भारतीय संस्कृति में माता-पिता एवं गुरुजनों के नित्य चरण स्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त करने की परंपरा सत्युग, त्रेता, द्वापर युग से होती हुई आज भी यथावत् बनी हुई है। अथर्ववेद में तो मानव-जीवन की आचार संहिता का एक खंड ही है, जिसमें व्यक्ति की प्रातः कालीन प्राथमिक क्रिया के रूप में नमन को प्रमुखता दी गई है।

चरणस्पर्श करने का अर्थ है- श्रद्धा के साथ बुजुर्गों, पूजनीयों, विद्वानों के व्यक्तित्व, आदर्शों और विद्वत्ता के आगे नतमस्तक होना। चरण स्पर्श की भावना से जहां व्यक्ति विनम्र बनता है, वहीं वह सामने वाले व्यक्ति को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार चरणस्पर्श की प्रक्रिया से परस्पर आत्मीयता, विनयशीलता, नम्रता, आदर और श्रद्धा के भाव जाग्रत होते हैं। इसमें अंग संचालन से की गई शारीरिक क्रियाएं व्यक्ति को स्फूर्ति, उत्साह और चैतन्यता प्रदान करती हैं, क्योंकि चरणस्पर्श विधि अपने आप में एक लघु व्यायाम, एक योग-क्रिया भी है। इसके अलावा इससे मानसिक मलिनता, तनाव व आलस्य से भी छुटकारा मिलता है।

Charan Sparsh Aur Sashtang Pranam Kyon Karte Hain Kya Mahatva Hai
Charan Sparsh Aur Sashtang Pranam Kyon Karte Hain Kya Mahatva Hai

पांडवों को महाभारत युद्ध में विजयश्री मिली थी, क्योंकि उन्होंने युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व ही शत्रुपक्ष की ओर से युद्ध लड़ रहे अपने पितामह, गुरुजनों आदि की वंदना कर उनसे विजय का आशीर्वाद प्राप्त कर लिया था।

माता-पिता आदि का ऋण उतारना कठिन है। मनुस्मृति 2/228 में कहा गया है कि बच्चे की उत्पत्ति के समय माता-पिता जो क्लेश, कष्ट, दुख सहते हैं, उसका बदला सौ वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता। इसी ग्रंथ में पिता को प्रजापति की मूर्ति और माता को पृथ्वी की मूर्ति तुल्य बताया गया है। इसलिए इनकी सेवा को ही बड़ा भारी तप कहा गया है। जिसने माता-पिता का आदर और सेवा की, उसने सभी धर्मों का आदर किया समझना चाहिए। जिसने इनका आदर नहीं किया उसकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।

मनुस्मृति 2/232 में कहा गया है कि जो गृहस्थ माता-पिता की सेवा में तत्पर रहता है, वह तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करता है और स्वर्ग में सूर्य के सदृश अपने तेजस्वी शरीर के द्वारा प्रकाश करता हुआ आनंद में रहता है।

मनुस्मृति 2/121 में कहा गया है कि जो नित्य प्रति अपने बुजुर्गों, गुरुजनों को प्रणाम करता है, उसकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल सदा बढ़ते हैं। चरणस्पर्श की सही पद्धति क्या हो, इस संबंध में मनु ने कहा है-

ब्रह्मारम्भेऽव साने व पादौ ग्राह्यौ गुरौः सदा।
संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्मांजलिः स्मृतः ॥
व्यत्यस्त पाणिना कार्यमुप संग्रहण गुरोः ।
सव्येन सव्यः स्स्रष्टव्यो दक्षिणेन व दक्षिणः ॥
अर्थात् वेदाध्ययन के आरंभ और समाप्त होने पर शिष्य नित्यप्रति गुरुचरणों का स्पर्श करें और हाथों को जोड़ लें, यही ब्रह्मांजलि कही गई है। गुरु के पास दाएं हाथ से गुरु का दायां पैर और बाएं हाथ से बायां पैर स्पर्श करें।

एक हाथ से नमस्कार को अनुचित माना गया है। शास्त्रकार ने चेतावनी भी दी है-

जन्मप्रभृति यत्किंचित् सुकृतं समुपार्जितम् ।
तत्सर्वं निष्फलं याति एकहस्ताभिवादनात् ॥
– व्याघ्र, 367
अर्थात् एक हाथ से अभिवादन कभी नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से जीवन भर कमाया पुण्य निष्फल हो जाता है। इसलिए दोनों हाथों से बड़ी ही नम्रता एवं श्रद्धाभक्ति से अभिवादन करना चाहिए।

वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि हमारे हाथ-पैरों की उंगलियां और तलवे अत्यंत संवेदनशील अंग हैं, जिनकी सहायता से हम किसी वस्तु के कोमल, कठोर, शीतल या गर्म होने की अनुभूति प्राप्त करते हैं। चूंकि हमारे हाथ-पैरों की उंगलियों से एक विशेष प्रकार की विद्युत्धारा निरंतर निकलती रहती है। इसका उत्तम उदाहरण मेस्मेरिज़्म है, जिसमें हाथ की तरंगों का उपयोग पास देने में किया जाता है। हमारे मस्तक का कपाल, मर्मस्थल प्रदेश और हाथों की उंगलियों में इस विद्युत्धारा के प्रभाव को ग्रहण करने की विशेष क्षमता होती है। जब बुजुर्ग के चरण स्पर्श किए जाते हैं, तो वे आशीर्वाद स्वरूप हमारे मस्तक पर हाथ की हथेली रखते हैं। इस प्रकार परोक्ष रूप से वे हमें अपना उत्कृष्ट प्रभाव भी विद्युत्धारा के माध्यम से दे देते हैं। इस प्रकार प्राप्त ऊर्जा से हमें स्फूर्ति मिलती है। चेहरा आंतरिक खुशी से भर जाता है, मस्तक तेजोमय हो उठता है और खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आता है। आशीर्वाद एक गुप्त मानसिक कवच की तरह हमारी रक्षा करता है, प्रेरणा देता है, शक्ति का संचार करता है।

महाभारत के वनपर्व में एक कथा का उल्लेख मिलता है-

एक बार एक यक्ष ने धर्मराज युधिष्ठिर से प्रश्न किया- ‘व्यक्ति महान् व सर्वशक्तिमान कैसे बन सकता है?’
धर्मराज ने उत्तर दिया- ‘माता-पिता, गुरु एवं वृद्धजनों के श्रद्धा-भक्तिपूर्वक चरर्ण स्पर्श कर तथा उनकी सेवा कर उनके द्वारा प्रसन्नचित्त से दिए हुए आशीर्वाद की शक्ति प्राप्त कर के ही व्यक्ति महान् बन सकता है।’

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