शस्त्रों में लिखा है कि- ‘भजनस्य लक्षणं रसनम्’ अर्थात् अंतरात्मा का रस जिसमें उभरे, उसका नाम है- भजन, यानी हृदय में जो आनंद वस्तु, व्यक्ति या भोग-सामग्री के बिना भी आता है, वही भजन का रस है।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने 7/49/1-4 श्लोक में कहा है कि जो साधक भगवान् का विश्वास पाने के लिए भजन करता है, प्रभु अपनी अहेतुकी कृपा से उसे अपना विश्वास प्रदान करके उसके जीवन को सफल बना देते हैं।
पद्मपुराण उत्तराखंड में कहा गया है-
नाहं वसामि वैकुंठे योगिनांहृदये न च। मद्भक्ता यत्र गायंति तत्र तिष्ठामि नारद ॥
– पद्मपुराण उ. 14/23
अर्थात् हे नारद ! मैं न तो वैकुंठ में ही रहता हूं और न योगियों के हृदय में ही रहता हूं। मैं तो वहीं रहता हूं, जहां प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं। मैं सर्वदा लोगों के अंतःकरण में विद्यमान रहता हूं।
शास्त्रकार ने कहा है- मुक्तिः ददाति कश्चित् न भक्तियोगम् अर्थात् स्वयं भगवान् भी भजन करने वालों को मुक्ति सुलभ कर देते हैं, पर भक्ति सबको नहीं देते।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मंतव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता 9/30
अर्थात् यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव (शुद्ध मन) से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।
अर्थात् उसने भली भांति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। ऐसा व्यक्ति थोड़े ही दिनों में धर्मात्मा होकर सुख-शांति पाता है।
आगे भी उनका कहना है-
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम।
श्रीमद्भगवद्गीता 9/33
अर्थात् हे अर्जुन ! तू इस विनाशी और दुखमय यानी सुखरहित और क्षणभंगुर मनुष्य शरीर को प्राप्त हुआ है। इसलिए निरंतर मेरा ही भजन कर, ताकि इसके बाहर निकल सके।
इस प्रकार नित्य प्रार्थना का बड़ा महत्त्व है। मनुष्य ही नहीं देवता भी एक-दूसरे और ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।
प्रत्येक मानव के हृदय की प्रार्थना है-
असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।
बृहदारण्यक उपनिषद् 1:3, 271
अर्थात् मुझे असत् से सत् की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।
इसके द्वारा हम ईश्वर से अपना संबंध जोड़कर महान् विभूतियों के स्वामी बन सकते हैं और समस्त आधि-व्याधि, कष्ट, कठिनाइयों एवं रोग शोकों से मुक्ति पा सकते हैं।
ऋग्वेद में परमात्मा से प्रार्थना की गई है-
ओ३म् विश्वानि देव सविर्दुरितानि परासुव यद्भद्रं तन्न आसुव ।
– ऋग्वेद 5/2/5
अर्थात् है सकल जगत के उत्पन्न करने वाले ईश्वर ! तू हम सबके पापों को दूर कर और जो कल्याणकारी विचार हैं, उन्हें हमें प्रदान कर। हे कृपानिधे! हमारे अंतःकरणों को पवित्र कर शुद्ध, बुद्ध और पवित्र बना।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है-
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन। – उत्तरकांड 122 ख
जो चेतन कहं जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य । – उत्तरकांड 119 ख
तन ते कुलिस कुलिस तृन करई। – लंकाकांड 35/4
मतलब यह कि ईश्वर असंभव को संभव और संभव को असंभव बनाने में सर्वथा समर्थ है। उनमें किसी तरह की असामर्थ्य नहीं है। वह सब तरह से पूर्ण है। उनमें किंचित्मात्र भी कमी नहीं है। जब हमारा संबंध उनसे प्रार्थना के माध्यम से जुड़ जाएगा, तो उनकी सारी शक्ति हमारे में आ जाएगी।
‘यदेव श्रद्धया जुहोति तदेव वीर्यक्त्तरं भवति।’ – छांदोग्योपनिषद्
श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही फलवती होती है। अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम भी होगा। हम यदि आत्मविश्वास से, सच्चे मन, आर्तभाव से भगवान् को पुकारें, उनसे प्रार्थना करें, तो तत्काल लाभ मिलता है। चीरहरण के समय जब द्रौपदी सब तरफ से निराश हो गई, किसी ने उसकी प्रार्थना नहीं सुनी, तब उसने सच्चे मन से भगवान् को पुकारा, तो भगवान् कृष्ण ने उसकी लाज बचाई। प्रहलाद की रक्षा के लिए भगवान् नरसिंह रूप में अवतरित हुए। अश्वत्थामा के द्वारा छोड़ा गया अस्त्र उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिए आने लगा, तब उत्तरा ने भगवान् को पुकारा, तो उन्होंने उसके गर्भ की रक्षा की। मार्कण्डेय की करुणामय प्रार्थना पर साक्षात् शिव ने काल से उनकी रक्षा की। मीरा, सूर, तुलसी, समर्थ रामदास, चैतन्य महाप्रभु, नरसी भगत, तुकाराम आदि संत-महात्माओं की प्रार्थनाएं भगवान् द्वारा स्वीकार की गईं और उन सबका कल्याण हुआ।
प्रार्थना से कष्ट, दुख, संताप, पश्चात्ताप, शारीरिक बीमारियां, चित्त के विकार, मन के पाप दूर हो जाते हैं। आध्यात्मिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं, दैवी शक्तियां बढ़ती हैं, ईश्वर के प्रति विश्वास बढ़ता है, आत्मबल, आत्म-विश्वास व आत्मज्ञान में वृद्धि होती है। इस प्रकार हमारी आत्मा के लिए प्रार्थना एक टॉनिक का काम करती है।
