माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता है-

अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुध्यति ।

शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्राशन संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है कि शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे-

आहारशुद्धौ-सत्त्वशुद्धिः ।
– छान्दोग्य उपनिषद् 7/26/2
अर्थात् शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्व गुण की वृद्धि होती है।

annaprashan sanskar kyo kiya jata hai
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6-7 माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचन क्रिया प्रबल होने लगती है, ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरूप उसका तन-मन बनता है। मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है। अन्न से ही जीवन तत्त्व मिलते हैं, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है। अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्न मंत्र बोलते हैं-

शिवौ ते स्तां ब्रीहियवावबलासावदोमधी ।
एतौ यक्ष्मं विवाघेते एतौ मुंचतो अंहसः ॥
– अथर्ववेद 8/2/18
अर्थात् हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मा नाशक हैं तथा देवान्न होने से पाप नाशक हैं।

इस संदर्भ में महाभारत में एक रोचक कथा आती है- एक दिन भीष्म पितामह पांडवों को कोई उपदेश दे रहे थे कि अचानक द्रौपदी को हंसी आ गई। द्रौपदी के इस व्यवहार से पितामह को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने द्रौपदी से हंसने का कारण पूछा। द्रौपदी ने विनम्रता से कहा “आपके उपदेशों में धर्म का मर्म छिपा है पितामह। आप हमें कितनी अच्छी-अच्छी ज्ञान की बातें बता रहे हैं। यह सब सुनकर कौरवों की उस सभा की याद हो आई, जिसमें वे मेरे वस्त्र उतारने का प्रयास कर रहे थे। तब मैं चीख-चीखकर न्याय की भीख मांग रही थी, लेकिन आप वहां पर होने के बाद भी मौन रहकर उन अधर्मियों का प्रतिवाद नहीं कर रहे थे। आप जैसे धर्मात्मा उस समय क्यों चुप रहे? दुर्योधन को क्यों नहीं समझाया, यही सोचकर मुझे हंसी आ गई।”

इस पर भीष्म पितामह गंभीर होकर बोले- “बेटी, उस समय मैं दुर्योधन का अन्न खाता था। उसी से मेरा रक्त बनता था। जैसा कुत्सित स्वभाव दुर्योधन का है, वही असर उसका दिया अन्न खाने से मेरे मन और बुद्धि पर पड़ा, किंतु अब अर्जुन के बाणों ने पाप के अन्न से बने रक्त को मेरे तन से बाहर निकाल दिया है और मेरी भावनाएं शुद्ध हो गई हैं। इसीलिए अब मैं वही कह रहा हूं, जो धर्म के अनुकूल है।”

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