मांस और मदिरा को त्याग देना- ये धर्म के पांच भेद हैं, जिनसे सुख की प्राप्ति होती है। धर्म को श्रेष्ठ मानने वाले मनुष्यों को इन धर्मों का पालन अवश्य करना चाहिए।’

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